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फिल्म समीक्षा:देखनीय शानदार नवाबी मैन्यु शेफ

पेज-थ्री            Oct 06, 2017


डॉ. प्रकाश हिन्दुस्तानी।
कहानी शहरी है, लेकिन शानदार है। इमोशनल ड्रामा है, जो पिता-पुत्र के बीच चलता है और पति-पत्नी के भी। शेफ है, तो खाना भी है और खाना बनाने की कला भी। सैफ अली खान ने जैसी एक्टिंग की है, उससे लगता है कि वे खाना भी अच्छा ही बनाते होंगे। कहा जाता है कि अच्छा खाना बनाना भी एक तरह की कला है और जो शख्स अच्छा खाना बनाता हो, वह दुनिया का कोई भी काम आसानी से कर सकता है, क्योंकि अच्छा खाना बनाने के लिए जिस धैर्य, समझदारी और अनुभव की जरूरत होती है, वह हर किसी के बस की बात नहीं है। फिल्म के निर्माताओं में एक नाम ‘बांद्रा वेस्ट प्रोडक्शन’ देखकर मुझ इंदौरी के मन में सवाल उठा कि काश! यह छप्पन दुकान प्रोडक्शन या सराफा प्रोडक्शन की फिल्म होती।

फिल्म के संवाद जबरदस्त हैं
किसी को अपने हाथ से खाना खिलाने का मौका रब की मेहर है (मतलब वे लोग सौभाग्यशाली है और उन पर ईश्वर की कृपा है, जो अपने हाथ का खाना दूसरे के सामने परोसते हैं। यह बात और है कि बेस्ट इनग्रीडिएंट अच्छे भोजन के लिए जरूरी है, लेकिन केवल इनसे ही कोई खाना अच्छा नहीं बन जाता।)

- कम्फर्टेबल बिस्तर गहरी नींद की कोई गारंटी नहीं है।
- पेड़ की जड़ जमीन में होती है और आदमी की दिमाग में।
- हर आदमी के सपनों की कीमत होती है।
- सच्ची बात बहन की गाली जैसी होती है।

शेफ फिल्म दो स्तर पर कहानी को आगे बढ़ाती है। अपने काम से बेहद प्यार करने और उसे सबकुछ मानने वाले एक शेफ की कहानी के साथ-साथ उसकी निजी जिंदगी में पत्नी और बेटे के साथ उसके संबंधों की कहानी भी आगे बढ़ती है। पूरी फिल्म साफ-सुथरी है, कोई फूहड़ता, अश्लीलता, दोहरे अर्थ वाले संवाद नहीं है। भावनाओं के स्तर पर यह फिल्म कई दर्शकों की आखों में आंसू ला देती है। कमी है तो यह कि यह एक शहरी कहानी है। कहानी के सभी पात्र और उनके एक्शन स्वाभाविक लगते हैं। महानगरीय दर्शकों को यह अवश्य पसंद आएगी।

तीन साल पहले हॉलीवुड में इसी नाम की एक फिल्म रिलीज हुई थी, जिसने छह थिएटरों से शुरू होकर करीब 1300 थिएटरों में जगह बना ली थी। वह कॉमेडी फिल्म थी, जो पूरी दुनिया में चर्चित हुई। उसी का एडाप्शन राजा कृष्ण मेनन ने किया है, जो इसके पहले एयरलिफ्ट जैसी फिल्म बना चुके हैं। राजा कृष्ण मेनन ने कॉमेडी की जगह फैमेली इमोशनल ड्रामा को जगह दी। सैफ अली खान ने इसमें वाकई अच्छा काम किया है।

कहानी को आधुनिक रूप देने के लिए महानगरीय परिवेश का सहारा लिया गया है और पति-पत्नी में अलगाव तथा बच्चों के पालन-पोषण का मुद्दा भी उठाया गया है। दिलचस्प है कि इस फिल्म में कोई खलनायक नहीं है। सभी पात्र अपने हिसाब से कहानी में योगदान देते जाते हैं और अनेक दिलचस्प प्रसंगों के बाद कहानी आगे बढ़ती जाती है। दक्षिण भारतीय फिल्मों की अभिनेत्री और नृत्यांगना पद्माप्रिया जानकीरमन ने सैफ अली खान की पत्नी की भूमिका गहराई से की है। उनके बेटे अरमान की भूमिका में स्वर कांबले जमे हैं। मिलिन्द सोमण ने मलियाली उद्योगपति की भूमिका स्वाभाविक तरीके से की है।

जिन लोगों को खाना बनाने, खिलाने और खाने का शौक है और जो लोग पारिवारिक रिश्तों की गहराई के महत्व को समझते है, उन्हें यह फिल्म पसंद आएगी। फिल्म देखने के बाद यह बात समझ में आ जाती है कि आप जिसे खाने का खोमचा, ठेला या रेहड़ी कहती है, वह वास्तव में किसी के सपनों का कार्य भी हो सकता है। दिल्ली के चांदनी चौक, अमृतसर, कोच्चि, गोवा और न्यूयॉर्क की लोकेशन अच्छे से दिखाई गई है। गीत-संगीत भी ठीक-ठाक ही है।

फिल्म देखनीय है।

 


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