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प्रतिक्रियावादी दक्षिणपंथियों को संगीत नहीं भाता और उस पर कांग्रेस की आपराधिक चुप्पी

खरी-खरी            Nov 20, 2018


एल एस हरदेनिया।
पता नहीं क्यों प्रतिक्रियावादी दक्षिणपंथियों को संगीत नहीं भाता। यदि गुलाम अली की गजलों का कार्यक्रम घोषित होता है तो ये धमकी देते हैं कि हम उसे नहीं होने देंगे।

अभी हाल में इन्होंने ऐसी ही घिनौनी हरकत की जब उन्होंने घोषणा की कि स्मिक मैके और एयरपोर्ट एथारिटी के संयुक्त तत्वावधान में होने वाले एक संगीत समारोह का आयोजन वे नहीं होने देंगे।

उनकी आपत्ति थी कि इस संगीत समारोह में कर्नाटक संगीत के महान गायक टीएम कृष्णा भाग ले रहे हैं और कृष्णा का अपराध यह है कि उनका संगीत ईसाई और मुस्लिम विषयवस्तु पर आधारित है।

उनकी इस धमकी का उल्लेख करते हुए ‘टाईम्स ऑफ़ इंडिया‘ में स्वामीनाथन एस. अंकलेश्वर अय्यर ने एक अत्यंत सारगर्भित लेख लिखा है। लेख का शीर्षक है हिन्दू आर्मी बैंड के संगीत की धुन पर नाचना बंद करो।

लेख में कहा गया है कि कृष्णा का संगीत समावेशी है। सच पूछा जाए तो उनका संगीत पूरी तरह से भारतीय है और भारत की महान संस्कृति का प्रतिनिधि है।

इन दक्षिणपंथियों का इतना दबदबा है कि आयोजक संस्थाओं ने कार्यक्रम ही रद्द कर दिया। यह निर्णय बर्बरता के सामने घुटने टेक देने के बराबर है।

अगर आज जवाहरलाल नेहरू होते तो यह सब देखकर वे गुस्से से आग बबूला हो जाते। परंतु राहुल गाँधी और उनकी कांग्रेस के कान में जूं तक नहीं रेंगी। सच पूछा जाए तो कांग्रेस ने नेहरू के आदर्शों को त्याग दिया है और नरम हिन्दुत्व का रास्ता अपना लिया है।

कांग्रेस द्वारा भाजपा के हिन्दुत्व को अपना लेना वैसा ही है जैसे कोई इंसान किसी के बचे हुए खाने के टुकड़े उठाकर खाए। यह संतोष की बात है कि दिल्ली की आम आदमी पार्टी की सरकार ने एक वैकल्पिक मंच देकर कृष्णा का कार्यक्रम आयोजित किया।

इन दुराग्रही दक्षिणपंथी हिन्दुओं ने अनेक संगीतज्ञों को धमकाया है। उनमें से कुछ ने इनके सामने समर्पण कर दिया। इन्होंने प्रसिद्ध पाकिस्तानी गजल गायकों गुलाम अली और मेंहदी हसन के कार्यक्रम नहीं होने दिए। प्रसन्नता का विषय है कि टीएम कृष्णा इन हिन्दू तालिबानों के सामने नहीं झुके।

इस तरह की धमकियां देने वालों को संबोधित करते हुए कृष्णा ने कहा कि ‘‘मैं जानता हूं कि इस तरह की धमकी देने वालों को सत्ता में बैठे लोगों का संरक्षण प्राप्त है।

मुझे इस तरह की धमकियां पहले भी मिलती रही हैं। विशेषकर सामाजिक मुद्दों पर और राजनीति के संबंध में मेरे दृष्टिकोण को लेकर और सत्ताधारी भाजपा से मेरी असहमतियों को लेकर।

मैं कला के हर रूप की आराधना करता हूं। मैं अल्लाह, ईसा मसीह और राम में अंतर नहीं करता हूं। मेरा देश बहुभाषी और बहुधर्मी है। सभी को यह बात याद रखनी चाहिए। मुझे इसलिए धमकी दी गई है कि मैं ईसा और अल्लाह को अपने संगीत में शामिल करता हूं।

इस संबंध में मैं यह घोषणा करता हूं कि अब प्रतिमाह में अपने ऐसे गीत जारी करूंगा जिनमें ईसा और अल्लाह शामिल होंगे।‘‘

आशा है सभी संगीतज्ञ कृष्णा के इस इरादे का स्वागत करेंगे। दुःख की बात है कि नृत्यांगना सोनल मानसिंह ने हिन्दू दक्षिणपंथियों के इस रवैये का अत्यधिक भौंडे ढंग से बचाव किया है।

आखिर वे ऐसा क्यों कर रही हैं? क्या इसलिए क्योंकि भाजपा ने उन्हें राज्यसभा का सदस्य बनवाया है?

हिन्दुस्तानी संगीत की जड़ें बहुत गहरी हैं और उसके अनेक प्रेरणा स्त्रोत हैं। जैसे सितार सेतार का आधुनिक रूप है। सरोद अफगानिस्तान से आया है और हारमोनियम यूरोप की देन है।

ये सब संगीत के अंग हैं। ये न ईसाई हैं और न मुसलमान। ये भारतीय संगीत का अभिन्न भाग बन गए हैं। बिस्मिला खान और अमजद अली खान भारतीय संगीत का उतना ही अविभाज्य अंग हैं जितने रविशंकर और हरिप्रसाद चैरसिया।

शायद ज्यादातर उत्तर भारतियों को इस बात का अंदाज नहीं होगा की कर्नाटक संगीत का दक्षिण भारत के संगीत संसार में कितना महत्वपूर्ण स्थान है। शास्त्रीय संगीत को हमेशा परंपरागत समझा जाता है और वह परिवर्तन का विरोधी होता है।

परंतु वायलिन, जो अंग्रजों के राज में हमारे देश में आया वह अब कर्नाटक संगीत का अविभाज्य अंग हो गया है। अतः अब यदि कोई कहेगा कि वायलिन कर्नाटक संगीत का अंग नहीं है तो कृष्णा को अच्छा नहीं लगेगा।

भजनों को हिन्दू धर्म का हिस्सा माना जाता है। पंरतु कुछ मुसलमानों ने भी हिन्दुओं के प्रसिद्ध भजनों को गाया है। मोहम्मद रफी ने जिन भजनों को गाया है वह आज भी सभी की जुबान पर है।

ऐसा ही एक प्रसिद्ध भजन है जिसके बोल हैं ‘‘ओ दुनिया के रखवाले‘‘। यह गीत फिल्म बैजू बावरा का है। इस भजन का संगीत दिया था नौशाद अली ने और इसके गीतकार थे शकील बदायुंनी और उसे गाया था मोहम्मद रफी ने। इन तीनों ने इस भजन को अमर कर दिया।

स्पष्ट है कि संगीत की सीमाएं नहीं होतीं। स्वामीनाथन लिखते हैं ‘‘मेरा प्रिय भजन है ‘इंसाफ का मंदिर है‘। यह फिल्म अमर का गीत है। यह गाना दिलीप कुमार पर फिल्माया गया है। इसका संगीत दिया था नौशाद अली न, इसके गीतकार थे शकील बदायुंनी और इसे गाया था मोहम्मद रफी ने।

इस फिल्म के निर्माता थे महबूब खान और दिलीप कुमार (युसुफ खान) के अलावा इसके अन्य प्रमुख कलाकार थे मधुबाला (मुमताज जहां) और निम्मी (नवाब बानो)। इसके बावजूद लोगों ने इन भजनों को इतना सम्मान दिया और अपने जीवन का अभिन्न अंग बना लिया। ये दोनों भजन इस बात के प्रतीक हैं कि संगीत तमाम बाधाओं पर विजय हासिल कर लेता है।

ये बर्बर जाहिल चाहते हैं कि हम सब हिन्दू इनके युद्ध संगीत की धुन पर नाचें। क्या यह भुलाया जा सकता है कि प्रतिवर्ष दिल्ली के विजय चौक पर 29 जनवरी को बीटिंग रिट्रीट के अवसर पर सेना के बैंड द्वारा देशभक्ति के जिन गीतों की धुनें बजायी जाती हैं उनमें सबसे प्रमुख होता है ‘सारे जहां से अच्छा‘ जिसे डॉ. इकबाल ने लिखा है। बैंड द्वारा एक और गीत ‘एबाईड विथ मी‘ भी बजाया जाता है जो बापू को बहुत पसंद था।

इसका संदेश यह है कि देशभक्ति और संगीत का धर्म से कुछ लेनादेना नहीं होना चाहिए।

 



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