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भाजपा के अच्छे दिन पर कश्मीर के कठिन दिन

खरी-खरी            Jun 19, 2018


राजेंद्र तिवारी।

जम्मू-कश्मीर के ताज़ा हालात पर वरिष्ठ संपादक श्री राजेन्द्र तिवारी की यह टिप्पणी बहुत मौजूं है। श्री तिवारी जम्मू में 5 साल एक दैनिक अखबार के सम्पादक रह चुके हैं और वहां के नेताओं के जीवंत संपर्क में भी हैं। उनका मानना है कि बीजेपी ने अपने पत्ते सही समय पर फेंके हैं।

पेश है श्री तिवारी की टिप्पणी :

पीपुल्स डेमोक्रैटिक पार्टी और भारतीय जनता पार्टी की गठबंधन सरकार का गिरना कतई अचंभित करने वाला नहीं है। जब जम्मू-कश्मीर में सत्ता के लिए यह गठबंधन बना था, तब ही यह तय हो गया था कि दोनों की विरोधी विचारधारा किसी न किसी दिन टकराएगी ही। चर्चा थी कि महबूबा मुफ्ती गठबंधन से अलग हो सकती हैं लेकिन भाजपा ने स्थितियों को भांपकर पीडीपी की रणनीति को विफल कर दिया।

भाजपा ने गठबंधन से अलग होने के पीछे जो कारण बताए हैं उनमें जम्मू-कश्मीर के बिगड़ते हालात प्रमुख हैं। एक तरह से भाजपा ने जम्मू-कश्मीर के मौजूदा हालात के लिए जवाबदारी से खुद को अलग करने की कोशिश पीडीपी से अलग होकर की है। यह 2019 के आमचुनाव की तैयारी का एक हिस्सा भी होगा भाजपा के लिए।

नये नेतृत्व वाली भाजपा कश्मीर समस्या को सिर्फ कानून-व्यवस्था के रूप देखती रही है जबकि पीडीपी इसे एक राजनीतिक मसला मानती है। दिक्कत यहीं से शुरू होती है। 2014 के विधानसभा चुनाव में भाजपा ने देश में मिले जबरदस्त समर्थन की पीठ पर चढ़कर यहां भी २५ सीटें हासिल करके पीडीपी के बाद दूसरी सबसे बड़ी पार्टी के तौर पर उभरी।

भाजपा की ये सभी 25 सीटें जम्मू संभाग से हीं आयीं थीं जबकि पीडीपी की सभी 28 सीटें कश्मीर संभाग से। मुफ्ती मोहम्मद सईद ने उस समय भाजपा के साथ गठबंधन कर असंभव को संभव बना दिया था। लेकिन 10 माह बाद ही उनकी मृत्यु हो गयी।

महबूबा को नेतृत्व की तैयारी का फैसला लेने में काफी वक्त लगा और अप्रैल 2016 में वे पीडीपी-भाजपा गठबंधन सरकार की मुख्यमंत्री बनीं। तब से अब तक कश्मीर लगातार अशांत बना हुआ है। हुआ यह कि सरकार के लिए जो सहमति का एजेंडा बना, उस पर सरकार चल ही नहीं पायी।

पिछले दिनों की घटनाओं से भी दोनों पार्टियां असहज महसूस कर रही थीं। यदि पीडीपी पहले गठबंधन तोड़ देती तो भाजपा के लिए जवाब देना मुश्किल हो जाता। लेकिन अब भाजपा ने अपनी चाल से पीडीपी को पस्त कर दिया।

दरअसल, मुफ्ती मोहम्मद सईद एक मंजे हुए राजनीतिक थे जबकि महबूबा मुफ्ती जन नेता तो हैं लेकिन राजनीतिक के तौर पर वे बहुत कच्ची हैं। यह बात बार-बार साबित हुई है। आज ही गठबंधन टूटने के बाद महबूबा अपनी स्थिति स्पष्ट करती नजर आईं जबकि भाजपा ने अपनी जिम्मेदारी से पल्ला झाड़ लिया।

आइये देखते हैं कि फांस कहां थी। दरअसल भाजपा के हिसाब से चीजें नहीं चल पा रही थीं। विकास परियोजनाओं के अलावा और भी कई ऐसी चीजें थीं, जिनपर भाजपा के हिसाब से सरकार आगे नहीं बढ़ रही थी।

2008 के दौरान हुए अमरनाथ भूमि विवाद में जिन लोगों पर एफआईआर हुई थी, भाजपा उनपर से एफआईआर वापस ली जाए। माना जाता है कि मुफ्ती मोहम्मद सईद इसके लिए तैयार थे लेकिन महबूबा ने ऐसा नहीं किया। लेकिन इसके उलट, भाजपा के कड़े प्रतिरोध के बाद भी सरकार जमायत अहल-ए-हदीस को ईदगाह के लिए स्थायी तौर पर भूमि आवंटित करने जा रही थी।

इससे पहले कठुआ बलात्कार कांड में भी भाजपा को मुंह की खानी पड़ी और मुख्यमंत्री की ओर से उसको कोई सहारा नहीं मिला। इससे जम्मू में भाजपा के खिलाफ असंतोष बढ़ रहा था। दूसरी तरफ, बुरहान वानी से लेकर शुजात बुखारी की आतंकी हत्या तक की घटनाएं पीडीपी को भारी पड़ रही थीं।

प्रधानमंत्री ने पिछले दौरे पर माता वैष्णोदेवी के मंदिर से जो संकेत दिये, उनमें कश्मीर कहीं नहीं था। पत्थरबाजी करने वाले कश्मीरी नौजवानों का मामला और फिर सेना द्वारा एक कश्मीरी को मानव ढाल की तरह इस्तेमाल किये जाने व संबंधित सैन्य अफसर को पुरस्कृत किये जाने जैसी बातों से महबूबा पर भी दबाव बढ़ता जा रहा था। लेकिन रमजान से पहले एकतरफा संघर्ष विराम की महबूबा की मांग को मानकर केंद्र ने थोड़ा समय लिया।

रमजान के आखिरी दिन जो घटनाएं हुईं, उनसे पीडीपी मुश्किल में महसूस कर रही थी और वह कोई कदम उठाती, उससे पहले ही भाजपा ने उन्हीं घटनाओं का सहारा लेकर महबूबा को कटघरे में खड़ा कर दिया।

कश्मीर में हालात खराब हैं और इधर २०१९ के आम चुनाव सिर पर हैं। भाजपा को बड़ा मुद्दा भी चाहिए जिसके नीचे उसकी नाकामियां ढंकी जा सकें। कश्मीर से बढ़िया मुद्दा और क्या हो सकता है। जम्मू-कश्मीर विधानसभा में सीटों की जो स्थिति है, उसमें कोई सरकार तो बनती दिखाई नहीं दे रही। ऐसे में राज्यपाल शासन का ही विकल्प बचता है।

यानी अप्रत्यक्ष रूप से केंद्र यानी भाजपा का शासन। भाजपा इस मौके का इस्तेमाल, कश्मीर में अलगाववादियों के खिलाफ सघन अभियान चलाने के लिए कर सकती है। इससे देश में मेसेज जाएगा है कि देखिये, कश्मीर में कोई और सरकार इतनी कड़ाई नहीं कर सकती, जितनी वह कर रही है।

इस अभियान में जो अलगाववादी-आतंकवादी मारे जाएंगे, उनका नाम सामने आने से भाजपा का नैरेटिव और मजबूत होगा। वह भी बिना कोई सांप्रदायिक बात कहे। बहुत जल्दी वहां राज्यपाल बदले जाने की खबर आ सकती है। जैसे 1990 में हुआ था।

भाजपा को 2019 के आमचुनाव में इस नैरेटिव का फायदा मिलना लगभग तय है। देखने वाली बात यह होगी कि राज्यपाल शासन के जरिये सघन सैन्य अभियान का असर कश्मीर पर क्या होगा और कुल मिलाकर एक बहुलतावादी देश के तौर पर हम फायदे में रहेंगे या स्थितियां और भी भयावह होती जाएंगी।

व्हाया डॉ. प्रकाश हिंदुस्तानी के वॉल से

 



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