Breaking News

पीएम नरेंद्र मोदी को हरी झंडी मिल भी जाती तो भी क्या खास हो जाना था?

पेज-थ्री            Apr 13, 2019


प्रकाश भटनागर।
सन 2002 में भोपाल शहर की टॉकीजों में शुमार की जाने वाली वह इमारत आज गोदाम में तब्दील हो गयी है। करीब सतरह साल बाद उसकी याद अचानक हो आयी एक खबर पढ़कर। वह यह कि चुनाव आयोग ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के जीवन पर आधारित फिल्म ‘पीएम नरेंद्र मोदी’ की रिलीज पर रोक लगा दी है।

काफी पापड़ बेलने के बाद यह काम हो सका है। वरना तो कांग्रेस से जुड़े याचिकाकर्ता इस फिल्म को रोकने की कोशिश में सुप्रीम कोर्ट के स्तर पर मात खा चुके थे।

एकबारगी मान भी लीजिए कि इस फिल्म को चुनाव से पहले हरी झंडी मिल जाती, तब भी क्या खास हो जाना था! क्योंकि मामला मोदी से जुड़े बेहद अजीब फितरत के शख्स का है।

यह वह प्रधानमंत्री है, जिसने या तो अपने कट्टर समर्थक पाये हैं, या फिर विरोधियों के बीच अपने लिए भयावह नफरत का संचार किया है।

‘न समर्थक, न विरोधी’ जैसे लोग इस शख्स के खाते में दशमलव प्रतिशत के अनुपात में और वो भी बमुश्किल ही आ पाये होंगे।

सोशल मीडिया देख लीजिए। मोदी के समर्थन और उनके विरोध, दोनो ही मामलों में मर्यादा को एक ओर रखकर विचार पेश किए जा रहे हैं। मोदी ने यह समर्थन और विरोध, दोनो ही अपनी शख्सियत के उन बेहद दुर्लभ तत्वों से अर्जित किये हैं, जिन्हें कोई फिल्म तो शायद ही कभी प्रभावित कर सके।

यह सही है कि फिल्में भारतीय जनमानस को बहुत अधिक प्रभावित करती हैं। किंतु ऐसी फिल्में कम से कम ‘पीएम नरेंद्र मोदी’ या ‘इंदु सरकार’ की श्रेणी वाली नहीं होती हैं।

इस स्तर की फिल्मों का यदि प्रभाव पड़ना होता तो सर रिचर्ड एटेनबरो की ‘गांधी’ या विधु विनोद चोपड़ा की ‘लगे रहो मुन्नाभाई’ देखने के बाद आधे से ज्यादा हिंदुस्तान सच्चाई और ईमानदारी के उस रास्ते पर चल पड़ा होता, जो रास्ता झूठ तथा नैतिक पतन के भवसागर में समाकर कब का कहीं खत्म हो चुका है।

इस वर्ग की फिल्मों के बावजूद न तो केतन मेहता की ‘सरदार’ इस देश को दूसरा वल्लभ भाई पटेल दे सकी और न ही श्याम बेनेगल की ‘नेताजी द फॉरगेटन हीरो’ के बाद नेताजी सुभाषचंद्र बोस के बताये रास्ते पर चलने वाली कोई पौध नजर आयी।

एक प्रमुख हिंदी दैनिक में किसी स्तंभकार ने सालों पहले मोहनदास करमचंद गांधी पर आलेख लिखा था। इसमें जिक्र किया गया कि क्यों कर कोई भी हिंदुस्तानी सर एटेनबरो के श्रेष्ठ स्तर वाली ‘गांधी’ जैसी फिल्म नहीं बना सका। इसमें लेखक ने कटाक्ष किया था कि यदि हिंदुस्तानी इस फिल्म को बनाता तो उसकी समस्या यह होती कि वह किस नायिका के साथ गांधी को पार्क में ठुमके लगाते और एकांत में रोमांस फरमाते दिखाये!

स्तंभकार के कहने का दर्द यह था कि इसके बगैर तो हमारे देश में कोई फिल्म दर्शकों के बीच सफल हो ही नहीं सकती।

‘पीएम नरेंद्र मोदी’ के पोस्टर पर वीतरागी अंदाज में दाढ़ी बढ़ाये विवेक ओबेरॉय की तस्वीर देखकर देश का यही वर्ग पहले ही मन बना चुका होगा कि ‘इसमें देखने लायक कुछ भी नहीं है।’

लिहाजा तय है कि फिल्म रिलीज होती, तब भी अधिकांश भाजपाई इसे मन मारकर देखने जाते, मोदी के विरोधी इसे देखकर उनके खिलाफ और विष वमन के तरीके तलाशते।

बाकी, हॉल के भीतर बैठकर सीटी बजाते, कभी ठहाके लगाते और कभी आंसू बहाते वह दर्शक इसे देखने नहीं ही जाते, जो हिंदी फिल्म जगत के बॉक्स आॅफिस को मुनाफा देने के लिए सबसे मुफीद मूर्ख हैं।

अंत में फिर शुरूआत पर आयें। सन 2002 में देश के अन्य हिस्सों सहित भोपाल में भी एक ही दिन अमर शहीद भगत सिंह पर करीब चार अलग-अलग फिल्में एक साथ रिलीज हुई थीं।

अधिक भीड़ जुटाने की गरज से हर टॉकीज की ओर से इस आशय का विज्ञापन दिया गया कि उनके यहां वाली फिल्म ही भगत सिंह के असली चरित्र का प्रतिनिधित्व करती है।

तब उक्त टॉकीज के मालिक ने विज्ञापन में अपने यहां प्रदर्शित फिल्म ‘कुंवारी दुल्हन’ के नाम का जिक्र करते हुए लिखा था, ‘सारे भगत सिंह एक तरफ और कुंवारी दुल्हन एक तरफ।’

यह बात सोलह आना सच है कि शहर की चार टॉकीजों में शहीदे-आजम को देखने जितनी भीड़ उमड़ी, उतनी ही संख्या में लोग ‘कुंवारी दुल्हन’ का हाल जानने केवल उस एक टॉकीज में पहुंचे थे।

यह वही उस दिन के गुदगुदाते चेहरों वाली भीड़ थी, जो किसी अन्य मौके पर किसी फिल्म के लिए ताली बजाकर, ठहाके लगाकर या आंसू बहाकर उसके हिट होने का इंतजाम करती है।

इस भीड़ को ‘पीएम नरेंद्र मोदी’ की वैसे ही दरकार नहीं है, जिस तरह उसे रिचर्ड एटेनबरो की ‘गांधी’ हिंदी में अनुवादित करके टैक्स फ्री के तौर पर दिखाये जाने के बावजूद अपनी ओर आकर्षित नहीं कर सकी थी।

इसलिए उस याचिकाकर्ता पर तरस आ रहा है, जिसने नरेंद्र मोदी पर बनी फिल्म के प्रदर्शन को रोकने के लिए अदालती कार्यवाहियों में खामखां अपना पैसा फूंक दिया।

क्योंकि यह वही माहौल है, जिसमें आज भी ‘सारे पीएम नरेंद्र मोदी एक तरफ और...’ वाली मानसिकता हरियाली को निगलती अमरबेल की तरह हावी हो चुकी है।

 



इस खबर को शेयर करें


Comments