उम्मीवारों के टोटे के साथ सत्ता वापसी के सपने:भाग—2

खास खबर, राजनीति, राज्य            Mar 24, 2018


अरविंद तिवारी।
सत्ता में वापसी का सपना देख रही कांग्रेस की मध्यप्रदेश में हालत क्या हैं, इसका अंदाज इसी बात से लगाया जा सकता है कि जिस खंडवा संसदीय क्षेत्र से नंदकुमार सिंह चौहान जैसे कद्दावर नेता को हराकर प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष अरुण यादव 2009 में सांसद बने थे, उसके ज्यादातर विधानसभा क्षेत्रों में कांग्रेस के पास सम्मानजनक लड़ाई लड़ने वाले उम्मीदवारों का ही टोटा है।

इनमें से तीन क्षेत्र तो ऐसे हैं जहां दावेदारों की सूची भी 2-3 से आगे नहीं बढ़ पा रही है। खंडवा और बुरहानपुर दोनों जिलों में कांग्रेस के मजबूत स्तंभ ढह चुके हैं। इसका कारण यह है कि पहले सांसद बनने और फिर संगठन की कमान अपने हाथ में आने के बाद यादव ने यहां क्षत्रपों को नेस्तनाबूत कर दिया और जिन लोगों को आगे लाए वे कांग्रेस के लिए असरकारक नहीं रहे।

2014 में इन्हीं कारणों के चलते यादव को इस क्षेत्र में करारी शिकस्त खाना पड़ी थी।
खंडवा जिले की हरसूद सीट पर 1985 के बाद कांग्रेस ने कभी जीत का मुंह नहीं देखा। 1990 से विजय शाह यहां से लगातार चुनाव जीत रहे हैं। कांग्रेस का कोई भी स्थानीय नेता तो उनसे पार पा ही नहीं सकता है।

2013 में पार्टी ने यह सोचकर कि कोई बड़ा आदिवासी नेता ही शाह से पार पा सकता है, धार के पूर्व सांसद सूरजभानु सोलंकी को हरसूद से टिकट दिया था। सोलंकी की स्थिति स्थानीय नेताओं से भी बदतर रही। वे यहां के कई पोलिंग बूथों पर एजेंट ही नहीं बैठा पाए। उनपर शाह से सांठगांठ के आरोप भी लगे।

हालत यह थी कि मतदान के पांच-सात दिन पहले ही सोलंकी अपने आपको जीता हुआ मानने लगे थे और स्थानीय कार्यकर्ताओं से यह कहते हुए दूरी बनाने लगे थे कि अब तो मुझे ट्रायबल लीडर के रूप में प्रदेश की कमान संभालना है। मगर जब नतीजा आया तब वे चारों खाने चित दिखे। इसके पहले 2003 और 2008 में प्रेमलता कासगे विजय शाह के सामने मैदान में थीं। उन्हें भी शाह ने एक तरह से साध ही लिया था। यहां इस बार कांग्रेस के दावेदार ही सामने नहीं आ पा रहे हैं, क्योंकि यह कांग्रेसी भी मानते हैं कि शाह के दांव-पेंच के सामने चुनाव लड़ना आसान नहीं है।

हां, यह जरूर हो सकता है कि टिकट लिया जाए और बाद में शाह से सांठगांठ कर अगले पांच साल का आर्थिक दारिद्र दूर कर लिया जाए। शाह यहां के 70 से ज्यादा बूथों पर ऐसा खेल खेलते हैं कि बाकी बूथों पर कुछ ऊंच-नीच भी हो जाए तो उसकी खानापूर्ति यहां से हो जाती है।

इस बार शाह अपने बेटे को भी मैदान में ला सकते हैं, लेकिन कांग्रेस में तो उनसे मुकाबला करने के लिए अभी तक कोई नाम सामने ही नहीं आ पा रहा है। जो एक दो स्थानीय नाम चर्चा में हैं, उनसे नतीजा बदलना तो दूर सम्मानजनक मुकाबले की स्थिति भी बनती नहीं दिखती।
खंडवा सीट से कांग्रेस के टिकट के दावेदार चार-पांच हैं, पर वर्तमान विधायक देवेन्द्र वर्मा के आगे सब फीके हैं। वर्मा क्षेत्र में तो सक्रिय रहते ही हैं और सहज व सरल भी हैं।

यहां के दावेदारों में पंधाना के पूर्व विधायक और दिग्विजय मंत्रिमंडल में कैबिनेट मंत्री रहे हीरालाल सिलावट के बेटे यशवंत सिलावट, कुंदन मालवीय, रणधीर कैथवास, ओमप्रकाश आर्य, राजकुमार कैथवास के नाम हैं। इन सबके और वर्तमान विधायक के बीच जमीन आसमान की दूरी है। स्थानीय दावेदारों के दम पर तो यहां कांग्रेस की नैया पार लगती नहीं दिखती।

एक चर्चा यह भी है कि कांग्रेस यहां से इंदौर के अनुसूचित जाति के किसी कद्दावर नेता को मैदान में लाए, ताकि कुछ संभावना बन सके। इस सीट पर कांग्रेस लगातार शिकस्त खा रही है। पंधाना सीट पर चाहे वर्तमान विधायक योगिता बोरकर चुनाव लड़ें या कोई ओर नेता, कांग्रेस छाया मोरे और रूपाली बारे जैसे स्थानीय दावेदारों के दम पर तो मुकाबले में कहीं टिक नहीं पाएगी। यहां भी दावेदारों का ही टोटा है।

बैतूल से लोकसभा चुनाव हारे अजय शाह की निगाहें भी इस सीट पर है। वे अरुण यादव के भी खासमखास हैं और आर्थिक समीकरणों पर भी नियंत्रण रखने की स्थिति में हैं। उनके मैदान में आने की स्थिति में ही कांग्रेस यहां के चुनावी रण को सम्मानजनक बना सकती है। मांधाता में कांग्रेस की स्थिति थोड़ी ठीकठाक है।

यहां के मामले में अरुण यादव की निगाहें घूम फिरकर नारायण पटेल पर ही आकर टिकती हैं, क्योंकि बाकी दावेदार जिले की राजनीति में उनसे दूरी बनाकर चलने वाले हैं। यहां से विधायक रहे राजनारायणसिंह पूरनी ने भी टिकट के लिए रात-दिन एक किए हुए हैं। वे मैं नहीं तो मेरा बेटा उत्तमपालसिंह की तर्ज पर मैदान संभाले हुए हैं। उनकी आस कमलनाथ और दिग्विजय सिंह जैसे कद्दावर नेताओं के भरोसे बंधी हुई है।

कभी कांग्रेस के गढ़ रहे बुरहानपुर में 1998 में कांग्रेस आखिरी बार उपचुनाव में जीती थी। पिछले दो चुनाव से यहां से अर्चना चिटनीस जीत रही हैं। इस बार भी वे ही भाजपा की ओर से मैदान में रहेंगी। कांग्रेस में इनसे मुकाबले की थोड़ी बहुत क्षमता सुरेंद्रसिंह ठाकुर यानि शेरा भैया में है, पर उन्हें अरुण यादव फूटी आंख पसंद नहीं करते हैं। यादव के खास अजय रघुवंशी पिछला चुनाव हारने के बाद इस बार फिर टिकट की आस लगाए बैठे हैं, पर वे लगभग पुराना नतीजा दोहराने की स्थिति में ही हैं।

यहां कांग्रेस की हालत का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि चिटनीस के मुकाबले में सम्मानजनक स्थिति में आने के लिए कांग्रेस का एक बड़ा वर्ग स्व. शिवकुमार सिंह की पत्नी किशोरीदेवी सिंह का नाम भी आगे बढ़ा चुका है, जिनका सक्रिय राजनीति से ज्यादा वास्ता नहीं रहा है। यूं तो यादव समर्थक किशोर महाजन भी आस लगाए बैठे हैं।

अल्पसंख्यक मतों की ठीकठाक स्थिति को देखते हुए यहां से एक बार विधायक रहे हमीद काजी और सलीम काटनवाला भी सक्रिय हैं। एक और नाम शाहपुर के पूर्व विधायक रवीन्द्र महाजन का भी है। चिटनीस जैसी वजनदार उम्मीदवार से पार पाना इन किसी के बूते की बात नहीं दिख रही। इस जिले की दूसरी सीट नेपानगर जो अनुसूचित जनजाति के लिए सुरक्षित है में तो कांग्रेस के पास दावेदारों का ही टोटा है।

यहां राजेंद्र दादू के निधन के बाद हुए उपचुनाव में कांग्रेस की जो दुर्गति हुई, उसके बाद तो कोई नेता आगे आने की हिम्मत ही नहीं जुटा पा रहा है। रामकिशन पटेल जैसे नेता दो चुनाव हारने के बाद अब मैदान संभालने का माद्दा रख भी पाएंगे या नहीं यह कोई कहने की स्थिति में नहीं है।

लेखक इंदौर प्रेस क्लब के अध्यक्ष हैं।

 



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