ऐतिहासिक एलुमनी मीट के बहाने ही सही मगर गौर जरूर करिएगा जरा इन मुद्दों पर-1

मीडिया            May 06, 2018


ममता यादव।
एलुमनी मीट शब्द सुनते ही पता नहीं कितनी चीजें तैर जाती हैं। याद आ जाते हैं सहज ही वो चेहरे जिनके साथ कॉलेजों के जमाने में होती थीं चुहलबाजियां, हंसी—मजाक, लड़ाई पढ़ाई। यह शब्द सुनते ही एक उम्मीद जागती है कि सालों बाद हम अपने उन दोस्तों से मिलेंगे जिनसे बिना बात भी बात होती थी। यूनिवर्सिटी की कैंटीन से लेकर घाटियों के साथ जाने कितनी गप्पें कितने उतार—चढ़ाव पार कर लिए जाते थे।

खैर 14—15 अप्रैल 2018 का वो समय आ ही गया और इन दो दिनों को जीने वाला हर शख्स जवाहर लाल नेहरू ग्रंथालय के सभागार में या उसकी सीढ़ियों पर या गेस्ट हाउस के सामने खाते—पीते यही सोच रहा था कि ये वक्त यहीं रूक जाये। एक बार फिर हम छात्र जीवन में पहुंच जायें हमेशा के लिये।

मानव मन भटकता रहता है। जब हम छात्र जीवन में होते हैं तब भविष्य के सुनहरे सपनों में खोये उत्साह में यूनिवर्सिटी छोड़ते हुये बहुत छोटी सी कसक रहती है कि अब आगे जिंदगी खूबसूरत होगी। हम सालों वहां पलटकर नहीं देखते लेकिन तभी जिंदगी के संघर्ष, जिंदगी की उड़ानें, जिंदगी के उतार—चढ़ाव आपको उबाने लगते हैं और आप रह—रहकर सिर्फ सोचते ही नहीं कहने भी लगते हैं यार उस गोल्डन पीरियड में वापस जाना है, क्या दिन थे बेफिक्री के यार! कहां आ फंसे दुनियांदारी में!

बहरहाल, सागर विश्वविद्यालय के पत्रकारिता विभाग की एलुमनी मीट अपने आप में इतिहास बन गई जब विभाग के स्थापना वर्ष से लेकर वर्तमान तक के यानी 34 साल के छात्र एक साथ एक छत के नीचे इकट्ठे हुये। यूं इस विभाग के नाम इसके छात्रों के नाम कई इतिहास रहे हैं। हों भी क्यों न सागर विश्वविद्यालय अपने आप में ऐतिहासिक नाम है। आप आपत्ति ले सकते हैं मैं डॉ.हरिसिंह गौर विश्वविद्यालय क्यों नहीं लिखती? मैंने पढ़ा है मैंने सुना है कि डॉ. गौर ये कभी नहीं चाहते थे कि यूनिवर्सिटी का नाम उनके नाम पर हो। वे चाहते थे इसे सागर विश्वविद्यालय ही लिखा पढ़ा जाये।

तो बात पत्रकारिता विभाग की। एक तरफ आज के दौर में जब भारत के तमाम पत्रकारिता विश्वविद्यालय, छोटे-छोटे महाविद्यालय इतिहास रच रहे हैं। इसी विभाग से निकले छात्र के इंक मीडिया संस्थान में आज 100 छात्र हैं और विश्वविद्यालय के पत्रकारिता विभाग में दर्जन भर भी नहीं। इस विभाग की दुर्दशा पर मन दुख से भावुक हो जाता है। किसी ने मंच से कहा था परिचय सत्र के दौरान कि कई वर्षों से पत्रकारिता विभाग ड्राईवरों के भरोसे यानि, प्रभारी अध्यक्षों के भरोसे ही चल रहा है इसे एक बेहतर पत्रकारीय स्थाई अध्यक्ष नहीं मिल पाया, ये भी अपने आप में इतिहास है।

आप सोचेंगे मैं एलुमनी कार्यक्रम की बात क्यों नहीं कर रही हूं? आउंगी उस पर भी पर मेरा मन कसैला हो गया जब दूसरे दिन एलुमनी फंक्शन खत्म होते ही मेरा राबता पत्रकारिता विभाग के कुछ नये छात्रों से हुआ। जो हकीकत सामने आई उसके बाद मुझे लगा कि वो बातें सिर्फ बातें ही रह गईं जो व्हाट्सएप ग्रुप में की जाती थीं कि यह कार्यक्रम आने वाले नये छात्रों को कुछ बेहतर देने के लिए किया गया है या किया जा रहा है।

दरअसल जब कार्यक्रम समाप्ति के बाद सब छत पर फोटो खिंचवाने में व्यस्त हो गये तभी मैं और कुछ अन्य साथी नीचे आये कि कुछ चार—पांच जूनियर बच्चों ने बहुत सकुचाते हुये, डरते हुये मुझे बुलाया और अपनी बात शुरू की। उस समय श्री आलोक सिंघई और अन्य कुछ लोग भी थे जिनके नाम मैं भूल रही हूं।

उनका पहला सवाल था मैम बताईये हम क्या करें अब इसके बाद? एक छात्र उनमें से पीजी कर चुका है। मैंने पूछा आपके मीडिया टूर हुये? उनका जवाब था नहीं 2012 से बंद हैं मैम?

इसके बाद बात ही खत्म हो गई थी मैं कुछ देर खामोश रही। मीडिया टूर का मैंने इसलिए पूछा कि इस विभाग के लगभग हर छात्र को यह अहसास है कि दिल्ली से लेकर भोपाल इंदौर या अन्य शहरों के मीडिया संस्थानों, विश्वविद्यालयों में घूमकर उनकी कार्यप्रणाली उनकी पाठ्यशैली समझकर क्या जोश आता है, क्या समझ आती है और दिशा तय होती है और वास्तव में वह तय कर पाता है कि हकीकत में अब आगे करना क्या है?

दूसरा सवाल था मेरा कि इंटर्नशिप के लिए कहीं गये हो, सीखने को कहीं भेजा गया। जवाब मिला नहीं हमें लैटर ही नहीं दिया जाता। उन छात्रों से गंभीर चर्चा हुई बहुत सारी चीजें सामने आईं। बाहर शरद द्विवेदी जी मिले उनसे बात की उन्होंने सहर्ष कहा कोई बात नहीं हम करवा देंगे इंटर्नशिप कभी भी आ जायें। उसके बाद पुष्पेंद्र सर दिखे तो सहज याद आया कि छात्रों के लिये ये हमेशा बेहतर मार्गदर्शक रहे हैं, साबित भी हुये हैं। उन्होंने कुछ रास्ते बताये छात्र आश्ववस्त थे। उनके नंबर लिए और दिए और कहा कि संपर्क में रहियेगा जब आना हो बता दीजिएगा।

कुछ लोग मेरी इन बातों से नाराज हो सकते हैं। मगर हम सच्चाई से मुंह नहीं मोड़ सकते कि सागर केंद्रीय विश्वविद्यालय के पत्रकारिता विभाग से निकलने वाले छात्रों के पास फिलहाल कोई दिशा नहीं है न उन्हें कोई दिशा और सही रास्ता बताने वाला। जो हैं उनके पास पावर नहीं हैं और जिनके पास जिम्मेदारी है उनकी रूचि पत्रकारिता से ज्यादा उन विभागों में है जहां से वे आये हैं।

जी हां ये केंद्रीय विश्वविद्यालय का पत्रकारिता विभाग है। जिसमें पढ़ने वाले पूर्व छात्र अपने को गौरवान्वित महसूस करते हैं। मेरे दिमाग में बस एक ही चीज चल रही थी कि हमें लाख शिकायतें थीं हमारी पढ़ाई के दौरान पर हमें वर्तमान छात्रों से कहीं बेहतर मिला और ये इसलिए मिला कि हमें उस विभाग में उस दौरान वैसे अध्यक्ष मिले।

उससे पहले के या शुरूआती दशक के छात्रों सर्वश्री बृजेश राजपूत, दीपक तिवारी,रजनीश जैन, चंद्रशेखर चौबे, शरद द्विवेदी, राजेश सिरोठिया, अशोक मनवानी, शैलेंद्र सिंह ठाकुर, वीनू राणा, प्रदीप पाठक, गुंजन शुक्ला। या अन्य दूसरे पूर्व छात्र जो आज हमारे वरिष्ठ हैं सबसे ज्यादा सौभाग्यशाली बैच के रहे जिन्हें गुरू बेहतरीन और सही दिशा दिखाने वाले मिले।

सभी गुरूजनों से, वरिष्ठों से आग्रह बस इतना कि कुछ करें इस बारे में अगर हमें एक बार मिलना पड़े तो मिलें। बात करें, कुलपति महोदय से बात करें कि क्या बेहतर हो सकता है भविष्य के और वर्तमान छात्रों के लिए। सिर्फ स्मार्ट क्लासरूम छात्रों को कुछ नहीं सिखा सकते ये जान लीजिए।

हम तय करें कि अगर इस विभाग के छात्र आपकी ओर सीनियर होने के नाते उम्मीद की नजर से देख रहे हैं तो हम शत प्रतिशत न सही कुछ प्रतिशत तो उनके लिए कुछ कर पायें। हम तय करें कि अगले कुछ सालों में सागर विश्वविद्यालय के पत्रकारिता विभाग के छात्र वैसे ही इतिहास रच पायें जैसे पूर्व छात्र रच रहे हैं।

वरना वो दिन दूर नहीं जब सागर विश्वविद्यालय का पत्रकारिता विभाग इतिहास के पन्नों में ही रह जायेगा।

मैं नहीं कहती हमारे बैच को शतप्रतिशत मार्गदर्शन मिला था मगर हमें कुछ चीजें तो मिलीं जो आगे सहायक बनती गर्ईं।

आखिर को मध्यप्रदेश में पत्रकारिता की पढ़ाई शुरू करवाने वाला यह पहला विश्वविद्यालय है। अब साख और इज्जत दोनों बढ़नी चाहिए, उपलब्ध्यिां भी आखिर को हम केंद्रीय विश्वविद्यालय हैं सर।

कभी वो दिन भी आये जब किसी कार्यक्रम में डॉ. परमार जो कि इन दिनों कुशाभाउ पत्रकािरता विवि के कुलपति हैं की तरह कह पायें कि देखिये मेरे पढ़ाये हुये या मेरे संस्थान के इतने बच्चे आज इन—इन जगहों पर प्रतिष्ठित पदों पर हैं। उन्होंने वो संख्या आधा सैकड़ा से ज्यादा बताई थी।
अगर इन गिने—चुने दर्जन भर में से आधा दर्जन छात्र भी ठीक—ठाक दिशा पकड़ पाये तो हमारी एलुमनी मीट की एक साल की मशक्कत सफल हो जायेगी।

हम गैर जिम्मेदार कहलायेंगे अगर हमने नई नस्ल को अनसुना कर दिया।

एलुमनी की खुशनुमा यादें अभी बाकी हैं दोस्तों पढ़ते रहिए। दूसरी किश्त भी जल्दी ही लिखूंगी।

 



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