सत्ता के गलियारे में तीन तलाक़ और दुनिया का नजरिया

वामा            Jan 15, 2019


एकता शर्मा।
लोकसभा से पारित होने के बाद मुस्लिम पर्सनल लॉ का तीन तलाक से जुड़ा विधेयक अब राज्यसभा की दहलीज पर है। वहाँ इसका हश्र क्या होता है, ये कहा नहीं जा सकता! सरकार ने इस विधेयक में तीन तलाक देने को अपराध बना दिया गया है। इसका उल्लंघन करने पर तीन साल की कैद के साथ जुर्माने का भी प्रावधान है।

पीड़ित महिला अदालत से अपने भरण-पोषण का दावा भी कर सकती है। सुप्रीम कोर्ट ने तीन तलाक पर रोक लगा दी थी। सरकार का कहना है कि कानून के बगैर सुप्रीम कोर्ट का फैसला लागू करना मुश्किल है, इसलिए सरकार यह विधेयक लाई है।

भारत में रहने वाले सुन्नी मुसलमानों के बीच तीन-तलाक़ की बहस दसियों साल पुरानी है। इस्लाम में तलाक के तीन तरीके चलन में हैं। एक है तलाक-ए-अहसन। इसमें यदि यह जोड़ा चाहे तो भविष्य में शादी कर सकता है। इसलिए इस तलाक को अहसन (सर्वश्रेष्ठ) कहा जाता है।

दूसरे प्रकार की तलाक को तलाक-ए-हसन कहा जाता है। इसकी प्रक्रिया की तलाक-ए-अहसन की तरह है लेकिन इसमें शौहर अपनी बीवी को तीन अलग-अलग बार तलाक कहता है। इस प्रक्रिया में तीसरी बार तलाक कहने के तुरंत बाद वह अंतिम मान लिया जाता है।

इस्लाम के मुताबिक जो जोड़ा तीन बार के तलाक के बाद अलग हुआ है, उसे फिर शादी नहीं करनी चाहिए। लेकिन, हलाला की व्यवस्था इसका तोड़ निकालती है। तीसरी प्रकार की प्रक्रिया को 'तलाक-उल-बिदत' कहा जाता है। यहीं आकर तलाक की उस प्रक्रिया की बुराइयां साफ-साफ दिखने लगती हैं जिसमें शौहर एक बार में तीन तलाक कहकर बीवी को तलाक दे देता है।

'तलाक उल बिदत' के तहत शौहर तलाक के पहले ‘तीन बार’ शब्द लगा देता है या ‘मैं तुम्हें तलाक देता हूं’ को तीन बार दोहरा देता है। इसके बाद शादी टूट जाती है. इस तलाक को वापस नहीं लिया जा सकता।

तलाकशुदा जोड़ा 'हलाला' के बाद ही फिर शादी कर सकता है। इसमें आमतौर पर यह होता है कि तीसरे व्यक्ति के साथ एक आपसी समझ बनाई जाती है जो संबंधित महिला से शादी कर उसे तुरंत तलाक दे देता है। इसके बाद वह महिला अपने पहले शौहर से शादी कर सकती है।

डॉ ताहिर महमूद और डॉ सैफ महमूद इस्लामिक कानूनों से जुड़ी अपनी किताब में लिखते हैं कि तलाक के लिए लगातार तीन तूहर (जब मासिक चक्र न चल रहा हो) का कम के कम समय निर्धारित होता है। लेकिन, हर मामले में यह निश्चित नहीं है।

इन लेखकों ने अपनी बात के पक्ष में देवबंदी विद्वान अशरफ अली थानवी (1863-1943) की राय का हवाला दिया है। इसके अनुसार ‘कोई व्यक्ति एक बार तलाक कह देता है। उसके बाद वह बीवी से सुलह कर लेता है और दोनों फिर साथ रहने लगते हैं।

कुछ सालों के बाद किसी तरह के उकसावे में आकर वह दूसरी बार फिर से तलाक कह देता है। इसके बाद वह उकसावे को भूल जाता है और फिर से बीवी के साथ रहने लगता है। लेकिन उसके दो तलाक पूरे हो चुके हैं, इसके बाद वह जब भी तलाक कहता है तो वह अंतिम तलाक होता है। उसके बाद निकाह तुरंत खत्म हो जाता है।

इस मामले पर दुनिया में जिस तेजी से बदलाव आ रहा है, मुस्लिम धर्मावलम्बियों सहित एक तबके का नजरिया उसके खिलाफ है। मुद्दे की बात ये है कि करीब 22 मुस्लिम देश, जिनमें पाकिस्तान और बांग्लादेश भी शामिल हैं, अपने यहां तीन-तलाक की प्रथा खत्म कर चुके हैं। तुर्की और साइप्रस भी इसमें शामिल हैं, जिन्होंने धर्मनिरपेक्ष पारिवारिक कानूनों को अपना लिया।

ट्यूनीशिया, अल्जीरिया और मलेशिया के सारावाक प्रांत में कानून के बाहर किसी तलाक को मान्यता नहीं है। ईरान में शिया कानूनों के तहत तीन तलाक की कोई मान्यता नहीं है। यह अन्यायपूर्ण प्रथा इस समय भारत और दुनियाभर के सिर्फ सुन्नी मुसलमानों में बची है।

कहाँ से आया 'तीन-तलाक़'
मिस्र पहला देश था जिसने 1929 में इस विचार को कानूनी मान्यता दी। वहां कानून-25 के जरिए घोषणा की गई कि तलाक को तीन बार कहने पर भी उसे एक ही माना जाएगा और इसे वापस लिया जा सकता है। 1935 में सूडान ने भी कुछ और प्रावधानों के साथ यह कानून अपना लिया। आज ज्यादातर मुस्लिम देश ईराक से लेकर संयुक्त अरब अमीरात, जॉर्डन, कतर और इंडोनेशिया तक ने तीन तलाक के मुद्दे पर विचार कर रहे हैं।

ट्यूनीशिया में 1956 में बने कानून के मुताबिक वहां अदालत के बाहर तलाक को मान्यता नहीं है। ट्यूनीशिया में बकायदा पहले तलाक की वजहों की पड़ताल होती है। यदि जोड़े के बीच सुलह की कोई गुंजाइश न दिखे तभी तलाक को मान्यता मिलती है।

अल्जीरिया में भी करीब यही कानून है। वहीं तुर्की ने मुस्तफा कमाल अतातुर्क के नेतृत्व में 1926 में स्विस सिविल कोड अपना लिया था। इसके लागू होने का मतलब था कि शादी और तलाक से जुड़े इस्लामी कानून अपने आप ही हाशिये पर चले गए। हालांकि, 1990 के दशक में इसमें कुछ संशोधन जरूर हुए, लेकिन जबर्दस्ती की धार्मिक छाप से यह तब भी बचे रहे. बाद में साइप्रस ने भी तुर्की में लागू कानून प्रणाली अपना ली।

जहां तक भारत की बात है तो यहां तीन-तलाक की जड़ें आम जनमानस में काफी गहरी हैं। अनजाने में या पितृसत्तात्मक समाज के प्रभाव से यहां 'तीन तलाक' की यह प्रक्रिया सबसे प्रभावी बन गई। यहां तक कि कई मुसलमान यह भी मान लेते हैं कि इस्लाम में तलाक का यही एकमात्र तरीका है।

इसलिए गुस्से के क्षणों में कई लोग 'तीन तलाक' कहकर अपनी बीवी तो तलाक दे देते हैं और फिर इस फैसले पछताते हैं। क्योंकि, यह तलाक वापस नहीं लिया जा सकता और तलाकशुदा लोगों को फिर से आपस में शादी करनी है तो उन्हें 'हलाला' की व्यवस्था से गुजरना पड़ता है।


मैं औरत हूँ, औरत!
हव्वा की बेटी
आसमान से भेजी गई नूर की वो पाको मुक्कदस बूँद
जो बरसों से इस सरजमीं को सींचती चली आई है 'मैं औरत हूँ।'
मैंने ही प्यार के रंग-बिरंगे फूल खिलाकर इस दुनियाँ को जन्नत बनाया।
मैंने ही अपनी कोख से मर्द को जनम दिया, माँ बनकर उसको पाँव पर चलना सिखाया,
बहन बनकर उसके बालापन को चुलबुली कहानियाँ दीं!
महबूबा बनकर उसकी ज़िंदगी को रेशमी नगमों में ढाला तो शरीके हयात बनकर
अपनी जवानी के अनमोल मोती लुटाकर, उसके रात और दिन सजाए !
मैंने ही वक्त पड़ने पर कंधे से कंधा और क़दम से क़दम मिलाकर
कंटीली राहों में दोस्त बनकर उसका साथ दिया।
ये सब करते हुये अपना वजूद खोकर मैं 'औरत' नूर की वो बूँद उसमें पूरी की पूरी समा गई!
आज सदियाँ बीत जाने पर हर लम्हा मुझे यही सताया रहता है कि न जाने कब
अपनी ऊँचाई से मैं गिरा दी जाऊं!
कब किसी कोठे में ढकेल दी जाऊं!
कब जुएं में दांव पर लगा दी जाऊँ और अपनी पाकीजगी का सबूत देने के लिये
मुझे शोलों में झुलसना पड़े!
कब जनमते ही मार डाली जाऊँ, कब हवस के मीना बाज़ार में नीलाम कर दी जाऊँ!
कब निकाह कर अपनाई जाऊँ,कब तलाक़ देकर ठुकराई जाऊँ!
कब मेरी इज्ज़त, मेरी अस्मत का रखवाला मर्द मुझे ही बेआबरू कर डाले! क्योंकि 'मैं एक औरत हूँ।'
(फ़िल्म 'निकाह' में पैंटिंग के साथ कानों में पड़ने वाली पंक्तियाँ)

 



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