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राजनीति और धर्म का मिलाजुला नशा समाज पर हावी हो रहा है

राजनीति            May 18, 2019


राकेश दुबे।
चुनाव के नतीजे 23 मई को आयेंगे, धर्मगुरुओं के दर और धार्मिक स्थानों की यात्रा के कार्यक्रम बनने लगे है। देश के वर्तमान माहौल में 1843 में हेगेल की ‘लिखी गई किताब एलीमेंट्स ऑफ दि फिलॉस्फी ऑफ दि राइट’ और उसकी आलोचना याद आती है। सन्दर्भ थोड़े बदले हैं, प्रक्रिया वही है।

इस की किताब की भूमिका में कार्ल मार्क्स ने लिखा था: धर्म दमित प्राणियों की आह, हृदयहीन दुनिया का हृदय और आत्माहीनों की आत्मा है। यह लोगों के लिए अफीम है।

2019 के चुनाव कुछ इसी तर्ज पर हुए सरकार बनाने के फेर में ह्रदयहीन हिंसा, बे मतलब घटिया आत्मा की चीरते ताने और दमित मतदाता की आह साफ़ दिख रही है। कई जगह से टोने-टोटके, गंडे -तावीज और हवन यज्ञ के समाचार भी मिले हैं।

सरकार बनाने की भूख ने देश की राजनीति में आपसी भाईचारा नष्ट हुआ है। सरकार किसी की भी बने सता की यह दौड़ बेहद त्रासद है, परिणाम नागरिकों का बंटवारा है। मत्था -टेक राजनीति का दूसरा दौर देश नतीजों के बाद देखेगा।

अगर इसे यूँ भी कहा जाये तो गलत नहीं होगा चुनाव अब भ्रमजाल खड़ा कर जनता के दुखों को कम करने का राजनीतिक हथकंडा मात्र रह गये हैं। हेगेल राज्य को पृथ्वी पर ईश्वर का प्रतिनिधि मानते थे। अब अपनी कब्र में यह देखते हुए करवट ले रहे होंगे कि किस तरह से उनके विचारों ने भारत में आकार लिया है।

धर्म अब एक खतरनाक प्रक्रिया में तब्दील हो रहा है जो देश को तबाह करने की धमकी तक दे देता है। कोई श्राप की बात कहता है तो कोई 15 मिनिट पुलिस हटाने की। पता नहीं देश में लोग “धर्म से राजनीति” करने की जगह राजनीति के लिए धर्म का इस्तेमाल करने से बाज़ नहीं आ रहे है।

मतदाता अब भारतीय नागरिक की जगह अपनी जाति, धर्म और सम्प्रदाय से पहचाना जा रहा है। इसे हवा भी खूब दी गई है जिसकी आंच कई बरसों तक रहेगी।

ऐसा धर्मों के भीतर वोटों के ठेकेदारों के प्रसार की वजह से हुआ। धार्मिकता में उपासना को छोड़ वोट बैंक स्थापित किये गये और किये जा रहे हैं। जो सत्ता को चुनौती देने और ब्लेकमेल करने का प्रयास करते थे और कर रहे हैं।

सभी प्रमुख धर्मों में इस तरह के ठेकेदारों का उभार हुआ है जो अपने ही धर्म पर हावी होकर राजनीतिक दलों के प्रिय पात्र बन जाते हैं। राजनीति द्वारा इनका उपयोग प्रजातंत्र के लिए खतरनाक है। राजनीति और धर्म का मिलाजुला नशा समाज पर हावी हो रहा है।

धर्मगुरू अलग-अलग तरह से राजनीतिक दलों की सिफारिश करते हैं , लेकिन एक बात सभी में समान है कि सभी धर्म गुरुओं का अपने श्रद्धालुओं और भक्तों पर मंत्रमुग्ध कर देने वाला नियंत्रण है।

उन्हें जो बात आपस में अलग करती है, वह उनके अनुयायियों की संख्या है और वे अजीबोगरीब मांगें हैं जो अपने अनुयायियों की निष्ठा की जांच के लिए वे उनके सामने रखते हैं। इसमें मतदान भी शामिल है इसलिए नेता वोटों के रूप में उनका आशीर्वाद हासिल करने के लिए उनकी शरण में जाते हैं।

तब ये धर्मगुरू अपनी शक्ति को साबित करने के बदले अपने या अपने चहेतों के लिए टिकट या अन्य लाभ दिलाने के सौदे करते हैं।

अब सवाल यह है कि इस नशे से मुक्ति कैसे मिले ? समाज को संचालित करने के लिए राज्य सत्ता की जरूरत है। इसी राज्य सत्ता का औजार सरकार होती है। राज्य सता पर किसका और कैसे अंकुश रहे।

निरपेक्ष समझी जाने वाली धर्म सत्ता ने तो राज सत्ता के साथ जुगलबंदी कर ली है। ये जुगलबंदी समाज सत्ता को महत्व नहीं देती। इस गठजोड़ को तोड़ने के लिए समाज को ही कुछ करना होगा।

 



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