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फिल्म समीक्षा:इत्तेफाक ही होगा अगर इत्तेफाक पसंद आए

पेज-थ्री            Nov 03, 2017


डॉ. प्रकाश हिन्दुस्तानी।
रेड चिलीस, धर्मा प्रोडक्शन्स और बीआर स्टुडियो ने मिलकर इत्तेफाक बनाई है। बीआर चोपड़ा के पोते अभय चोपड़ा ने निर्देशन किया है। इतने इत्तेफाक के बाद भी अगर यह फिल्म पसंद आए, तो यह इत्तेफाक ही होगा। 1969 में आई राजेश खन्ना और नंदा की इत्तेफाक की कहानी बताई जा रही है, लेकिन इसमें और भी ट्विस्ट जोड़ दिए गए हैं। पुलिस पर पड़ रहे दबाव और अपराधी को सजा दिलाने के बजाय मामला सुलटाने का प्रयास इस फिल्म में दिखाया गया है। अपराधी कभी किस्मत से बच जाता है, कभी झूठ से और कभी इत्तेफाक से। सिद्धार्थ मल्होत्रा और सोनाक्षी सिन्हा की यह फिल्म जरूर है, लेकिन बाजी मार ले गए अक्षय खन्ना।

हत्या के मामले में फंसा लेखक विक्रम सेठी उर्फ सिद्धार्थ मल्होत्रा हत्या के बाद भागने की कोशिश में दुर्घटनाग्रस्त हो जाता है और फिर ऐसे नए-नए इत्तेफाक जुड़ते जाते हैं, जो इत्तेफाक होते नहीं। यह महज इत्तेफाक ही है कि फिल्म का हत्यारा हीरो विक्रम सेठी है, विक्रम सेठ नहीं। हत्या का कारण प्रेम त्रिकोण और अत्यधिक महत्वाकांक्षाएं ही होता है, यह बात भी इस फिल्म में दिखाई गई है। फिल्म में कानून के लंबे हाथों को मलता हुआ देखना ठीक नहीं लगता। पुलिस की जांच प्रक्रिया देखकर लगता है कि जितने लोग जेल में होते हैं, उनमें से अधिकतर निर्दोष ही होते हैं।

मुंबई, डबल मर्डर मिस्ट्री, पुलिस की जांच, पुलिस पर जल्दी केस डायरी जमा करने का दबाव, चालाक अपराधी, बेवफा पत्नी, महत्वाकांक्षी लेखक और प्रकाशक, मुंबई की बारिश, अपराध और अपराधी के सबूत, फोरेंसिक जांच, पुलिस के लॉकअप और इंट्रोगेशन यहीं सब इस फिल्म में है। राजेश खन्ना की इत्तेफाक में भी कोई गाना नहीं था, इसमें भी गाना नहीं है। बड़े-बड़े नामों से अपेक्षा हो जाती थी, वह इसमें पूरी नहीं हो पाती, क्योंकि फिल्म कई बार बांध नहीं पाती।

पुलिस की पूछताछ में हर अपराधी सच्ची बात नहीं बताता। वह किस्से-कहानी बताने लगता है और कई बार वे किस्से सच्चा घटनाक्रम लगते हैं। इस फिल्म में भी अलग-अलग पक्षों की बात और फ्लेशबैक में वे दृश्य दिखाए गए है, जो विश्वस्त लगते हैं। इसके पहले तलवार फिल्म में भी इस तरह के प्रयोग हो चुके हैं। अच्छी बात यह है कि इस फिल्म में अपराधी को महिमामंडित नहीं किया गया है। फिल्म में पात्र को धूर्त और चालाक दिखाया गया है, लेकिन सुपर हीरो नहीं। वास्तव में सुपरहीरो होते ही नहीं।

फिल्म महानगरीय दर्शकों के लिए बनी है। कई बातें इशारों-इशारों में भी कही गई है। कॉमेडी के नाम पर पुलिस का फूहड़ मजाक दिखाया गया है। करीब पौने दो घंटे की फिल्म कुछ लोगों को पसंद आ सकती है।

 



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