अमित शाह भोपाल में नई जमीन तोड़ेंगे या पुरानी सुरंग में रास्ता खोजेंगे?

राजनीति            May 04, 2018


हेमंत पाल।     
भारतीय जनता पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह आज 4 मई को भोपाल दौरे पर हैं। उनकी इस यात्रा का मूल मकसद पार्टी के नए प्रदेश अध्यक्ष राकेश सिंह को पार्टी की नई जिम्मेदारियों के लिए लोकार्पित करना है।

ये पहली बार है कि पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष ने किसी प्रदेश अध्यक्ष के लिए ये रास्ता चुना है। राष्ट्रीय अध्यक्ष के साथ बैठक के लिए पार्टी के जिले से लगाकर मंडल तक के छोटे-बड़े पदाधिकरियों को बुलाया गया है!

ये कवायद इसलिए, ताकि पार्टी में ये संदेश जाए कि राकेश सिंह पार्टी के शिखर नेतृत्व की पसंद हैं और वे प्रदेश में अमित शाह की प्रतिछाया की तरह काम करेंगे। लेकिन, किसी की प्रतिछाया बनने और उनकी कार्यशैली का अनुसरण करने में फर्क होता है।

शायद इसी अंतर को मिटाने के लिए ये कोशिशें की जा रही है। पार्टी ने राकेश सिंह के कंधे पर चुनाव की बहुत बड़ी जिम्मेदारी सौंपी है। ये उनकी काबलियत की अग्नि-परीक्षा भी है। लेकिन, अपने चयन को सही साबित करने के लिए राकेश सिंह को पुरानी 'तोता संस्कृति' से बाहर निकलकर कुछ कड़े फैसले करना होंगे! यदि उन्होंने सभी को 'एडजस्ट' करने की कोशिश की, तो इसका खामियाजा भी उन्हें ही भुगतना पड़ेगा। उन्हें उस कार्य-संस्कृति में ढलना होगा, जिसमें व्यक्ति पूजा से ज्यादा पार्टी हित सर्वोपरि होता है।  
           

भारतीय जनता पार्टी ने राकेश सिंह को मध्यप्रदेश में अपना नया अध्यक्ष बना दिया! लेकिन, दो सप्ताह बाद भी सतह पर कोई हलचल दिखाई नहीं दे रही! उनके नाम पर आसमान में जो उत्साह का गुलाल उड़ा था, वो भी अब बैठ गया। राजनीति के प्रकांड पंडित भी ये स्पष्ट नहीं कर पाए कि नंदकुमार सिंह चौहान को हटाने से क्या बदलाव आएगा?

पार्टी में नई चमक भरने में राकेश सिंह कैसे कामयाब होंगे? इस तरह के उहापोह भरे माहौल में नए अध्यक्ष ने पुरानी टीम को ही बेहतर बताकर इस बात को और उलझा दिया! क्या फिर माना जाए कि खराबी सिर्फ पुराने अध्यक्ष में ही थी? उन्हें हटाकर नए चेहरे को उनकी कुर्सी देने से क्या फर्क पड़ेगा, ये कहीं भी स्पष्ट नहीं हुआ! राकेश सिंह क्या अटल बिहारी बाजपेई, लालकृष्ण आडवाणी या नरेंद्र मोदी तो हैं नहीं, जिनके आने भर से शीर्षासन कर रही पार्टी खड़ी हो जाएगी!

राकेश सिंह के पास न तो जादू की छड़ी है, जो उनके आते ही सबकुछ संभल जाएगा। न उनके पास पारसमणि है, जिसके छूते ही पार्टी का हर पत्थर सोना बनकर चमकने लगेगा! वे महाकौशल से हैं, पर उन्हें पूरे महाकौशल की भी ठीक जानकारी नहीं है।

ऐसे में 230 सीटों वाले मध्यप्रदेश को आने वाले 6 महीने में वे कैसे नाप और परख लेंगे और उन असली हीरों को तलाश लेंगे, जो भाजपा को फिर सरकार बनाने लायक बहुमत दिला सकें!

राकेश सिंह को चाहिए कि वे अपने स्वागत में बिछे फूलों की खुशबू के बीच पार्टी की उस सड़ांध को भी पहचानें, जो अगले विधानसभा चुनाव में उनके लिए चुनौती बनेगी! तालियों की गड़गड़ाहट और सुगंधित फूलों के हारों से मिली क्षणिक ख़ुशी से ज्यादा बेहतर होगा कि पार्टी के अक्कड़खानों और कलफ से कड़क होते अहम् से सराबोर चेहरों को किनारे धकेलकर उन लोगों को आगे लाएं जो ईमानदारी से पार्टी की सेवा में लगे हैं।

जिन नाकारा और नाकाबिल लोगों को संगठन और जिलों की जिम्मेदारी सौंपी गई है उनके काम का मूल्यांकन भी नए अध्यक्ष को करना होगा। उनकी बैठकों का हिसाब-किताब लेना होगा और उनसे सवाल करना होंगे कि संगठन से जुडी जिले की समस्याओं का उनके पास क्या हल है? क्योंकि, जिले का अध्यक्ष ही ये सच जानता हैं कि उसके इलाके से कौन फिर जीत सकेगा और कौन चुनाव में उतारने के लायक नहीं है!

चुनाव के इस दौर में यही ईमानदारी भाजपा को फिर सत्ता में लाने में कारगर होगी। इस मामले में जरा सी भी बेईमानी पार्टी हित में भारी साबित हो सकती है।

चुनाव को नजदीक देख कुछ पदाधिकारी संगठन से भागने लगे हैं। उनका तर्क है कि चुनाव से पहले हमें अपने क्षेत्र को देखना है, इसलिए उन्हें संगठन  कामकाज से मुक्त किया जाए! उनसे पलट सवाल किया जा सकता है कि फिर वे संगठन में काम करने के लिए राजी क्यों हुए? पार्टी के नए अध्यक्ष को चाहिए कि ऐसे लोगों को चुनाव लड़ने से रोककर संगठन में सक्रिय करें। पूर्व अध्यक्ष नंदकुमार चौहान ने ऐसे पलायनवादी नेताओं को संगठन में पद ही क्यों दिया, जिनकी प्रतिबद्धताएं संगठन के अलावा कुछ और हैं।

दरअसल, नंदकुमार सिंह चौहान पूरी तरह 'तोता संस्कृति' में रचे-बसे अध्यक्ष थे। वे वही करते और बोलते थे, जो उन्हें कहा जाता था। वे अपने पूरे कार्यकाल में हर वक़्त मुख्यमंत्री के सामने फर्शी सलाम करते रहे। लेकिन, जब उन पर तलवार गिरी, तो कोई उन्हें बचाने नहीं आया!

भाजपा के किसी निर्वाचित अध्यक्ष को हटाया जाना आश्चर्यजनक घटना है, पर ये भविष्य के लिए संकेत भी है कि पद पर टिकता वही है जो नतीजे देने में सक्षम होता है।

ये वो घटना है जिससे राकेश सिंह को सबक लेना होगा और अपनी एक अलग पहचान बनाना होगी! क्योंकि, नाकारापन की स्थिति में ये फैसला दोहराया भी जा सकता है।  

पार्टी ने कार्यकर्ताओं को चार्ज करने के लिए नई बैटरी जरूर लगा दी! पर, इससे पार्टी में नई ऊर्जा का संचार होगा या घना अँधेरा छाएगा, ये देखना अभी बाकी है।

राकेश सिंह नई जमीन पर संगठन नई संरचना बनाएंगे या फिर उसी अँधेरी सुरंग में पार्टी को ले जाएंगे, जिसकी भयावहता को भांपा जा रहा है। यदि उन्हें अपने चयन को सही साबित करना है, तो जंग खाए पुराने नट-बोल्ट तो बदलना ही होंगे! ऐसा नहीं किया गया तो वे भी इतिहास के उसी कूड़ेदान में फेंक दिए जाएंगे जहाँ अक्षम, नाकारा और असफल चेहरों का ढेर लगा है।

वे पुराने पत्तों से कोई नया खेल नहीं खेल सकते! यदि कोई चमत्कार करना चाहते हैं तो पार्टी को नए सपने दिखाने होंगे और उसके लिए योजनाबद्ध तरीके से काम भी करना होगा! कार्यकर्ताओं के सामने 'जीत' की उम्मीद जगाना होगी। टीम-लीडर की तरह उनमें जोश भरकर उन्हें सियासी जंग के लिए तैयार करना होगा!

अन्यथा वे मैली चदरिया को उजली नहीं कर सकेंगे! दुनिया जानती है कि मैली चदरिया ओढ़कर सियासी रण में प्रतिद्वंदी को परास्त करना आसान नहीं है। वो भी ऐसे प्रतिद्वंदी को जिसके खिलाफ चलाने के लिए पार्टी के पास कोई तेज धार वाला हथियार नहीं है। जो हथियार हैं, वो भोथरे हो चुके हैं। उनसे  सियासत का संघर्ष नहीं जीता जा सकता!          

पार्टी ने ये बदलाव किसी बड़ी उम्मीद से किया गया है। राकेश सिंह के लिए ये चुनौती भी है और भविष्य के लिए रास्ता भी! बेहतर हो कि वे संकोच और शर्मा-शर्मी में अपना राजनीतिक कॅरियर दांव पर न लगने दें! उन्हें प्रदेश में अपने विश्वासपात्रों और पार्टी के प्रति वफादारों की एक ऐसी टीम भी खड़ी करना होगी जो सही कहने, करने के अलावा सही बात बताने का भी साहस रखती हो!

पुरानी टीम को बदलकर जब तक नया कलेवर नहीं दिया जाता, आने वाले विधानसभा चुनाव में किसी चमत्कार का दावा नहीं किया जा सकेगा! क्योंकि, प्रतिद्वंदी पार्टी में एकजुटता नजर आ रही है और उसने भी नए चेहरे पर दांव खेला है!   

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और राजनीतिक विश्लेषक हैं)
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