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राहुल के निशाने पर बेरोजगारी, मोदी के निशाने पर युवा

खरी-खरी            Sep 22, 2017


पुण्य प्रसून बाजपेयी।
फिलहाल सबसे बड़ी चुनौति इकानामी की है और बिगड़ी इकनॉमी को कैसे नये आयाम दिये जायें जिससे राजनीतिक लाभ भी मिले अब नजर इसी बात पर है। एक तरफ नीति आयोग देश के 100 पिछड़े जिलों को चिन्हित करने में लग गया है तो दूसरी तरफ वित्त मंत्रालय इकनॉमी को पटरी पर लाने के लिये ब्लू प्रिंट तैयार कर रहा है। नीति आयोग के सामने चुनौती है कि 100 पिछड़े जिलों को चिन्हित कर खेती, पीने का पानी, हेल्थ सर्विस और शिक्षा को ठीक-ठाक कर राष्ट्रीय औसम के करीब लेकर आये तो वित्त मंत्रालय के ब्लू प्रिंट में विकास दर कैसे बढे और रोजगार कैसे पैदा हो। इन सबके लिये मशक्कत उद्योग क्षेत्र,निर्माण क्षेत्र,रियल स्टेट और खनन के क्षेत्र में होनी चाहिये इसे सभी मान रहे हैं। 

यानी चकाचौंध को लेकर जो भी लकीर साउथ-नार्थ ब्लाक से लेकर हर मंत्रालय में खींची जा रही हो, उसके अक्स में अब सरकार को लगने लगा है कि प्रथामिकता इकनॉमी की रखनी होगी इसीलिये अर्थव्यवस्था में नई जान फूंकने के लिए एक ब्लूप्रिंट तैयार किया जा रहा है। जिससे जीडीपी में तेजी आये, रोजगार बढ़े और बंटाधार हो चुके रियल इस्टेट और खनन क्षेत्र को पटरी पर लाया सके। लेकिन सवाल इतना भर नहीं, इक्नामिस्ट मनमोहन सिंह सत्ता में रहते हुये इकनॉमी को लेकर फेल मान लिये गये और जनता की नब्ज को समझने वाले मोदी सत्ता संभालने के बाद इकनॉमी संबालने से जूझ रहे हैं। देश का सच ये है कि नेहरु ने 1960 में सौ पिछडे जिले चिन्हित किया। मोदी 2017 में 100 पिछडे जिलों के चिन्हित कर रहे हैं। 1960 से 1983 तक नौ कमेटियों ने सौ पिछड़े जिलों पर रिपोर्ट सौंपी, कितना खर्च हुआ, या रिपोर्ट कितनी अमल में लायी गई ये तो दूर की कौड़ी टी है। 

सोचिये कि जो सवाल आजादी के बाद थे, वही सवाल 70 बरस बाद हैं। क्योंकि जिन सौ जिलों को चिन्हित कर काम शुरु करने की तैयारी हो रही है उसमें कहा तो यही जा रहा है कि हर क्षेत्र में राष्ट्रीय औसत के समकक्ष 100 पिछडे जिलो को लाया जाये। लेकिन जरुरत कितनी न्यूनतम है। किसान की आय बढ जायेए पीने का साफ पानी मिलने लगे, शिक्षा घर—घर पहुंच जाये, हेल्थ सर्विस हर किसी को मुहैया हो जाये और इसके लिये तमाम मंत्रालयों या केन्द्र राज्य के घोषित बजट के अलावे प्रचार के लिये 1000 करोड़ देने की बात है। यानी हर जिले के हिस्से में 10 करोड़। 

हो सकता है पीएम का अगला एलान देश में सौ पिछड़े जिलों का शुरु हो जाये। यानी संघर्ष न्यूनतम का है और जवाब चकाचौंध की उस इकनॉमी तले टटोला जा रहा है जहां देश का एक छोटा सा हिस्सा हर सुविधाओं से लैस हो। बाकि हिस्सों पर आंख कैसे मूंदी जा रही है ये मनरेगा के बिगड़ते हालात से भी समझा जा सकता है क्योंकि मानिये या ना मानिये मनरेगा अब दफ्न होकर स्मारक बनने की दिशा में जाने लगा है। क्योंकि 16 राज्यों की रिपोर्ट बताती है मनरेगा बजट बढ़ते—बढ़ते चाहे 48 हजार करोड़ पार कर गया लेकिन रोजगार पाने वालो की तादाद में 7 लाख परिवारो की कमी आ गई। 

केंद्रीय ग्रामीण विकास मंत्रालय की ही रिपोर्ट कहती है कि 2013-14 में  पूरे 100 दिनों का रोजगार पाने वाले परिवारों की संख्या 46,59,347 थी। जो साल 2016-17 में घटकर 39,91,169 रह गई। मुश्किल ये नहीं कि सात लाख परिवार जिन्हें काम नहीं मिला वह क्या कर रहे होंगे? मुश्किल दोहरी है, एक तरफ नोटबंदी के बाद मनरेगा मजदूरों में 30 फीसदी की बढोतरी हो गई। करीब 12 लाख परिवारों की तादाद बढ़ गई। दूसरी तरफ जिन 39 लाख परिवारों को काम मिला उनकी दिहाड़ी नहीं बढ़ी। 

आलम ये है कि इस वित्तीय वर्ष यानी अप्रैल 2017 के बाद से यूपी, बिहार,असम और उत्तराखंड में मनरेगा कामगारों की मजदूरी में सिर्फ एक रुपये की वृद्धि हुई। ओडिशा में यह मजदूरी दो रुपये और पश्चिम बंगाल में चार रुपये बढ़ाई गई। दूसरी तरफ -बीते साल नवंबर से इस साल मार्च तक बिहार, छत्तीसगढ़, राजस्थान, झारखंड, पश्चिम बंगाल और ओडिशा में तो काम मांगने वालों की संख्या में 30 फीसदी तक बढ़ोतरी दर्ज हुई। मनरेगा का बजट 48000 करोड़ कर सरकार ने अपनी पीठ जरुर ठोकी लेकिन, हालात तो सुप्रीम कोर्ट के निर्देश को लागू ना करा पाने तक के हैं। 

एक तरफ 2014 में सुप्रीम कोर्ट ने कहा, मनरेगा की मजदूरी को राज्यों के न्यूनतम वेतन के बराबर लाया जाए। लेकिन इस महीने की शुरुआत में केंद्रीय ग्रामीण विकास मंत्रालय द्वारा गठित एक समिति ने मनरेगा के तहत दी जानी वाली मजदूरी को न्यूनतम वेतन के साथ जोड़ने को गैर-जरूरी करार दे दिया जबकि खुद समिति मानती है कि 17 राज्यों और केंद्रशासित प्रदेशों में मनरेगा की मजदूरी खेत मजदूरों को दी जाने वाली रकम से भी कम है। तो फिर पटरी से उतरते देश को राजनीति संभालेगी कैसे? इसीलिये जिक्र युवाओं का हो रहा है, बेरोजगारी का हो रहा है। 

ध्यान दीजिये राहुल के निशाने पर रोजगार का संकट है तो पीएम मोदी के निशाने पर युवा भारत है और दोनों की ही राजनीति का सच यही है कि देश में मौजूदा वक्त में सबसे ज्यादा युवा है । सबसे ज्यादा युवा बेरोजगार है। अगर युवा ने तय कर लिया कि सियासत की डोर किसके हाथ में होगी तो 2019 की राजनीति अभी से पंतग की हवा में उड़ने लगेगी। क्योंकि 2014 के चुनाव में जितने वोट बीजेपी और कांग्रेस दोनों को मिले थे अगर दोनों को जोड़ भी दिया जाये उससे ज्यादा युवाओं की तादाद मौजूद वक्त में है। 

मसलन, 2011 के सेंसस के मुताबिक 18 से 35 बरस के युवाओ की तादाद 37,87,90,541 थी। जबकि बीजेपी और काग्रेस को कुल मिलाकर भी 28 करोड़ वोट नहीं मिले । मसलन 2014 के चुनाव में बीजेपी को 17,14,36,400 वोट मिले। तो कांग्रेस को 10,17,32,985 वोट मिले। देश का सच ये है कि 2019 में पहली बार बोटर के तौर पर 18 बरस के युवाओं की तादाद 13,30,00,000 होगी। 

जो सवाल राहुल गांधी विदेश में बैठ कर उठा रहे हैं उसके पीछे का मर्म यही है कि 2014 के चुनाव में युवाओं की एक बडी तादाद कांग्रेस से खिसक गई थी। क्योंकि दो करोड़ रोजगार देने का वादा हवा हवाई हो गया था और याद कीजिए तब बीजेपी ने अपने चुनावी घोषणा पत्र में रोजगार का मुद्दा ये कहकर उठाया था कि कांग्रेस नेतृत्व वाली यूपीए सरकार बीते दस साल के दौरान कोई रोजगार पैदा नहीं कर सकी। जिससे देश का विकास बुरी तरह प्रभावित हुआ। तो मोदी ने सत्ता में आने के लिये नंवबर  2013 को आगरा की  चुनावी रैली में पांच बरस में एक करोड रोजगार देने का वादा किया था। 

रोजगार का संकट किस तरह गहरा रहा है और हालात मनमोहन के दौर से भी बुरे हो जायेंगे ये जानते समझते हुये अब राहुल गांधी ये सवाल मोदी सरकार को घेरने के लिये उठ रहे हैं। यानी मुश्किल ये नहीं कि बेरोजगारी बढ़ रही है, संकट ये है कि रोजगार देने के नाम पर युवाओं को 4 बरस पहले बीजेपी बहका रही थी और अब नजदीक आते 2019 को लेकर कांग्रेस वही सवाल उठा रही तो अगला सवाल यही है कि बिगडी इकनॉमी, मनरेगा का ढहना और रोजगार संकट सबसे बड़ा मुद्दा तो 2019 तक हो जायेगा लेकिन क्या वाकई कोई विजन किसी के पास है कि हालात सुधर जायें।

 


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लाड़ली-बहना-का-फलितार्थ

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