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इंतजार चुनाव का करें या लोकतंत्र के चौथे स्तम्भ की हकीकत बयानी का

मीडिया            Jan 02, 2019


पुण्य प्रसून बाजपेयी।
क्या मीडिया किसी देश को चला सकता है? क्या सूचना तंत्र के आसरे किसी देश को विकसित किया जा सकता है? क्या तकनालाजी का विस्तार देश का विस्तार होता है? क्या विकास का मतलब किसी देश में मुनाफा बनाने का माडल हो सकता है?

क्य़ा प्रकृति से खिलवाड़ आधुनिक होने की छूट दे देती है? क्या ताकत दिखाना ही सत्ता का प्रतिक है? या फिर सत्ता का मतलब ही विशेषाधिकार पा कर समूचे देश को निजी जागीर मान लेना है? 21 वीं सदी के भारत में समूची होड़ ही इसे पाने या समेटने की हो चली है।

यह सारे सवाल आने वाले वक्त में भारत की चौखट पर दस्तक देंगे और कुछ तो दे ही रहे हैं, इंकार इससे किया नहीं जा सकता है? सिलसिला कहीं से भी शुरु हो सकता है।

लोकतंत्र का चौथा स्तंभ मीडिया हाथ में होगी तो सच किसी तक पहुंचेगा ही नहीं। सत्ता ये सोच सकती है और इसे हकीकत का जामा पहुंचा सकती है।मौजूदा वक्त इसे अपने में समेट चुका है।

सवाल सिर्फ जस्टिस लोया या पत्रकार गौरी लंकेश या फिर सामाजिक कार्यकत्ता दाभोलकर की हत्या के बाद एक अनंत खामोशी का भी नहीं है। बल्कि रोज ब रोज दो चार होती जिन्दगी के सामने जो सवाल सरकार की नीतियों के आसरे उभरते हैं उसका सच भी कैसे छुपा लिया जाता है या फिर बताया ही नहीं जाता? ये

सवाल सत्ता के सिंकदर को हमेशा अच्छा लगता है कि उसकी नीतियां शानदार हैं, चमकदार हैं, मावनवीय हैं। लेकिन जमीनी सच अगर इसके उलट है तो फिर सरकारी नीतियों की खाल कौन उघाड़ेगा? या फिर सच है क्या इसे कौन बतायेगा और कौन जानेगा?

अगर मीडिया-तकनालाजी का हर चेहरा खामोशी बरतेगा या राजा को खुश करने के लिये नीतियों की बढ़ाई ही करेगा तो होगा क्य़ा या फिर हो क्या रहा है?

जनधन खुला और जनधन के तहत बैंक दर बैंक खाता खुलवाने वाले आज करोड़ों की तादाद में होकर भी अकेले हैं। क्योकि जनधन के प्रचारित-प्रसारित आंकड़े लोक लुभावन तो हैं लेकिन उसके भीतर के सच को कोई बताने-दिखाने की स्थिति में नहीं है।

या फिर बताने की हिम्मत ही नहीं दिखाता कि जनधन का खाता खोल कर बैठे करोडो लोगो या परिवार दो जून की रोटी के लिये कैसे तरसते है। बैंक कैसे सिर्फ कागजों के आसरे आंकड़ों को बढ़ाते हैं।

अठन्नी भी किसी की जेब या हथेली तक पहुंच नहीं पायी है पर कहे कौन? पन्नों को एक—एक कर पलटें और सोचें 2014 में दो करोड़ रोजगार हर बरस देने का वायदा किने किया था। अब जबकि वादा लापता है तो फिर लोकतंत्र का चौथा स्तम्भ वादा तो दूर बेरोजगारी तले आक्रोश की भट्टी पर बैठे देश के भीतर के मवाद को सामने लाने से कतरा क्यों रहा है?

कौन कहेगा कि कि 18 बरस की उम्र वोट देने के काबिल बना देती है। लेकिन 18 बरस होते ही जिन्दगी जिन हालातो से रुबरु करा रही है उससे बेफिक्र सत्तानशीं युवा भारत को एक ऐसे अंधेरे में धकेल रहे हैं, जहां का एकाकीपन करोड़ों युवाओं को अकेला कर मौत की तरफ घकेल रहा है।

एमसीआरबी के आंकड़े ही बताते है कि देश में जितने किसान खुदकुशी करते हैं उससे दोगुना युवा-छात्र-बेरोजगार खुदकुशी करते हैं पर कहेगा कौन?

2015 में सर्जिकल स्ट्रइक के जरीये देशभक्ति और राष्ट्रवाद की अनोखी लकीर भी खिंची गई । लेकिन 2015 के बाद जवानो के शहीद होने का सिलसिला पुराने तमाम आंकड़ों को पार क्यों कर गया और ये अब भी जारी क्यों है?

पाकिस्तान तो दूर की गोटी है आंतक को मुंह को पकड़ने की बात भी दूर की कौड़ी हो गई । उल्टे कश्मीर की वादियों को ही आंतक का पनाहगार बनाने के दिशा में बढ़ गये। पर कहेगा कौन कि ना कश्मीरी पंडितों को घर मिला ना कश्मीरी मुस्लिमों को सुकुन मिला? उल्टे दिल्ली की सियासत ने जम्मू और कश्मीर में बिखरे हिन्दु-मुस्लिम कश्मीरियो को पाठ पढा दिया कि सियासत से ज्यादा खतरनाक कुछ भी नहीं। चाहे वह लोकतंत्र का राग गाते रहें।

2016 में नोटबंदी तले जो भी एलान हुये हों लेकिन हर दिन लाइन में लगे लोगों की मौत का आंकडा जब सौ पार कर गया तो चौराहे का जिक्र हुआ। तब पचास दिन मांगे गये थे अब तो हजार दिन होने को आ रहे हैं लेकिन मौत के बाद तिल—तिल मरते ग्रमीण भारत के किसान मजदूर और असंगठित क्षेत्र में नोटबंदी के बाद सबकुछ गंवाने वाले 35 करोड़ भारतीयों के पेट के घाव के लिये कोई मरहम तो दूर सिर्फ कहने की हिम्मत भी मीडिया क्यों नहीं जुटा पाता है?

लाल दीवारों में कैद राजा ठहाके लगाकर बार बार ये कहने से नहीं कतराता कि नोटबंदी ने मौत नहीं जिन्दगी दी है। पर कहे कौन और मिटी की दिवारो या खपरैल की छतो के भीतर जाकर झाके कौन और जो दिखायी दे उसे बताये कौन कि हर सरकारी निर्णय के बाद भारत और घायल क्यों हो रहा है?

2017 में जीएसटी तो दूसरी आजादी का प्रतीक बना दिया गया था पर, आजादी किससे मिली ये क्या किसी धंधेवाले या धंधे से जुड़े मजदूर या हुनुरमंद कारीगरों से जाकर किसी ने पूछा? नौ करोड खुदरा व्यापारी मुनाफा कमा रहे थे जीएसटी ने मुनाफे की लूट खत्म कर दी।

लाल दीवारों के भीतर मैसेज तो यही दिया गया। ठीक वैसे ही जैसे नोटबंदी के वक्त मैसेज था, रईस फंस गये और रईसों के फंसने पर गरीब खुश हो गया।

कमाल की सोच है और इस कमाल को राजा खुले तौर पर मंच दर मंच से नाटकीय अंदाज में कहने से नहीं चूकता। यानी सही होने का भरोसा किस तरह लोकतंत्र के चौथे स्तम्भ ने जगा कर रखा है, और अपनी ही बनायी दुनिया के अपने ही मीडिया को भरोसा जगाने वाला मान कर राजा भी भरोसे से सराबोर हो चला है ये भी खुल्लम खुल्ला है।

पर कहे कौन कि जीएसटी ने सिसटम को और ज्यादा भ्रष्टर बना दिया? टैक्स और एक्साइज की वसूली वाले नये थानेदार हैं? व्यापारियों की बंद होती दुकानों के बीच बाबूओं की दुकान चल पड़ी है पर कहे कौन ?

वाकई कौन कह सकता है कि नाम बदलने से कुछ नहीं होता। पर 2018 का चलन तो नाम बदलने का ऐसा चल पडा कि बदलते नाम के जरीये इतिहास के पन्नों को टटोलने का काम लोकतंत्र का चौथा स्तम्भ करता रहा। लेकिन ये कहने बताने की हिम्मत किसी में नहीं रही तकि नाम बदलने के एलान के बाद सरकारी दस्तावेजों से लेकर सार्वजनिक जगहो पर भी बदले हुये नाम की पट्टी लगाने का जो खर्च और वक्त व्यर्थ होता है उससे पीठ औप पेट होते शहरो को दो जून की रोटी देकर सिसटम ठीक करने की दिशा में बढा जा सकता है।

सवाल ये नहीं है कि गवर्नेंस गायब है सवाल है कि गवर्नेंस बगैर गेरुआधारी होकर सत्ता चलाने का सुकुन राम राज्य की कल्पना में ले जा सकता है। इसका खुला इजहार हो रहा है पर कहे कौन।

इस फेरहिस्त तले सत्ता के सांसद हों या मंत्री संवैधानिक संस्थान हो या स्वयत्त संस्था। या फिर देश का सबसे पडा सत्ताधारी परिवार यानी संघ परिवार ही क्यों ना हो, सभी मीडिया, टेकनालाजी,सूचना तंत्र की आगोश में इस तरह आ चुके हैं कि सभी तो कुछ को कुछ समझते नहीं या फिर राजा के तंत्र के आगे,सभी नतमस्तक होकर सत्ता सुख को ही जिन्दगी का आखरी सच मान चुके है। यानी सवाल यह नहीं है कि राजा के सामने बोले कौन?

सवाल तो यह भी है कि तंत्र की जो घुट्टी लगातार परोसी जा रही है उसमें नैतिक बल गायब हो चला है। ईमानदारी बेमानी सी लगने लगी है। अपने पैरों पर खडा कर कुछ कह पाने की हिम्मत के लिये राजा के पांव ही देखे जा रहे हैं तो संभले कौन और संभाले कौन?

जब देश में नीतियों का बोलबाला हो, मन की बात संविधान हो, पंसदीदा को इंटरव्यू देना लोकतंत्र का जीना हो और खुद ही सवाल बताकर खुद ही जवाब देने का प्रचलन आजादी का प्रतीक हो तो कल्पना कीजिए 2019 में इंतजार चुनाव का करें या इंतजार लोकतंत्र के चौथे स्तम्भ की हकीकत बयानी का करें या इंतजार उस बच्चे का करें। जो राजा के सामने खड़ा हो भोलेपन में पंचतंत्र की कहानी की तर्ज पर कह दें, राजा तो नंगा है।

 



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