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एससी/एसटी एक्ट:पूत मांगण गई थी, मर ग्या भरतार

खरी-खरी            Sep 10, 2018


राम विद्रोही।
एस सी/एसटी कानून के विरोध की आंच दिल्ली में हुई भाजपा राष्ट्रीय कार्य कारिणी की बैठक तक भी पहुंची और पार्टी ने सवर्ण समाज के गुस्से को ठण्डा करने पर मंथन भी किया तो कांग्रेस ने इस मसले पर यह कह कर पल्ला झाड़ लिया कि लोकतंत्र में सभी को अपनी बात कहने का अधिकार है।

किताबी भाषा में यह टिप्पणी एक बार सही मानी जा सकती है पर जिन्हें मैदानी राजनीति करनी है और जिन्हें जनता के वोट चाहिए उन्हें यह तटस्थता समाज में अस्वीकृत भी करा सकती है।

उधर भाजपा के लिए भी लगता है कि यह विवाद गले की फांस नहीं बन जाए। अगर ऐसा हो गया तो उम्मीदों का सारा शिराजा बिखरने में देर नहीं लगेगी।

आश्चर्य यह है कि इस कानून के विरोध की उग्रता केवल चुनाव वाले दो राज्यों मध्यप्रदेश और राजस्थान में ही देखी जा जा रही है अथवा थोडा बहुत असर इन दोनो प्रदेशों सीमावर्ती प्रदेशों में दिख रहा है।

ग्वालियर में शनिवार को कानून के विरोध में सवर्ण समाज का शांति मार्च निकला। इन्तजाम पुख्ता थे और मार्च के आयोजकों के भी इरादे नेक थे इसलिए कुछ अपवादों को छोड़कर सब कुछ ठीकठाक रहा।

मार्च शुरू होने से पहले एक ने अपने पर पेट्रोल छिड़क लिया तो दूसरे ने आत्मदाह का प्रयास किया। यह दृश्य देख कर 28-30 साल पहले के वह दृश्य याद गए गए जब तत्कालीन प्रधान मंत्री विश्वनाथ प्रताप सिह ने मंडल कमीशन की रिपोर्ट लागु की थी।

मंडल कमीशन की रिपोर्ट लागू करने के विरोध की हवा नैपथ्य से राजनीति ने ही दी थी जिसके चलते भावुकता में कई युवकों ने आत्मदाह कर लिया था। इसके साथ ही देश में मंडल और कंमडल की राजनीति का दौर शुरू हुआ जिसकी आग में पूरा देश झुलस गया। इसके अनुभव आमजन को कभी नहीं भूल पाने वाले साबित हुए।

आजकल के हालात भी उसी दौर जैसे बनते जा रहे हैं। दोनों पक्ष की राजनीति तटस्थ है,मंच के नैपथ्य में है जिसने मासूम लोगों को वर्ण संघर्ष की आग में जलने-झुलसने के लिए झोंक दिया है। वोटों के लिए राजनीति क्या इस हद तक भी जा सकती है?

इस पर चिंतन-मनन करने की जरूरत है क्योंकि जब आग लगती है तो वह अपना-पराया नहीं देखती, जला कर राख कर देना ही उसकी प्रकृति है। नैपथ्य के जो लोग समाज में वर्ण संघर्ष की आग लगा कर अपने हाथ सेकना चाहते हैं उन्हें भी यह आग जला-झुलसा सकती है।

पांसा तो वोटों के ध्रुवीकरण के लिए ही फेंका गया है क्यों कि यह पूरा माहौल तो पहले विधानसभा और बाद में लोकसभा चुनाव की पूर्व पीठिका की तरह ही है।

पांसे फेंकना एक जुआ है लेकिन यह याद रखने की जरूरत भी है कि कभी-कभी पांसे उल्टे भी पड़ जाते हैं और सारे मनसूबों पर पानी फिर जाता है।

समाज की मौजूदा पीढ़ी ने लोकतंत्र में सांस लेना सीखा है, इसी में वह रची-बसी है।

लोकतंत्र के लिए असहमति और बहस प्राण वायु है पर नीयत में खोट नहीं होना चाहिए।

कुछ उम्र दराज लोगों को याद होगा कि ग्वालियर अंचल में पहले एक कहावत बहुत प्रचलित थी- भूसे में आग लगा जमालो दूर खड़ी लेकिन आज कल की राजनीति की चाल और चरित्र को देखते हुए यह कहना ही ठीक होगा कि कि- पूत मांगण गई थी, मर ग्या भरतार (पति)।

लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं।

 



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