24 जुलाई:कुंवर चैन सिंह शहादत दिवस, अंग्रेजों के खिलाफ सशस्त्र विद्राह की नींव रखी गई सी​होर में

वीथिका            Jul 23, 2017


   रघुवर दयाल गोहिया।

मध्यप्रदेश के सीहोर में लड़ी गई थी आजादी की पहली लड़ाई, मालवा की हल्दी घाटी भी कहते हैं लोग।  ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ देशभर में आजादी के मतवालों की जांबाजी और शहादत की कई कहानियां हमें रोमांचित करती हैं। इनमें से एक कहानी नरसिंहगढ़ रियासत के राजकुंवर चैन सिंह की भी है, जो 24 जुलाई 1824 को अंग्रेजी शासन के अधीन सेना से लड़ते हुए अपने 40 से अधिक जांबाज साथियों के साथ शहीद हो गए थे। उस दिन दशहरा मैदान की भूमि शहीदों के रक्त से लाल हो गई थी। इस स्थान को लोग मालवा की हल्दी घाटी भी कहते हैं।

इतिहास में दर्ज है कि नगर के इंदौर नाका के समीप स्थित दशहरा वाले मैदान में आज से करीब 193 साल पहले सन 1824 में 24 जुलाई को अंग्रेज सेना के साथ कुंवर चैन सिंह और उनके साथियों का भीषण संघर्ष हुआ था। अपनी अंतिम सांस रहने तक कुंवर चैन सिंह बहादुरी के साथ अंग्रेज परस्त सेना के साथ लड़ते लड़ते शहीद हुए थे। उनके साथ उनके जांबाज सैनिक हिम्मत खां और बहादुर खां भी शहीद हुए थे।

कुंवर चैन सिंह को मध्य भारत में अंग्रेजों की बढती हुई ताकत बिलकुल भी नहीं सुहाती थी। वह हमेशा अंग्रेजों का विरोध करते थे। अंग्रेजों की कुटिल नजर नरसिंहगढ़ रियासत पर भी थी। इस रियासत को अपने कब्जे में करने के लिए उन्होंने लालच देकर रियासत के मंत्री आनंद राव बख्शी तथा दीवान रूपराम बोहरा को अपने साथ मिला लिया था। इसी दौरान इंदौर में होलकरों द्वारा देशी रजवाड़ों की एक गुप्त बैठक ब्रिटिश शासकों के खिलाफ बुलाई गई। इस बैठक में कुंवर चैन सिंह भी शामिल हुए।

इसका खुलासा होने पर चैन सिंह ने रियासत के साथ गद्दारी करने वाले दीवान रूपराम बोहरा पर शक किया। इसके अलावा अंग्रेजों के अधीनस्थ आने वाले राज्यों पर लगने वाले टैक्स (खीरणी) से बचने के लिए दीवान रूपराम बोहरा के नाम 40 गांव लिख दिए थे। इस कारण वह इनका मुख्त्यार बन गया था और जो सनद लिखी गई थी उसे वापस लौटा नहीं रहा था। इसके चलते ही चैन सिंह ने रूपराम बोहरा की हत्या करवा दी। बाद में रूपराम बोहरा के परिजनों ने इसकी जानकारी ब्रिटिश सरकार के तत्कालीन पोलिटिकल एजेंट मि. मेडाक को दे दी।

सीहोर में स्थापित शहीद कुंवर चैन सिंह की छत्री और उनके साथी हिम्मत खां, बहादुर खां की कब्र


इस मामले पर सफाई देने के लिए चैन सिंह को सीहोर बुलवाया गया था। पोलिटिकल एजेंट मि. मेडाक ने चैन सिंह के सामने तीन शर्त रखी थीं। इसमें पहली शर्त यह थी कि रियासत का पूरा कार्य ब्रिटिश सरकार की निगरानी में किया जाय, दूसरी शर्त थी कि छेत्र की अफीम की कमाई का राजस्व दिया जाय और तीसरी शर्त थी कि चैनसिंह आगामी तीन साल के लिए काशी वास पर चले जाएं। अन्यथा उनके खिलाफ हत्या का मुकदमा चलाया जाएगा। इन तीनों शर्तों को चैन सिंह ने मानने से इनकार कर दिया।

21 दिसंबर 1817 को मल्हार राव होलकर द्वितीय और अंग्रेजों के बीच महिदपुर में युद्ध हुआ था| इस युद्ध में नरसिंहगढ़ रियासत के राजकुमार कुंअर चैन सिंह ने भी अपने सिपाहियों के साथ अंग्रेजों के खिलाफ युद्ध किया था। युद्ध में मल्हार राव की पराजय हुई थी और उन्हें अंग्रेजों से संधि करने को विवश होना पड़ा था। यह संधि 16 दिन बाद 6 जनवरी 1818 को मंदसौर में हुई थी। इतिहास में इसे मंदसौर संधि के नाम से जाना जाता है। इस अवसर पर कुंवर चैन सिंह की भी अंग्रेजों से संधि हुई थी। महिदपुर युद्ध में कुंअर चैन सिंह द्वारा मल्हार राव होलकर द्वितीय का साथ देना और अंग्रेजों के विरुद्ध महिदपुर में युद्ध करना काफी अखर रहा था और वह तभी से अंग्रेजों की आंख की किरकिरी बने हुए थे।

राजगढ़ गजेटियर, वेस्टर्न स्टेट गजेटियर और चारण बंधु द्वारा लिखी गई पुस्तक के अनुसार 24 जुलाई 1824 को तत्कालीन नरसिंहगढ़ रियासत के शासक महाराजा सौभाग्य सिंह के पुत्र राजकुमार व कार्यकारी प्रमुख कुंवर चैन सिंह सीहोर जिला मुख्यालय पर अपने कैंप में थे। इसी दिन अंग्रेजी हुकूमत के पोलिटिकल एजेंट मि. मेडाक और कप्तान जानसन से उनकी मुलाक़ात हुई थी| तब उनसे राज्य की व्यवस्था अंग्रेजी हुकूमत को सौंपने और पेंशन लेकर काशी या दिल्ली में रहने को कहा गया था। तभी कुंवर चैन सिंह समझ गए थे कि अंग्रेजों की नियत में खोट है और अब युद्ध करना ही एक मात्र विकल्प है।

इस प्रकार कुंवर चैन सिंह ने अपने विश्वस्त साथी हिम्मत खां, बहादुर खां और विभिन्न जाति, धर्मों के करीब 150-200 देशभक्तों के साथ अंग्रेजों से वीरता पूर्वक सशस्त्र युद्ध करते हुए अपने प्राणों की आहुति दे दी। यह अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ सशस्त्र विद्रोह के इतिहास की बुनियाद है जिसे बहुत कम लोग जानते हैं।

 



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