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मतदान कभी 100 प्रतिशत नहीं होता, मध्यप्रदेश में बढ़ी 2.82 फीसदी वोटिंग

राष्ट्रीय            Nov 29, 2018


मल्हार मीडिया भोपाल।
विधानसभा चुनाव में अमूमन 65 फीसदी वोटिंग होती है। अक्सर आंकड़ा इस औसत के ढाई फीसदी अधिक या कम का होता है। 2013 में मोदी लहर के समय मप्र में 72 फीसदी वोट डले थे, उसका रिकॉर्ड मध्यप्रदेश में इस बार टूटकर आंकड़ा 74 फीसदी के पार हो गया।

यानी लहर से भी ज्यादा। जब भी औसत आंकड़ों में 7 या इससे अधिक प्रतिशत का हेरफेर होता है तो नतीजे चौंकाने वाले आते हैं।

मतदान कभी 100 % नहीं होता। 5 प्रतिशत लोगों को शहर से बाहर मानकर इफेक्टिव वोटिंग प्रतिशत 95 माना जाता है। इस लिहाज से 74 प्रतिशत वोटिंग 80 फीसदी से भी ज्यादा मानी जाएगी।

60% से कम वोट डलते हैं तो इसे कम और 70 % से अधिक वोट डलते हैं तो इसे भारी मतदान मानते हैं। मप्र भारी की श्रेणी में आ गया है।

एजेंसियों का सर्वे कांग्रेस और भाजपा के बीच 1 प्रतिशत वोट का अंतर बता रहा था। अब वोटिंग औसत से 9 फीसदी अधिक है, इसलिए दो ही पहलू हैं।

पहला ये सरकार के खिलाफ गुस्सा है या किसी के पक्ष में लहर है। दूसरा, अपने वोटर्स को बूथ तक लाने के लिए दोनों दलों ने खूब ताकत लगाई, जिससे प्रतिशत इस ऊंचाई पर पहुंचा।

गुजरात में 68 प्रतिशत के आसपास मतदान में कांटे का मुकाबला था।

यहां भी कांटे का मुकाबला माना जा रहा था, पर अब नतीजा आश्चर्यजनक आ सकता है।


मोदी लहर में डले 72 प्रतिशत से कुछ ज्यादा मतों से भाजपा ने जीत हासिल की थी। इसमें 2 प्रतिशत का इजाफा बूथ मोबलाइजेशन (वोटर को बूथ तक लाना, प्रबंधन आदि) के कारण हुआ तो उसके लिए यह राहत की बात हो सकती है, उनका नेटवर्क कांग्रेस के मुकाबले बेहतर है।

औसत से 9 फीसदी अधिक मतदान में अगर सरकार के खिलाफ गुस्सा निकला हो या उसके पक्ष में लहर आई हो तो दोनों ही स्थितियां कांग्रेस को सहज स्थिति में पहुंचा सकती हैं। इसका मतलब यह होगा कि एंटी इन्कम्बंसी दबी-छुपी थी, जिसे कांग्रेस ने बेहतर बूथ प्रबंधन से भुना लिया।

इस बार वोटिंग 2.82% बढ़ी है। इससे सरकार चिंता में है, क्योंकि उप्र में वोट प्रतिशत बढ़ने से सत्ता परिवर्तन हुआ तो कर्नाटक में गठबंधन सरकार बनी। आखिर वोट प्रतिशत बढ़ने के मायने क्या हैं? भास्कर ने मध्यप्रदेश और देश के बीते चुनावों के वोटिंग और उनके परिणामों के ट्रेंड का अध्ययन किया। ताकि पाठकों को इस तरह की वोटिंग की बारीकियां समझने में आसानी हो।

प्रदेश में अब तक पांच प्रतिशत से ज्यादा वोट बढ़ना ही प्रभावी रहा कभी पटवा आए तो दिग्विजय गए।

1990 : स्व. सुंदरलाल पटवा के नेतृत्व में भाजपा मैदान में उतरी और 4.36 फीसदी वोट बढ़ गए। तत्कालीन कांग्रेस की सरकार उखड़ गई।

1993 : पूर्व मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह के नेतृत्व में कांग्रेस ने ताकत झोंकी तो 6.03 प्रतिशत मतदान बढ़ा। तब भाजपा की पटवा सरकार पलट गई।

1998 : वोटिंग प्रतिशत 60.22 रहा था जो 1993 के बराबर ही था। कोई बढ़ोत्तरी नहीं हुई। तब दिग्विजय सिंह की सरकार दोबारा बनी।

2003 : उमा के नेतृत्व में भाजपा सामने आई और दिग्विजय सिंह की दस साल की सरकार सत्ता से बाहर हो गई। तब भी 7.03% वोट बढ़े थे।
जब 2 से 3 फीसदी के बीच वोट बढ़े

2008 : तब 2.03 फीसदी वोट बढ़े। भाजपा सरकार की सीटें 2003 के मुकाबले 173 से घटकर 143 हो गईं लेकिन सरकार बरकरार रही।
2013 : इस समय 2.9 फीसदी मतदान ज्यादा हुआ। भाजपा की सीटें 143 से बढ़कर 165 हो गईं।

2018 : अबकी बार 2.82 प्रतिशत वोट बढ़ा है।

सपाक्स-आप तो वजह नहीं : एक बड़ा फैक्टर वोटिंग बढ़ने के पीछे सपाक्स और आम आदमी पार्टी को भी माना जा रहा है। पहली बार ये दोनों दल मप्र के चुनाव में उतरे हैं। आम आदमी पार्टी ने 208 सीटों और सपाक्स ने 110 सीटों पर प्रत्याशी उतारे। बसपा भी 227 सीटों और सपा 52 सीटों पर दिखाई दी।

 



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