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प्रमोशन में आरक्षण अब संवैधानिक बाध्यता नहीं:सु्प्रीम कोर्ट

राष्ट्रीय            Sep 26, 2018


मल्हार मीडिया ब्यूरो।
बुधवार को देश की शीर्ष अदालत माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने अपने निर्णय में "प्रमोशन में आरक्षण संवैधानिक बाध्यता नहीं " निर्णय दिया है। इस निर्णय के आने के बाद विगत 4 वर्ष से अवसाद और कुंठा में जी रहे मध्य प्रदेश के उन लाखों सरकारी अधिकारी कर्मचारियों, जो सामान्य, पिछङे और अल्पसंख्यक वर्ग से हैं और बिना प्रमोशन के सेवानिवृत शासकीय सेवकों, के मन में आशा की एक नई किरण जगी है।

अब केंद्र और राज्य सरकारों में नौकरी कर रहे अनुसूचित जाति-जनजाति (एससी-एसटी) के नागरिकों के लिए प्रमोशन में आरक्षण का रास्ता साफ़ हो गया है। देश की सर्वोच्च अदालत की पांच सदस्यीय संवैधानिक पीठ ने बुधवार को एक महत्वपूर्ण फ़ैसले में कहा कि सरकारी नौकरियों में अवसर में बराबरी देने वाले प्रावधानों के अनुसार प्रमोशन में भी आरक्षण दिया जा सकता है।

शीर्ष अदालत ने केंद्र सरकार की इस अर्ज़ी को भी ठुकरा दिया कि नौकरियों में प्रमोशन के कोटे के लिए एससी-एसटी की कुल आबादी को ध्यान में रखा जाए। अदालत ने कहा कि प्रदेश सरकारों को एससी-एसटी कर्मचारियों को प्रमोशन देने के लिए अब पिछड़ेपन का डेटा जुटाने की ज़रूरत नहीं है।

मुख्य न्यायाधीश दीपक मिश्रा समेत जस्टिस कुरियन जोसेफ, जस्टिस रोहिंग्टन नरीमन, जस्टिस संजय कौल और जस्टिस इंदु मल्होत्रा वाली पांच जजों की संविधान पीठ को यह तय करना था कि अदालत को 2006 के 'एम नागराज बनाम भारत सरकार' मामले में तत्कालीन संविधान पीठ द्वारा 'प्रमोशन में आरक्षण' पर दिए गए फैसले पर पुनर्विचार करने की ज़रूरत है या नहीं। सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि इसकी ज़रूरत नहीं है।

दरसल 2006 में 'एम नागराज बनाम भारत सरकार' मामले की सुनवाई करते हुए पांच जजों की ही संविधान पीठ ने फैसला दिया था कि सरकारी नौकरियों में प्रमोशन के मामले में एससी-एसटी वर्गों को संविधान के अनुच्छेद 16 (4) और 16 (4 ख) के अंतर्गत आरक्षण दिया जा सकता है। पर आरक्षण के इस प्रावधान में कुछ शर्तें जोड़ते हुए अदालत ने यह भी कहा कि प्रमोशन में आरक्षण देने के लिए किसी भी सरकार को नीचे लिखे मानदंडों को पूरा करना होगा।

2006 में कोर्ट ने अपने आदेश में कहा था कि एससी-एसटी वर्गों के लिए प्रमोशन में आरक्षण का प्रावधान करने से पहले सरकार को ये आंकड़े जुटाने होंगे कि ये वर्ग कितने पिछड़े रह गए हैं, प्रतिनिधित्व में इनका कितना अभाव है और प्रशासन के कार्य पर इनका क्या फर्क पड़ेगा।

इस निर्णय के बाद से ही सर्वोच्च न्यायलय में दायर कई जनहित याचिकाओं में इस पर पुनर्विचार की मांग उठती रही थी। इस मामले में केंद्र सरकार का प्रतिनिधित्व कर रहे अटॉर्नी जनरल के वेणुगोपाल ने प्रमोशन में आरक्षण के पक्ष में गुहार लगाते हुए कहा था कि एक सात सदस्यीय संविधान पीठ को इस निर्णय पर पुनर्विचार करना चाहिए।

आज के फ़ैसले में संविधान पीठ ने साफ़तौर पर कहा कि 2006 के 'एम नागराज बनाम भारत सरकार' मामले में संविधान पीठ के फ़ैसले पर पुनर्विचार करने के लिए उसे एक और बड़ी संविधान पीठ के पास भेजने की कोई ज़रूरत नहीं है। लेकिन अदालत ने यह भी कहा कि अब 'प्रमोशन में आरक्षण' देने के लिए 2006 के निर्णय में लिखे गए मापदंडों को पूरा करने और इससे संबंधित जानकरी जुटाने की भी कोई ज़रूरत नहीं है।

यहां यह बताना भी ज़रूरी है कि एम नागराज के फैसले के 12 साल बाद भी सरकार एससी-एसटी वर्ग के अपर्याप्त प्रतिनिधित्व से संबंधित सरकारी आंकड़े आज तक अदालत के सामने पेश नहीं कर पाई है। इस वजह से इन वर्गों की प्रमोशन में आरक्षण की प्रक्रिया पर अघोषित रोक सी लग गई थी।

अदालत ने बुधवार को न सिर्फ़ 2006 में दिए गए अपने पुराने दिशानिर्देशों को ख़ारिज किया बल्कि यह भी कहा कि नागराज निर्णय में दिए गए दिशानिर्देश 1992 के ऐतिहासिक इंदिरा साहनी निर्णय के ख़िलाफ़ जाते हैं।

1992 के इंदिरा साहनी निर्णय को मंडल कमीशन केस के नाम भी जाना जाता है। इसमें सुप्रीम कोर्ट की नौ जजों की बेंच ने संविधान सभा में दिए गए डॉ. आंबेडकर के वक्तव्य के आधार पर सामाजिक बराबरी और अवसरों की समानता को सर्वोपरि बताया था।

 



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