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शीर्ष की तलाश में जुटे बड़े-छोटे राजनीतिक दल

राजनीति            Jun 08, 2019


राकेश दुबे।
पूर्व हाकी खिलाड़ी असलम शेर खान ने कांग्रेस की कमान संभालने की पेशकश की है, कांग्रेस गाँधी परिवार से इतर कोई नाम ही नहीं खोजा पाई है।

ठीक ऐसा तो नहीं, पर इससे थोडा अलग संकट भाजपा के सामने है उसे भी भाजपा के लिए भी तो एक अध्यक्ष चाहिए।

यह अध्यक्ष ऐसा हो जो प्रधानमंत्री के साथ जुगलबंदी कर सकता हो, अमित शाह की ताल से ताल मिला सकता हो और जरूरत होने पर संघ के आदेश पर कदमताल भी कर सकता हो।

पहले कांग्रेस राहुल गांधी के कांग्रेस अध्यक्ष पद से इस्तीफा वापस लेने से इनकार के बाद पार्टी के नए अध्यक्ष की तलाश तेज हो गई है। असलम शेर खान ने अपनी सेवा इस पद हेतु देने की पेशकश की है।

असलम शेर खान भी कांग्रेस की उस पीढ़ी के नुमईन्दे है जिसने आज़ादी के लिए तो संघर्ष नहीं किया, पर विशेष नेता की मर्जी पर कांग्रेस का झंडा कुछ साल में बुलंद कर संसद में हाजिरी लगाई है।

वैसे गांधी परिवार ने यह भी साफ किया है कि प्रियंका गांधी भी अध्यक्ष नहीं बनेंगी। राहुल गांधी ने पिछली कार्यसमिति की बैठक में यह भी साफ कर दिया था कि इसमें प्रियंका गांधी को ना घसीटा जाए, वहीं सोनिया गांधी अपने स्वास्थ्य को लेकर पहले ही पार्टी में अपनी सक्रियता कम कर चुकी हैं।

ऐसे में कांग्रेस के बड़े सूत्रों की मानें तो कांग्रेस का अगला अध्यक्ष गैर गांधी होगा और अगले दो महीने में नया अध्यक्ष चुन लिया जाएगा।

अब कांग्रेस में वैसे नामों पर विचार किया जा रहा है जिस पर गांधी परिवार की भी मूक सहमति हो और वह बाकी कांग्रेस के वरिष्ठ नेताओं को स्वीकार्य हो। तो क्या कांग्रेस का अगला अध्यक्ष महाराष्ट्र से बनाया जा सकता है?

अब भाजपा में तो कोई भी असलम शेर खान की तरह स्वत: दायित्व लेने को तैयार नहीं है। वहां सर्वप्रिय व्यक्ति नजर से ओझल है। कौन किस लाबी से है और उसका तालमेल भाजपा और संघ के साथ कैसे बैठेगा यह एक प्रश्न है।

जैसे कि पूर्वानुमान था,चुनाव परिणाम आने के बाद देश की राजनीति में बड़े परिवर्तन देखने को मिले हैं और आगे भी मिलेंगे।

देश के सबसे बड़े राज्य उत्तर प्रदेश में चुनाव पूर्व बना समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी का महागठबंधन टूट गया। चुनाव से पहले बेमेल की एकजुटता का राग अलापने वाले दलों के इस गठबंधन की नियति यही थी।

हालांकि, साझा गठबंधन की हार का ठीकरा समाजवादी पार्टी के माथे फोड़ते हुए गठबंधन से अलग होने का निर्णय बसपा ने एकतरफा लिया है। बहुजन समाज पार्टी सुप्रीमो का यह निर्णय दर्शाता है कि विपक्ष की राजनीति समाज में होनेवाले परिवर्तन के मूल मुद्दों और विचारों से भटक गयी है।

विचारधारा की अस्पष्टता और दृष्टिकोण में असमानता के साथ जब राजनीतिक गठबंधन सिर्फ सत्ता के अवसरवाद में बनते हैं, तो उनका स्वाभाविक हश्र कुछ इसी तरह का होता है।

सपा के वर्तमान अध्यक्ष पर भी आरोप है कि उन्होंने उसे संकीर्ण राजनीति का रूप देकर अपने दल का भी नुकसान किया है। डॉ लोहिया के विचारों का तो सबसे बड़ा नुकसान तो हुआ ही है।

यह भी सच है कि राजनीति को केवल किसी एक व्यक्ति या परिवार के सत्ता हितों का साधन बनाकर एक उपकरण की तरह इस्तेमाल करने की इजाजत अब देश की जनता देने वाली नहीं है। अध्यक्ष चुने या राजनीति करें, हमें महात्मा गांधी के सदाचार के उस ताबीज को याद करना चाहिए, जो उन्होंने देश को दिशा देते हुए की ‘सत्तर साल पहले दिया था , ‘जब भी कोई निर्णय लो, तो समाज के अंतिम व्यक्ति का भला कैसे हो सकता है, ये सोच कर निर्णय करो.’

 



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