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बुंदेली कभी घास नहीं खाते! मीडिया ने घास की रोटी बताकर बुंदेलखंड की भूख बेची!

खास खबर, मीडिया            Jul 31, 2017


बांदा उत्तरप्रदेश से आशीष सागर।
विलुप्त होती भाजी और साग जिसे खाकर किसान बलिष्ठ होता था आज देशी - विदेशी मीडिया ने उसको घास समझा, लिखा और प्रमोट किया बुन्देलखण्ड की गरीबी में। मगर इसका स्वाद चंद वर्षो बाद ढूंढते रह जाओगे।किसान को देहाती रहने दो साहेब।

31 जुलाई, बाँदा- बीते साल जब 2016 का सूखा पड़ा तो कुछ लोगों के प्रायोजित सर्वे से बुन्देलखण्ड की आवाम ने घास की रोटी खा ली ! 2008 में एनडीटीवी के रिपोर्टर ने जब इसको ग्राउंड रिपोर्ट के चश्में से देश के सामने परोसा तो उन्हें रामनाथ गोयनका सम्मान भी मिल गया लेकिन बीते साल मीडिया के हिस्से में बुन्देली गरीबी का ये एवार्ड नहीं आया ! उसकी भूख को ये बेच नही पाए ! हो सकता है मीडिया ट्रायल चलाने वालों को इस पर कोफ़्त हुआ होगा पर सच तो ये है बुन्देली कभी घास नहीं खाते है।

जिन्हें देश ने घास समझा वो उनके अपने देशी खान- पान के गंवई खाद्य वस्तुएं है जिन्हें इस विकास ने अंतिम पायदान में रख दिया है !....ये अलग बात है स्थानीय प्रगतिशील एनजीओ अब ऐसे खाद्य को विदेशी मीडिया / अतिथि के सामने प्रस्तुत करके #एग्रेरियन बन चुके है !

बानगी के लिए बाँदा के अशोक लाट चौराहे में बैठी ये दो माई की टोकरी ( डलिया ) में रखी देशी भाजी - साग देखिये ! मैंने इनमें से पूर्व में मात्र लहसुआ का नाम सुना था लेकिन ये तीन और अलग भाजी लिए है....रतन जोत ( गर्मी,धात जाना,जलन आदि में लाभकारी है इसका साग ) , नाड़ी दमदमी ( बुखार के लिए लाभदायक ), सखौली ( बेहद शीतल होता है ).....उन्नाव जिले में ऐसे ही चेंच पाई जाती है और महोबा में खटुआ साग....बाँदा में स्थानीय जनता को ये भाजी अब बिरले देखने को मिलती है जबकि सच ये है खेत में बारिस की खरपतवार के साथ ये अपने आप पैदा होती है....इस क्रम की अन्य भाजी आप जानते ही है बथुआ,चौराई आदि ! इसी तरह कुटकी,कोंदो,पसई जैसे मोटे अनाज देखने को मुनासिब नहीं होते है.....उधर कठिया गेंहूँ के दरिया को बेच कर रामदेव से लेकर तमाम कुटीर धंधी भारतीय बजार में छा गए है..जरा सोचियेगा हमने विकास के सापेक्ष क्या खोया है और क्या पाया है अपनी सेहत के खिलवाड़ के साथ अगली पीढ़ी के लिए ! धरती को बाँझ बना दिया हमने ! स्मृति के पन्नो में इनका नाम दर्ज कर लीजिये ! गर होटल ताज में इन्हे दिया जाता तो शायद कोई घास न कहता ! विकास को प्रकृति सम्यक बना लीजिये कुछ भी अजीब नहीं लगेगा....ये बुन्देलखण्ड की घास नहीं देशी भाजी और साग है जो अब हासिये पर है !!

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