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जी हुजुर! नौकरशाह और भारत,न खाऊंगा न खाने दूंगा वाली ललकार भी दुबकी सी दिखती है

खास खबर            Mar 06, 2019


राकेश दुबे।
पता नहीं वो कौन सी नींद है जिसमें इस देश का ‘नौकरशाह'सोया हुआ है। शांति और भाईचारा ही नहीं, उन अन्य बदहालियों पर भी उससे सवाल है। शिक्षा, पोषण, स्वास्थ्य और तमाम वे सूचकांक देखिए जिनका संबंध सम्पूर्ण मानव विकास और नागरिक कल्याण से है। उसके प्रति भी ये नौकरशाह समाज उदासीन है।

संविधान में वर्णित ये जिम्मेदारियां आखिर हैं तो इस नौकरशाह की ही, जिसे सर्वग्य माना जाता है। समाज कल्याण की अपेक्षा इनसे व्यर्थ दिखती है, इनमें यह भाव नदारद है।

सिविल सेवा अधिकारियों की गुणवत्ता की परख के लिए विश्व बैंक द्वारा जारी सूचकांक में भारत को १०० में से ४५ अंक ही मिले हैं। जबकि १९९६ में विश्व बैंक ने जब पहली बार इस तरह का सर्वेक्षण किया था तो ये दर १० प्रतिशत अधिक थी।

१९५०-२०१५ की अवधि में आईएएस परीक्षा में सफलता की दर का आंकड़ा यूपीएससी ने खुद जारी किया है। इसके अनुसार १९५० में ये दर११.५ थी।

१९९० में ये ०.७५ हुई हुई, २०१० में ०.२६ प्रतिशत रह गई और २०१५ में तो ये ०.१८ प्रतिशत पर सिमट गई।

२०१६ में करीब चार लाख सत्तर हजार अभ्यर्थियों में से सिर्फ १८० आईएएस चुने गये। इससे कई सवाल उठते हैं। परीक्षा के बुनियादी ढांचे में गड़बड़ी है? सीटों की संख्या कम है? सवाल गुणवत्ता का भी है।

एक अन्य सर्वेक्षण के अनुसार इन चयनित अधिकारियों में यही पाया गया कि वे बस न्यूनतम शैक्षिक योग्यता को ही पूरा करते हैं यानी सिर्फ स्नातक हैं। उनमें से भी अधिकांश तीन चार कोशिशों के बाद सफल हुए हैं और कई ऐसे हैं जो दूसरे पेशों से आए हैं और उनकी उम्र अधिकतम है।

दूसरी ओर कॉरपोरेट जगत के पैकेज और काम की बेहतर परिस्थितियों की वजह से प्रतिभाशाली युवाओं को प्रशासनिक सेवाओं की ओर आकर्षित करना कठिन चुनौती है। अफसरों की ट्रेनिंग का भी सवाल है।

मसूरी स्थित लाल बहादुर शास्त्री आईएएस अकादमी अपनी संरचना में जितनी भव्य दिखती है, उतनी ही औपनिवेशिक भी।

बेशक यहां राष्ट्रपति, राजनीतिज्ञ,कूटनीतिज्ञ और विशेषज्ञ आदि व्याख्यान देने आते हैं लेकिन लगता है, प्रशिक्षु अफसरों की ट्रेनिंग का मूल मंत्र "जी मंत्रीजी”की बाबू मानसिकता और यथास्थिति को बनाए रखना है।

इसके विपरीत संविधान इन्हें नागरिक अधिकारों की हिफाजत,जनसेवा और लोकतंत्र की निरंतरता को कायम रखने का प्रशासनिक दायित्व सौंपता है। लेकिन वास्तविकता में ये नागरिक समाज से अलग और जनता के सवालों, संघर्षों और आकांक्षाओं से दूर रहते हैं और इनका वक्त राजसत्ता को उपकृत करने और उपकृत रहने में ही बीतता है।

२०१० के एक सर्वे के मुताबिक सिर्फ २४ प्रतिशत अधिकारी मानते हैं कि अपनी पसंद की जगहों पर पोस्टिंग, मेरिट के आधार पर होती है।

हर दूसरे अधिकारी का मानना है कि राजनैतिक हस्तक्षेप एक प्रमुख समस्या है। प्रमोशन, तबादले, पोस्टिंग आदि भी नियमों को ठेंगा दिखाकर नेता-मंत्री-अफसर के गठजोड़ की दया पर निर्भर हैं।

इस गठजोड़ में अब कॉरपोरेट-ठेकेदार-दलाल भी शामिल हो गये हैं। राजनीतिक संपर्कों के आधार पर अधिकारियों को मलाईदार ओहदे दिये जाते हैं और रिटायरमेंट के बाद किसी निगम या आयोग की अध्यक्षता-सदस्यता देकर उनका पुनर्वास भी कर दिया जाता है।

इस व्यवस्था में जो अफसर स्वतंत्र ढंग से काम करना चाहता है उसे दरकिनार कर दिया जाता है।

ऐसा नहीं है कि प्रशासनिक सुधारों की कोशिश नहीं की गई इसके लिये १९६६ में पहला प्रशासनिक सुधार आयोग बनाया गया था।

इसी आयोग ने पहले पहल लोकपाल के गठन की सिफारिश की थी। लेकिन सुधारों को लेकर कितनी गंभीरता है इसका अंदाजा इसी बात से लगता है कि दूसरा सुधार आयोग २००५ में जाकर बना। वीरप्पा मोइली इसके अध्यक्ष थे।

लेकिन इसकी सिफारिशें लागू करने का दम किसी सरकार ने नहीं दिखाया। न खाऊंगा न खाने दूंगा वाली ललकार भी इस मामले पर दुबकी हुई सी दिखती है। आगे राम जाने देश का क्या होगा ?

 



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