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आदिल भाई के लिए दबंग दुनियां का ये अपराध बोध था या अघोषित फरमान

मीडिया            Oct 24, 2017


अरविंद तिवारी।

इसे विडंबना कहें या अमानवीयता की पराकाष्ठा, फैसला आप ही कीजिए। जिस आदिल कुरैशी ने अपनी जिंदगी के कुछ बेशकीमती साल गुटखा किंग किशोर वाधवानी के अखबार दबंग दुनिया के लिए खराब किए, उस अखबार का एक भी व्यक्ति, मालिक और संपादक से लेकर दरबान तक इंदौर के मीडियाकर्मियों व रंगकर्मियों द्वारा उनकी याद में आयोजित स्मरण-सभा में शिरकत करने नहीं पहुंचा। शायद वे इतना साहस नही जुटा पाए या उनके मन मे एक अपराध बोध था या फिर सेठ का कोई अघोषित फरमान।

इसके पहले जब दीपावली के दिन आदिल भाई को छोटी खजरानी कब्रस्तान में सुपुर्द-ए—खाक किया जा रहा था, तब दबंग दुनिया के जो चार साथी वहां मौजूद थे, उनमें से एक के.पी. सिंह उनके पड़ोसी हैं। रफी मोहम्मद शेख और यूनुस खान कुरैशी परिवार के प्रति अपनी प्रतिबद्धता के कारण वहां पहुंचे और वरिष्ठ पत्रकार गोपाल झुनझुने ने खुलकर कहा कि मेरा मन नहीं माना और मैं अपने आपको यहां आने से नहीं रोक सका। अब नतीजा जो भी हो, मुझे चिंता नहीं।

इसे भी विडंबना ही कहा जाएगा कि जिस दबंग दुनिया में आदिल जी अपना काम निपटाने के बाद रात 12 बजे से 2 बजे तक केवल इस मशक्कत में लगे रहते थे कि कहीं कोई ऐसी गलती न अखबार में चली जाए, जिससे सुबह हमें नीचा देखना पड़े। उस अखबार ने उनके निधन की सूचना बतौर चार लाईन का समाचार छापना भी मुनासिब नहीं समझा।

अखबार के संपादक पंकज मुकाती जिन्होंने 18 अक्टूबर को आदिल जी के निधन के बाद सोशल मीडिया पर बड़ी भावनात्मक पोस्ट शेयर की थी और यह दर्शाया था कि आदिल जी से खास उनके लिए इस अखबार में कोई था ही नहीं। वे भी न जाने किस कारण से न तो अंतिम यात्रा में शामिल हुए, न ही स्मरण सभा में उन्हें श्रद्धांजलि अर्पित करने पहुंचे। इस अखबार के वे संपादकीय साथी जो रोज आदिल जी के आगे-पीछे घूमते थे या फिर ज्ञान अर्जित करते थे, वे भी न जाने क्यों अपनी उपस्थिति दर्ज नहीं करवा सके।

आखिर ऐसा क्यों? क्या हमारी संवेदनाएं इतनी मर गई हैं कि हम अपने बीच रोज-उठने बैठने वाले साथी के निधन पर शोक प्रकट करने या उनके परिवार के दुख में सहभागी बनने के लिए घंटा-आधा घंटा का वक्त भी नहीं निकाल सकें। क्या हम वाकई में इतने व्यस्त हैं, या फिर इस भय से दुख की इस घड़ी में सहभागी नहीं बन पाए कि कहीं भैया नाराज न हो जाएं।
सेल्यूट दैनिक भास्कर को जिसने अपने इस पूर्व संपादकीय सहयोगी को पुरी शिद्दत से याद किया।

किशोर भाई मेरी स्मृति में आपके हमारे पुराने साथी दिवंगत राजू पाठक आज भी विद्यमान हैं। राजू भाई और उनका परिवार आज भी आपकी वादाखिलाफी का शिकार है। इंदौर प्रेस क्लब चुनाव के दौर में आपने वादों की झड़ी लगा दी थी। परिणाम के बाद वे तमाम सारे वादे बिसरा दिए गए। हमें इस बात की शिकायत नहीं है। शिकायत है तो अपने साथियों के साथ हुई वादाखिलाफी की, कैंसर से जूझ रहे राजू पाठक जब अंतिम सांस ले रहे थे, तब आप और आपके साथी चुनावी पार्टियों में मशरूफ थे। आपका साथी दम तोड़ रहा था और आप पत्रकारों के हितों में लम्बे-चौड़े झूठे भाषण दे रहे थे।

बहरहाल, बात फिर आदिल जी की। किशोर भाई, आदिल जी से आपको भी बड़ा लगाव था। आप उन्हें अपने अखबार की असेट मानते थे। एक बार जब वे दबंग दुनिया से चले गए थे तो आपने ही उन्हें वापस बुलवाया था, क्योंकि वे आदमी तो काम के थे। आपको यह भी मालूम था कि उन्हें नौकरी की बहुत जरूरत है, उनका स्वास्थ्य भी खराब रहता है, फिर भी आपने एक झटके में 20 प्रतिशत तनख्वाह कम कर दी। आपको भली प्रकार से जानकारी है कि आदिल भाई की बिटिया की शादी के वक्त आपने जो वादे उनसे किए वे कभी पूरे नहीं हुए। आपने उस दौर में उनसे मिलना तक मुनासिब नहीं समझा।

इस वादाखिलाफी ने उन्हें भीतर तक तोड़ दिया था। उनके जख्मों पर मरहम लगाने के बजाए उल्टे नमक छिंटकने का काम आपने किया। एक दिन अचानक उन्हें मेल भेजकर कहा आप रायपुर चले जाइए, थोड़ा तो सोचा होता। आज मुझे यह कहने से कोई गुरेज नहीं कि जो तनाव आपने दिया, उसके कारण ही आदिल भाई को असमय यह दुनिया छोड़ना पड़ी।

याद रखना ईश्वर की लाठी की मार बहुत तगड़ी होती है, वह आवाज नहीं करती है, लेकिन सारा हिसाब यहीं बराबर कर देती है। आपको भले ही वक्त न हो पर हम सब आदिल जी के परिवार के साथ खड़े हैं और आगे भी रहेंगे। आपको भी कभी जरूरत लगे तो हमें याद करना। हम तो ईश्वर से हमेशा आपके दीर्घायु होने की ही कामना करेंगे क्योंकि हमारे 200-300 साथियों की रोजी रोटी आपसे जुड़ी हुई है।

किशोर भाई इंदौर के मीडिया के साथियों के बीच लाख मतभेद हो सकते हैं, लेकिन इस मुद्दे पर वे सब एकमत हैं कि जैसा आपने आदिल जी के साथ किया, वह किसी और के साथ नहीं होना चाहिए।

लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं और इंदौर प्रेस क्लब के अध्यक्ष हैं।

 


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