अपने ही प्रांत में दंड-बैठक लगाते प्रधानमंत्री और पार्टी अध्यक्ष

खरी-खरी            Nov 26, 2017


डॉ.वेदप्रताप वैदिक।
गुजरात का चुनाव-अभियान आज देश में जितना तहलका मचा रहा है, मेरी याद में इतना और ऐसा तहलका किसी प्रांतीय चुनाव में नहीं मचाया। ऐसा लग रहा है कि यह गुजरात की विधानसभा का नहीं, भारत की संसद का चुनाव है। इस चुनाव में यदि भाजपा हार गई तो 2019 में नरेंद्र मोदी का भविष्य अनिश्चित हो जाएगा और यदि विपक्ष जीत गया तो कांग्रेस की छवि चमकेगी और राहुल गांधी को लोग पप्पू कहना बंद कर देंगे।

इसका अर्थ यह नहीं कि 2019 में राहुल को प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार आसानी से मान लिया जाएगा। पहली बात तो यह कि विपक्ष की एकता अपने आप में एक पहेली बनी रहेगी और यह पहेली हल हो गई, तब भी विपक्ष में इतने खुर्राट और बुजुर्ग नेता हैं कि वे राहुल को अपना नेता कैसे मान लेंगे ?

यह तो हुई भविष्य की बात लेकिन अभी हाल क्या है ? सत्य तो यह है कि गुजरात ने मोदी-गिरोह का दम फुला दिया है। स्वयं प्रधानमंत्री और पार्टी-अध्यक्ष को अपने ही प्रांत में इतनी दंड-बैठक क्यों लगानी पड़ रही है? पहली बात तो यह कि नोटबंदी और जीएसटी ने गुजरात के व्यापारियों को जबर्दस्त धक्का पहुंचाया है। यह व्यापारी वर्ग गुजरात ही नहीं, सारे भारत में भाजपा और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की रीढ़ रहा है। दूसरी बात, दलित, ठाकोर और पटेल मोदी-शाह के विरुद्ध गोलबंद हो गए हैं। भारत की राजनीति में यदि कोई विशेष तूफान न आया हो तो वह प्रायः जातिवाद से ही संचालित होती है।

तीसरी बात, गुजरात के नौजवानों पर अब 2002 के गोधरा का भूत सवार नहीं है। वे रोजगार की तलाश में हैं। विकास के नाम पर गुजरात में मोटी पूंजी का घूमर नृत्य जरुर हुआ है लेकिन उसमें से रोजगार बहुत कम निकला है। एक कंपनी के 30 हजार करोड़ रु. की पूंजी से लगे उद्योग ने सिर्फ 2200 नौकरियां दी हैं याने सवा करोड़ रु. का विनियोग होने पर सिर्फ एक आदमी को रोजगार मिला है। चौथी बात, गुजराती किसानों को उनकी मूंगफली, प्याज और कपास की कीमत इतनी कम मिली है कि वे भी मुक्का ताने बैठे हुए हैं। पांचवीं बात, मुस्लिम मतदाता अभी भी 2002 को भूला नहीं है। ये सब कारण तो हैं,

भाजपा के वोट घटाने के लेकिन गुजरात के लोग यह कैसे भूल सकते हैं कि उनका बेटा दिल्ली के तख्त पर बैठा है और वे उस तख्त को ही उलटाने में लग जाएं ? यह तो ठीक है कि गुजरात के विपक्ष के पास आज एक भी भरोसेमंद नेता नहीं है, जिसे वह मुख्यमंत्री के रुप में देख सके लेकिन जब जनता गुस्साती है तो एक कहावत है कि ‘जब काम पड़े बांका तो गधे को कहे काका (चाचा)’ ! पता नहीं, वह क्या कर बैठे ? क्या पता, वह गुजरात में उत्तरप्रदेश की कहानी को दोहरा दे ?

 


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