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भाषण, सेक्स और चैनल! दर्शक जिसे देखना चाहेंगे वही देश चलायेंगे?

मीडिया            Sep 26, 2017


पुण्य प्रसून बाजपेयी।
दिन शुक्रवार, वक्त दोपहर के चार साढ़े चार, प्रधानमंत्री बनारस में मंच पर विराजमान, स्वागत हो रहा है, शाल-दुशाला उड़ाई जा रही है, भाषणों का दौर शुरु हो चला है। पर हिन्दी के राष्ट्रीय न्यूज चैनल पर हनीप्रीत के अभी तक गायब पूर्व पति विश्वास गुप्ता का कहीं से पदार्पण हुआ और वह जो भी बोल रहा था, सबकुछ चल रहा था। हनीप्रीत के कपड़ों के भीतर घुसकर, गुरमीत के बेड पर हनीप्रीत, कमरा नहीं हमाम, बाप-बेटी के नाम पर संबंधों के पीछे का काला पन्ना, भक्तों पर कहर और महिला भक्तों की अस्मत से खुला खिलवाड़। सब कुछ लाइव।

एक दो नहीं बल्कि देश के टाप 5 न्यूज चैनलों में बिना ब्रेक। पूरी कमेन्ट्री किसी बीमार व्यक्ति या ईमानदार व्यक्ति के बीमार माहौल से निकल कर बीमार समाज का खुला चित्रण। वो तो भला हो कि एएनआई नामक समाचार एजेंसी का, जिसे लगा कि अगर हनीप्रीत की अनंत कथा चलती रही तो कोई पीएम को दिखायेगा नहीं और साढे तीन बजे से शुरु हुई विश्वास गुप्ता की कथा को चार बजकर पैंतीस मिनट पर एएनआई ने काटा तो हर किसी ने देखा अब प्रधानमंत्री मोदी को दिखला दिया जाये। एएनआई की जगह अगर न्यूज चैनलों ने पहले से लाइव की व्यवस्था हनीप्रीत के पूर्व पति की प्रेस कांन्फ्रेस की कर ली होती और पूर्व पति अपनी कथा रात तक कहते रहते तो पीएम मोदी का बनारस दौरा बनारस के भक्त चश्मदीदों के सामने ही शुरु होकर खत्म हो जाता।

यानी फाइव कैमरा सेट जो हर एंगल से पीएम मोदी को सडक से मंदिर तक और म्यूजियम से मंच तक लगा था वह सिवाय डीडी के कहीं दिखायी नहीं देता। एएनआई ने पहले कभी किसी ऐसी लाइव प्रेस कान्फ्रेस को बीच में काटने की नहीं सोची जिसे हर न्यूज चैनल ना सिर्फ चटखारे ले कर दिखा रहा था बल्कि हर चैनल के भीतर पहले से तय सारे कार्यक्रम गिरा अनंतकालीन कथा को ही चलाने का अनकहा निर्णय भी लिया जा चुका था। एएनआई ने पीएमओ या पीएम की प्रचार टीम के कहने पर हनीप्रीत के पूर्व पति की उस प्रेस कांन्फ्रेस का लाइव कट कर दिया, जिसमें सेक्स था, थ्रिल था, सस्पेंस था, नाजायज संबंधों से लेकर बीमार होते समाज का वह सबकुछ था, जिसे कोई भी कहता नहीं लेकिन समाज के भीतर के हालात इसी तरह के हो चले हैं।

यानी हर दायरे के भीतर का कटघरा इसी तरह सड़-गल रहा है और बेफ्रिक्र समाज किसी अनहोनी से बेहतरी के इंतजार में जिये चला जा रहा है। क्योंकि पीएम बनारस में क्या कहते क्या इसमें किसी की दिलचस्पी नहीं है। या फिर हनीप्रीत के शरीऱ और गुरमीत के रेप की अनकही कथा में समाज की रुचि है। तो संपादकों की पूरी फौज ही हनीप्रीत को दर्शकों के सामने परोसने के लिये तैयार है। तो पीएम से किसी को उम्मीद नहीं है या फिर प्रतिस्पर्धा के दौर में जो बिकता है वही चलता है कि तर्ज पर अब संपादक भी आ चुके हैं। जिनके कंधों पर टीआरपी ढोने का भार है।

फिर अगला सवाल ये भी है कि अगर ऐसा है तो इस बीमारी को ठीक कौन करेगा। या सभी अपने अपने दायरे में अगर हनीप्रीत हो चुके हैं तो फिर देश संभालने के लिये किसी नेहरु,गांधी, आंबडेकर, लोहिया, सरदार, शयामा प्रसाद मुखर्जी या दीन दयाल उपाध्याय का जिक्र कर कौन रहा है? या कौन से समाज या कौन सी सत्ता को समाज को संभालने की फिक्र है? कहीं ऐसा तो नहीं महापुरुषों का जिक्र सियासत सत्ता इसलिये कर रही है कि बीमार समाज की उम्मीदें बनी रहें। या फिर महापुरुषों के आसरे कोई इनकी भी सुन ले मगर, सुधार हो कैसे कोई समझ रहा है या ठीक करना चाह भी रही है, शायद कोई नहीं।

तो ऐसे में बहुतेरे सवाल जो चैनलों के स्क्रीन पर रेंगते हैं या सत्ता के मन की बात में उभरते हैं उनका मतलब होता क्या है? फिर क्यों फिक्र होती है कि गुरुग्राम में रेयान इंटरनेशनल स्कूल में सात बरस के मासूम की हत्या पर भी स्कूल नहीं रोया सिर्फ मां-बाप रोये? और जो खौफ में आया वह अपने बच्चो को लेकर संवेदनशील हुआ। फिर क्यों फिक्र हो रही है कि कंगना रनावत के प्यार के एहसासों के साथ रोशन खानदान ने खिलवाड़ किया? क्यों फिक्र होती है कि गाय के नाम पर किसी अखलाख की हत्या हो जाती है? क्यों फिक्र होती है कि लंकेश से लेकर भौमिक की पत्रकारिता सच और विचारधारा की लड़ाई लड़ते हुये मार दिये जाते हैं? क्यों फिक्र होती है लिचिंग जारी है पर कोई हत्यारा नहीं है?

फिक्र क्यों होती है कि पेट्रोल-डीजल की कमाई में सरकार ही लूटती सी दिखायी देती है। फिक्र क्यों होती है बैकों में जमा जनता के पैसे पर कारपोरेट रईसी करते है और सरकार अरबों रुपया इनकी रईसी के लिये माफ कर देती है। नियम से फिक्र होनी नहीं चाहिये जब न्यूज चैनलों पर चलती खबर को लेकर उसके संपादको की मंडली ही खुद को जज माने बैठी हो। अपने ही चैनल की पट्टी में चलाये कि किसी को किसी कार्यक्रम से नाराजगी हो या वह गलत लगता हो तो शिकायत करें। तो अपराध करने वाले से शिकायत करेगा कौन और करेगा तो होगा क्या?

यही हाल हर सत्ता का है, जो ताकतवर है उसका अपराध बताने भी उसी के पास जाना होगा। तो संविधान की शपथ लेकर ईमानदारी या करप्शन ना करने की बात कहने वाले ही अगर बेईमान और अपराधी हो जाये तो फिर शिकायत होगी किससे? सांसद-मंत्री-विधायक-पंचायत सभी जगह तो बेईमानों और अपराधियों की भरमार है। तीस फिसदी जनता के नुमाइंदे बकायदा कानून के राज में कानूनी तौर पर दागदार हैं। फिर सत्ता की अनकही कहानियों को सामने लाने का हक किसे है? और सत्ता की बोली ही अगर जनता ना सुनना चाहे तो सत्ता फिर भी इठलाये कि उसे जनता ने चुना है और पांच बरस तक वह मनमानी कर सकती है तो फिर अपने अपने दायरे में हर सत्ता मनमानी कर ही रही है।

यानी न्याय या कानून का राज तो रहा नहीं,संविधान भी कहां मायने रखेगा? एएनआई की लाईव फुटेज की तर्ज पर कभी न्यायपालिका किसी को देशद्रोही करार देगी और कभी राष्ट्रीयता का मतलब समझा देगी और किसी चैनल की तर्ज पर सत्ता-सियासत भी इसे लोकतंत्र का राग बताकर वाह—वाह करेगी। झूठ-फरेब, किस्सागोई, नादानी और अज्ञानता। सबकुछ अपने—अपने दायरे में अगर हर सत्ता को टीआरपी दे रही है तो फिर रोकेगा कौन और रुकेगा कौन? और सारे ताकतवर लोगों के नैक्सस का ही तो राज होगा। पीएम उन्हीं संपादकों को स्वच्छभारत में शामिल होने को कहेंगे, जिनके लिये हनीप्रीत जरुरी है। संपादक उन्हीं मीडियाकर्मियो को महत्व देंगे जो हनीप्रीत की गलियों में घूम—घूम कर हर दिन नई नई कहानियां गढ़ सकें। उन्हीं कारपोरेट संपादकों और सत्ता को महत्ता देंगे जो बनारस में पीएम के भाषण और हनीप्रीत की अश्लीलता तले टीआरपी के खेल को समझता हो, जिससे मुनाफा बनाया जा सके।

देश के सारे नियम ही जब कमाई से जा जुड़े हों, कारपोरेट के सामने हर तिमाही तो सत्ता के सामने हर पांच साल का लक्ष्य हो। तो हर दौर में हर किसी को अपना लाभ ही नजर आयेगा। अगर सारे हालात मुनाफे से जा जुड़े हैं तो राम-रहीम के डेरे से बेहतर कौन सा फार्मूला किसी भी सत्ता के लिये हो सकता है। रायसिना हिल्स से लेकर फिल्म सिटी अपने अपने—दायरे में किसी डेरे से कम क्यों आंकी जाये। आने वाले वक्त में कोई ये कहने से क्यों कतरायेगा कि जेल से चुनाव तो जार्ज फर्नाडिस ने भी लड़ा तो गुरमित या हरप्रीत क्यो नहीं लड सकते है। या फिर इमरजेन्सी के दौर में जेपी की खबर दिखाने पर रोक थी लेकिन अभी तो खुलापन है अभिव्यक्ति की आजादी है तो फिर रेपिस्ट गुरमित हो या फरार हनीप्रीत। या किसी भी अश्लीलता या अपराधी की खबरें दिखाने पर कोई रोक तो है नहीं। तो खुलेपन के दौर में जिसे जो दिखाना है दिखाये, जिसे जो कहना है कहे, जिसे जितना कहना है कह लें।

यानी हर कोई जिम्मेदारी से मुक्त होकर उस मुक्त इकनामी की पीठ पर सवार है जिसमें हर हाल में मुनाफा होना चाहिये। तब तो गुजराती बनियो की सियासत कह सकती है गुजराती बनिया तो महात्मा गांधी भी थे। ये उनकी समझ थी कि उनके लिये देश की जनता का जमावड़ा अग्रेजों से लोहा लेने का हथियार था। मौजूदा सच तो पार्टी का कार्यकर्ता बनाकर वोट जुगाडना ही है।

तो फिर देश का कोई भी मुद्दा हो उसकी अहमियत किसी ऐसी कहानी के आगे कहां टिकेगी जिसमें किस्सागोई राग दरबारी से आगे का हो। प्रेमचंद के कफन पर मस्तराम की किताब हावी हो और लोकतंत्र के राग का आदर्श फिल्मी न्यूटन की ईमानदारी के आगे घुटने टेकते हुये नजर आये। ऐलान हो जाये कि 2019 में पीएम उम्मीदवार न्यूटन होगा अगर वह आस्कार जीत जाये तो। या फिर हनीप्रीत होगी जिसे भारत की पुलिस के सुरक्षाकर्मी खोज नहीं पाये। यानी लोकप्रिय होना ही अगर देश संभालने का पैमाना हो तो लोकप्रियता का पैमाना तो कुछ भी हो सकता है, जिसकी लोकप्रियता होगी, जिसे सबसे ज्यादा दर्शक देखना चाहते होंगे वही देश चलायेंगे। क्या हालात वाकई ऐसे हैं? सोचियेगा जरुर!

 



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