पवित्र श्रीवास्तव।
मौजूदा वक्त में नेताओं को मसीहा के रूप देखा जा रहा है, जो सही नहीं है। नेता चाहे वह कोई भी हो मसीहा नहीं हो सकता। नेता या जनप्रतिनिधि इस देश के सर्विस प्रोवाइडर से ज़्यादा कुछ नहीं है।
जनता को सर्विस प्रोवाइड करना उनका कर्तव्य है और जो इस कर्तव्य को पूरी ईमानदारी से नहीं निभाता उन्हें रास्ता दिखाना जनता की ज़िम्मेदारी है।
लेकिन अब चुनाव में ऐसा कुछ नहीं दिखता। लोग अपने-अपने नज़रिये से बीजेपी, कॉंग्रेस, सपा, बसपा, आप और आरजेडी समेत तमाम पार्टियों के अनुयायी नज़र आते हैं।
असल में इस साल का चुनाव महागठबंधन और बीजेपी का नहीं है, यह चुनाव दो विचारधारा की लडा़ई है। एक विचारधारा के साथ सांप्रदायिक, राष्ट्रवादी और तानाशाही जैसा तमगा लगा है, तो दूसरा धर्मनिरपेक्ष और संविधान बचाने की बात करता है।
इस प्रकार इन दोनों विचारधारा में लोग बंट चुके हैं और अपने-अपने विचारधारा के अनुरूप कोई प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को मसीहा के तौर पर देख रहे हैं, तो कोई राहुल, माया, ममता, अखिलेश, तेजस्वी और अरविंद केजरीवाल को अपना मसीहा या सर्वोच्च मान रहे हैं, जो सही नहीं है।
मैं एक बार फिर कह रहा हूं कि नेता केवल इस देश की जनता के सर्विस प्रोवाइडर हैं, जनता को सर्विस प्रोवाइड करना ही उनका काम है। नेताओं के पीछे जाकर जनता अपना मूल्य खोती है और नेताओं का मूल्य बढ़ाती है। इसे समझने की ज़रूरत है।
फेसबुक वॉल से।
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