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जब फौजियों की कलाई पर बंधी डोरियाँ,और हरा हो गया आँखों का मौसम

वामा            Aug 15, 2017


 इंदौर से दिनेश दर्द।
शक न कर मेरी ख़ुश्क आँखों पर,यूँ भी आँसू बहाए जाते हैं। इस शेर के ज़रिए, शायर साग़र निज़ामी ने जैसे मेरे जज़्बात की तर्जुमानी कर दी हो। रक्षाबंधन पर इंदौर-उज्जैन मार्ग स्थित BSF की रवेती रेंज पर ऐसे ही कुछ हालात थे। दिल के समन्दर से बार-बार जज़्बात की मौजें उट्ठीं तो सही, मगर हर बार क्षितिज से ही लौट गईं। खुलकर सामने नहीं आईं। पता नहीं क्यों। ख़ैर, मौजों के क्षितिज से लौट जाने की वजह चाहे जो रही हो, लेकिन दिल में जज़्बात का समन्दर लहराने की वजह सिर्फ और सिर्फ एक ही थी, हमारे सैनिक।

दरअसल, हर बरस की तरह इस बरस भी ममता जी ऐन रक्षाबंधन के रोज़ अपने सैनिक भाइयों के बीच होना चाहती थीं। इस बार भी वो पहली राखी अपने सैनिक भाई की कलाई पर ही बाँधना चाहती थीं। इस प्रण में पवित्रता थी, समर्पण था। लिहाज़ा, ऐसा ही हुआ। वो भी घोर विपरीत परिस्थितियों के बीच। वास्तव में ममता जी अपनी कुल जमा पूँजी, यानी कि अपनी माँ को उज्जैन के एक अस्पताल में लगभग अचेत अवस्था में ICU में छोड़कर आईं थीं। वो भी परिवार को बिना बताए। क्योंकि ममता जी का मानना था कि माँ के गहन चिकित्सा इकाई में होने के बावज़ूद अपने सैनिक भाइयों को लेकर जो जज़्बा उनके मन में है, शायद परिवार वाले इसका ठीक-ठीक अंदाज़ा न लगा पाएँ। लिहाज़ा, वो उन्हें कुछ और बहुत ही ज़रूरी काम होने का बहाना बनाकर दौड़ी आईं और दौड़े आए हम भी उनके साथ-साथ। क्योंकि हम इस पवित्र यज्ञ में आहुति देने का अवसर चूकना नहीं चाहते थे। आखिर, BSF से अनुमति-पत्र मिलने के बाद से ही हम इस रोज़ का बेसब्री से इंतेज़ार जो कर रहे थे।

पहुँचे, तो जैसे सचमुच ही किसी यज्ञस्थल पर पहुँच गए हों। पवित्रता की बारिश और अनुशासन की महक से लबरेज़ उस परिक्षेत्र की हर चीज़ हमें सम्मोहित कर रही थी। सियाह सड़क, शादाब दरख़्त, रंग-बिरंगे फूल, तर्तीब से जमी हर चीज़, दूर तक शादाबी की शॉल ओढ़े घास, यहाँ तक कि टार्गेट पर निशाना साधे सफ़बंद लेटे फौजी भी। और तो और, पहाड़ियों से घिरे परिक्षेत्र में रुक-रुककर गूँजती गोलियों की गड़गड़ाहटों के बीच भी यहाँ-वहाँ मयूरों का बेलौस नर्तन। कितना चित्ताकर्षक लग रहा था ये सब। इन्हीं सब के बीच, निर्देशित करती एक आवाज़ ने हमें तमाम रास्तों और बिखरी हुई पगडंडियों में से एक पगडंडी के ज़रिए परिक्षेत्र स्थित भगवान शिव के आँगन तक पहुँचा दिया। यह भी एक संयोग ही था कि श्रावण सोमवार और अचानक शिव के आँगन में हमारा होना।

कुछ देर बाद ही वादी का एक हिस्सा जब गोलियों की गड़गड़ाहटों से शांत हुआ, तब टार्गेट की ओर से लौटते कुछ क़दमों की आहटें फ़ज़ा में फैल गईं। साथ ही कुछ सरगोशियाँ भी। धीरे-धीरे ये सरगोशियाँ कुछ आवाज़ों में तब्दील हुईं और फिर कुछ और नज़दीक आने पर इन्हीं आवाज़ों में से एक आवाज़ हमसे मुख़ातिब हुई। और फिर कुछ देर बाद हम बड़े-से सीमेंटेड ओटले से घिरे तने वाले घने दरख़्त के नीचे थे। धीरे-धीरे फौजी भाइयों की तादाद भी बढ़ती रही। शायद 65-70 तक पहुँची होगी। इसके बाद परिचय की अनौपचारिक-सी औपचारिकता के बाद एक सैन्य अधिकारी ने बताया कि, ''फौज में सेवा दे रहे हर भाई के नसीब में रक्षाबंधन की छुट्टी नहीं होती, और जिनके नसीब में होती है, वो छुट्टी मनाने घर चले गए। मगर ऐन रक्षाबंधन के रोज़ ही आपने हमारी कलाइयों पर राखी बाँधने का सोचकर, हमें अपने ही परिवार में होने का एहसास करा दिया। ये अपनापन, ये प्यारा-सा एहसास और ये दिन हम फौजी भाई कभी नहीं भूल सकते।''

इसके बाद ममता जी के साथ समूह में मौजूद बहनों हिमानी, विद्या और उज्जवला, सभी ने मिलकर अपने एक-एक फौजी भाई के मस्तक पर मंगल तिलक खींचा, राखी बाँधी, आरती उतारी और एक-दूसरे को मिठाई खिलाई। इस बीच कई बार ऐसे हालात हुए कि कई फौजी भाई जज़्बाती हो गए। ये जज़्बात उनकी बातों और उनकी भाव-भंगिमाओं से साफ झलक रहे थे। और कुछ के जज़्बात की शिद्दत उनकी आँखें ज़ियादा साफ़ बयाँ कर रही थीं। मगर कुछ आँखें ऐसी भी होती हैं, जिन आँखों का मौसम तो ख़ुश्क होता है, मगर उनके दिल में बहुत नमी रहती है। ये बात अलग है कि वो दिल के रम्ज़ (संकेत) आँखों तक पहुँचने नहीं देते। इन सबके बीच मेरी भी आँखों का मौसम कई बार हरा हुआ। जब बात खुली, तो दिल और भर गया कि ममता जी के अलावा इन सब बहनों ने भी पहले अपने फौजी भाइयों को राखी बाँधी, उसके बाद घर पर मौजूद अपने सगे भाइयों को। इस बात से ये बात भी ज़ेहन में आई, कि कुछ बहनें भी दीन-धरम, नाते-रिश्तों से ऊपर अपने देश और देश के रखवालों को रखती हैं।

यहाँ तक कि इन बहनों के लिए वहाँ से लौटना भी भारी पड़ रहा था, जहाँ कुछ देर पहले ही इन बहनों ने उन कलाइयों पर राखी बाँधी थी, जिन कलाइयों से वो आज से पहले कभी मानूस (परिचित) नहीं थीं। मगर अनुशासन के उस आँगन में अपने भइयों को छोड़कर लौट रही इन बहनों की तकलीफ़ साफ बता रही थी, कि शायद उनके लिए आज से पहले भी ये कलाइयाँ कभी ना-मानूस नही थीं। मानूस ही थीं। परिचय आज हुआ है बस। रक्षाबंधन के दिन।

 



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