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यूरोप का मिलेनियम सोशलिस्ट और भविष्य का भारतीय अंधकार काल

खास खबर            May 17, 2019


हेमंत कुमार झा।
मिलेनियम सोशलिस्ट आजकल यूरोप में यह शब्द बहुत चर्चा में है। अमेरिका में इसी से मिलता-जुलता अर्थ रखने वाला शब्द अधिक प्रचलन में है मिलेनियम लेफ्ट।

सामान्य तौर पर इसका अर्थ है ऐसे युवा, जिन्होंने नई सहस्राब्दी में होश संभाला और अपनी सरकारों की आर्थिक नीतियों के नतीजों में जिस तरह के समाज का विकास देखा उससे वे असंतुष्ट हैं और चाहते हैं कि हालात बदलें।

जाहिर है, हालात बदलने के लिये नीतियों में बदलाव की जरूरत है और बदलाव की यह चाहत उन युवाओं को सोशलिज्म के उन मानकों के प्रति आकृष्ट करती है जिनमें सार्वजनिक सेवाओं में अधिक सरकारी निवेश की अपेक्षाएं निहित हैं।

सोवियत विघटन के बाद, 1990 के दशक में इस मान्यता ने जोर पकड़ा कि सार्वजनिक सेवाओं की उत्कृष्टता और सुलभता के लिये उनमें निजी निवेश को बढ़ावा दिया जाना एक बेहतर सोच है।

80 के दशक में ही मार्गरेट थैचर ने सार्वजनिक सेवाओं के निजीकरण का आक्रामक अभियान चलाया था जिसे 'थैचरवाद' की संज्ञा दी गई थी। उसके बाद यूरोप के अन्य कई देशों ने भी थैचरवाद से प्रेरणा ली और सार्वजनिक सेवाओं में सरकारी निवेश को कम से कम करने की नीतियों पर अमल किया जाने लगा।

इनमें पूर्वी यूरोप के ऐसे देश भी शामिल थे जो सोवियत पराभव के बाद कम्युनिस्ट तानाशाहियों से मुक्त हुए थे।

शुरू में तो यह सब बहुत आकर्षक लगा। सार्वजनिक सेवाओं और कल्याणकारी कार्यक्रमों में निवेश में कटौती और अंध निजीकरण से देशों की विकास दर में उल्लेखनीय वृद्धि दर्ज की गई।
दशकों से कम्युनिस्ट लौह श्रृंखला में आबद्ध पूर्वी यूरोपीय देशों ने भी, जो आर्थिक रूप से खस्ताहाल हो चुके थे, इस नए दौर में आर्थिक विकास के नए आयामों का स्पर्श किया।

मान लिया गया कि गरीबी से निजात पाने और विकास के नए पैमाने हासिल करने का यही रास्ता अंतिम है।

लेकिन...दो-ढाई दशक बीतते न बीतते अंतर्विरोध उजागर होने लगे। शिक्षा, चिकित्सा और सार्वजनिक परिवहन में निवेश से सरकारों के हाथ खींचने से मध्य और निम्न आय वर्ग के लोगों की कठिनाइयां बढ़ने लगीं।

आर्थिक नीतियों ने समाज में आर्थिक विषमता की वृद्धि दर को बेहद तीव्र बनाया जिसने सामाजिक अशांति को बढ़ावा दिया।

देखा गया कि मध्य और निम्न आय वर्ग के लोगों की क्रय शक्ति में अपेक्षाओं के अनुरूप वृद्धि नहीं हुई और पूंजी का संकेन्द्रण सबसे अधिक ऊपर के 1 प्रतिशत लोगों में होने लगा। ऊपर के 10 प्रतिशत लोग भी प्रायः लाभान्वितों की श्रेणी में ही थे, लेकिन बाकी लोगों में निराशाएं बढ़ने लगी।

आम लोगों की क्रय शक्ति में अपेक्षानुरूप वृद्धि नहीं होने से उपभोग में भी अपेक्षाओं के अनुरूप वृद्धि नहीं हुई। नतीजा, बाजार मंदी के शिकार होने लगे।

इन आर्थिक हालात में रोजगारों का सृजन भी प्रभावित हुआ और यूरोप के धनी देश भी बेरोजगारी के बढ़ते संकट से रूबरू होने लगे।

इधर...वैश्विक वित्तीय और बीमा कंपनियों के दबाव में सरकारों ने नौकरियों में पेंशन की सुविधा को खत्म करना शुरू किया। यह मध्य और निम्न आय वर्ग के लोगों के लिये दोहरी मार थी।

मुट्ठी भर लोगों के हाथों में पूंजी का संकेन्द्रण, महंगी होती सार्वजनिक सेवाएं, कल्याणकारी योजनाओं में कटौती, बढ़ती आर्थिक विषमता, रोजगार का बढ़ता संकट, पेंशन का खात्मा...नवउदारवादी आर्थिक नीतियों का यही निष्कर्ष था जिसे जवान होती पीढ़ी ने देखा और उनमें अपने भविष्य के प्रति असुरक्षा का भाव बढ़ने लगा।

लैटिन अमेरिकी देशों में इन आर्थिक नीतियों का विरोध तो पहले ही शुरू हो गया था, अब यूरोपीय देशों में भी विरोध की आवाजें बुलंद होने लगीं।

इन आंदोलनों में सबसे मुखर जो वर्ग है वह वही युवा वर्ग है जिसने नए मिलेनियम में होश संभाला है। इस वर्ग में उन समाजवादी आदर्शों के प्रति आग्रह बढ़ रहे हैं जिनमें शिक्षा, चिकित्सा जैसे विषयों के अतिरिक्त अन्य जरूरी सार्वजनिक सेवाओं में सरकारी निवेश को आवश्यक माना गया है।

इन्हें कहीं 'मिलेनियम सोशलिस्ट' तो कहीं 'मिलेनियम लेफ्ट' कहा जा रहा है।

वक्त करवटें ले रहा है और मांग के संकट से जूझ रही नवउदारवादी आर्थिकी वैचारिक स्तरों पर इतिहास की गम्भीरतम चुनौतियों का सामना कर रही है।

अंतरराष्ट्रीय सर्वे एजेंसी 'गैलप' की नवीनतम रिपोर्ट में बताया गया है कि 67 प्रतिशत अमेरिकी मानते हैं कि आर्थिक नीतियों के मामले में चीजें गलत दिशा में जा रही हैं।

माना जा रहा है कि 2020 के अमेरिकी राष्ट्रपति चुनाव में मिलेनियम लेफ्ट तबके की आवाज ऐसी गूंज पैदा करेगी जो अमेरिका की आर्थिक सोच को प्रभावित कर सकती है। बर्नी सैंडर्स जैसे नेताओं का बढ़ता प्रभाव बदलते अमेरिका का एक उदाहरण मान सकते हैं।

भले ही बदलाव की इस हवा में अभी अधिक तीव्रता नहीं आई है, लेकिन, नई पीढ़ी के अधिकतर युवा जिस सोच से अपने भविष्य की ओर देख रहे हैं, देर-सबेर अमेरिका को अपनी नीतियों में बदलाव करने ही होंगे।

ब्रिटेन में जेरोमी कोर्बिन की बढ़ती लोकप्रियता इस बात का प्रमाण है कि थैचरवाद को लोगों की बड़ी संख्या ने विफल प्रयोग मानना शुरू कर दिया है।

यूरोप के कई देशों की सरकारें जन आंदोलनों का सामना कर रही हैं। शिक्षा, चिकित्सा और सार्वजनिक परिवहन में निजीकरण का विरोध तो इस आंदोलन का मुख्य मुद्दा है ही, पेंशन की मांग भी जोर-शोर से उठाई जा रही है। फ्रांस, हंगरी जैसे देशों की सरकारें सांसत में हैं जहां आंदोलन की सघनता बढ़ती ही जा रही है।

अभी कल...ब्राजील में विराट जनसैलाब सड़कों पर उतरा है और सरकार की उन नीतियों का उग्र विरोध कर रहा है जिनमें शिक्षा और चिकित्सा में सरकारी खर्च में कटौती की घोषणा की गई है।

और...हमारे भारत में...???

आश्चर्य है कि भारत में, जहां आर्थिक असमानता की वृद्धि दर खतरे की सीमा को कब का पार कर चुकी है, जहां बेरोजगार लोगों की संख्या दुनिया में सर्वाधिक है, जहां नवउदारवादी आर्थिक नीतियों ने सामाजिक व्यवस्था को विकृति के नए दौर में धकेल दिया है, अधिकतर युवा, खास कर उत्तर भारत के, राष्ट्रवाद के बुखार से तप रहे हैं।

ऐसा राष्ट्रवाद, जो आधुनिक संदर्भों में नव औपनिवेशिक शक्तियों के हथियार के अलावा कुछ और नहीं, जो जीवन की जटिलताओं से जूझती जनता को बरगलाने के सिवा कुछ और नहीं, उन युवाओं की क्रान्तिधर्मिता को कुंद कर रहा है जिन्हें यूरोप और लैटिन अमेरिका से भी बड़ा और प्रभावी आंदोलन इस देश में शुरू करना था।

आंदोलन...शिक्षा और चिकित्सा के निजीकरण के विरुद्ध, पेंशन के खात्मे के विरुद्ध, श्रमिकों/कर्मचारियों के बढ़ते शोषण और उनके अधिकारों को छीनने के विरुद्ध।

लेकिन...अफसोस...हमारा देश वैचारिक अंधकार के दौर से गुजर रहा है। कमजोर वर्गों का राजनीतिक विभाजन और 'मिलेनियम यूथ' की मति का नव औपनिवेशिक शक्तियों द्वारा हरण हमारी त्रासदी का रूप ले चुका है।

हम वैचारिक रूप से उस अंधेरे दौर से गुजर रहे हैं जिसकी व्याख्या करते हुए भविष्य में इतिहास कहेगा..."अंधकार काल"...।

लेखक पाटलीपुत्र युनिवर्सिटी में एसोशिएट प्रोफेसर हैं।

 



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