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समृद्ध बुंदेलखंड की संभावना:ऐसे कबऊं मुकद्दर हुईयें,सबरे दूर दलुद्दर हुईयें

खास खबर, वीथिका            Aug 02, 2019


विजयदत्त श्रीधर।

उत्तरप्रदेश और मध्यप्रदेश के बीच विभक्त बुन्देलखण्ड का इकजाई स्वरूप जब भारत के नक्शे में निहारते हैं, तब ऐसा प्रतीत होता है, जैसे राष्ट्र की नस-नाड़ियों को पुष्ट करता हुआ, हृदय धड़क रहा है। मन को यह बात चुभती है कि सर्वतोमुखी संभावनाओं से भरपूर यह भू-भाग आखिर एक राज्य के रूप में अस्तित्व में क्यों नहीं है?

इस दुर्लक्ष्य का एक ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य भी है। फिरंगियों ने क्रांति-भूमि बंगाल के दो टुकड़े किए। उससे भी पहले शौर्य-भूमि बुन्देलखण्ड के टुकड़े-टुकड़े कर डाले। आखिर, स्वतंत्रता संग्राम की चिंगारी यहीं तो दावानल बनकर फूटी थी।

आजादी के समय से ही बुन्देलखण्ड राज्य के निर्माण की माँग न केवल उठती रही है, बल्कि इसके पक्ष में स्वीकारोक्तियाँ भी प्रकट होती रही हैं। परन्तु जब भी फैसले की घड़ी आई, नतीजा बुन्देलखण्ड के पक्ष में नहीं आया।

यह बुन्देलखण्ड और बुन्देलखण्ड-वासियों की अवहेलना है। अवमानना है। कदाचित इसका एक कारण यह भी हो सकता है कि पृथक राज्य के रूप मेें बुन्देलखण्ड को साकार करने के पक्ष में वह समवेत हुँकार नहीं उठी, जिसकी उम्मीद सुभट बुन्देलों से की जाती है।

राजशाही के दौर में राज्यों और साम्राज्यों का निर्माण तलबारों के जोर पर हुआ करता था। लोकतांत्रिक समाज में इसके लिए एकजुट बहुमत और प्रचण्ड आंदोलन की जरूरत होती है। बुन्देलखण्ड के साथ न्याय करने के लिए दिल्ली शायद इसी का इंतजार कर रही है!

पृथक तेलंगाना राज्य के लिए उठी माँग और आन्दोलन के नेता श्री रामुलु की दुखद मृत्यु के बाद भारत में भाषावार प्रान्तों की संरचना का निर्णय हुआ। (यद्यपि तेलंगाना राज्य तब भी नहीं बन पाया, अभी पाँच साल पहले बना।) राज्य पुनर्गठन आयोग बनाया गया। नये राज्य के गठन के लिए चार मानक निर्धारित किए गए।

 

(1) भौगोलिक एकता
(2) भाषाई और सांस्कृतिक एकता
(3) प्रशासनिक सुगमता
(4) आर्थिक सक्षमता

इन चारों कसौटियों पर बुन्देलखण्ड राज्य की संभावना का अध्ययन करें, तब हम पाते हैं कि ‘बुन्देलखण्ड राज्य’ अपने आप में एक भरपूर संभावना है, जिसे साकार होना है।

भौगोलिक एकता

भौगोलिक एकता को समझने के लिए यहाँ की पृष्ठभूमि पर विचार जरूरी है। एक दोहा प्रचलित है-

इत यमुना, उत नर्मदा, इत चम्बल, उत टौंस।
छत्रसाल सों लरन की, रही न काहू हौस।।

अर्थात यमुना और नर्मदा तथा चम्बल और टौंस (तमस) नदी से घिरे भू-भाग में किसी में महाराज छत्रसाल बुन्देला से लड़ने का हौसला नहीं रहा। प्रकारान्तर से यह उनके शौर्य की सीमा है।

विन्ध्य पर्वत मालाओं के बीच स्थित इस क्षेत्र की चर्चा बुन्देलों के शासनकाल के बाद से ज्यादा होती है। यहाँ दस प्रमुख नदियों की जलधाराएँ प्रवाहित होने से इसे ‘दशार्ण’ भी कहा जाता है।प्राचीन काल में इसके जो अन्य नाम मिलते हैं, उनमें पुलिन्द देश, चेदि, जिजौति, जैजाकभुक्ति, मध्य देश प्रमुख हैं। एक और दोहा भी इस सिलसिले में पढ़ा जाता है -

भैंस बँधी है ओरछा, पड़ा हुशंगाबाद।
लगवइया हैं सागरे चपिया रेवा पार।।

बुन्देलखण्ड की प्राचीन राजनीतिक एवं सांस्कृतिक इकाई जैजाकभुक्ति की सीमाओं का सही प्रस्तुतीकरण इन्हीं गिरि कवि ने राम मनोहर ग्रन्थ में इस तरह किया है-

पूरब तीरथराजपुन, पश्चिम श्रीब्रजवास।
उत्तर गंग जमुन अवध, दक्षिण रेवा खास।।

यह नदी घाटी सभ्यता का क्षेत्र है जो मुख्यतः वनाच्छादित था। प्राचीन काल में देश के तीन बड़े प्राचीन वन प्रान्तों-नैमिषारण्य, तुंगारण्य तथा दण्डकारण्य में से यह भूभाग तुंगारण्य के अंतर्गत आता था जिसकी सीमाएँ ओरछा से चित्रकूट तक जाती थीं। वहाँ से दण्डकारण्य प्रारम्भ हो जाता था।

इस वन-प्रान्तर में वनवासी जातियाँ-पुलिन्द, शबर, कोल, भील, गोंड, निषाद आदि निवास करती थीं। अनेक ऋषियों-पराशर, वेदव्यास, कर्दम, च्यवन, जमदग्नि तथा अत्रि आदि के आश्रम थे।

इस क्षेत्र में पाये गए सहस्त्राधिक शैलाश्रयों, पाषाणयुगीन उपकरणों तथा आयुधों से इन वासिन्दों की जीवनशैली तथा संस्कृति की जानकारी मिलती है।

इस अंचल की पुरातनता वैदिककाल से जुड़ी है। ऋग्वेद (८.५.३७-३९) में चेदि के शक्तिशाली राजा वसु की दानस्तुति भी मिलती है। महाभारत तथा बौद्ध ग्रंथों में चेदि राष्ट्र (चेदिरट्ठ) का उल्लेख मिलता है।

रामायण में इसका उल्लेख ‘दशार्ण’ तथा ‘दक्षिण कोशल’ के अंतर्गत मिलता है। भगवान राम के वनवास की चौदह वर्षों की अवधि में लगभग साढ़े बारह वर्ष इसी अंचल में बीते थे, जिसमें अधिकांश चित्रकूट गिरि में। इस संदर्भ में महाकवि रहीम ने एक सुंदर दोहा रचा है -

चित्रकूट में रम रहे रहिमन अवध नरेश।
जा पर विपदा परत है सो आवत यहि देश।।

 

यह क्षेत्र मौर्य वंश, शुंग वंश, वकाटक वंश, गुप्त वंश, वर्द्धन साम्राज्य, चंदेल वंश, मरहठों तथा अँगरेजों द्वारा शासित रहा। इसी अंचल के चन्देलों तथा बुन्देलों ने विशेष विकास किया तथा सुदूर भागों तक सत्ता का विस्तार कर यशोपताका फहराई।

चंदेलों की सबसे बड़ी देन है इस पर्वतीय और वन प्रदेश में नगरीय स्थापन, नागर-व्यवस्थाओं का विस्तार, कृषि-विकास, सिंचाई साधनों के रूप में बड़े जलाशयों का निर्माण, दुर्ग, महलों और देवालयों का निर्माण।

चन्देलकालीन जलाशय बुन्देलखण्ड में सिंचाई के साधन हैं। बुन्देलों ने भी इसी शैली में ‘बरवा सागर’ जैसे विशाल तालाब बनवाए। चन्देलों के शासन काल में स्थापत्य-कला तथा संस्कृति खूब फली-फूली। इसमें मूर्तिकला का परिष्कृत स्वरूप मिलता है।

आल्हा-ऊदल जैसे वीर इसी चंदेल सेना के योद्धा थे। ओरछा तथा दतिया के महलों में बुन्देली वास्तु दर्शनीय है।

सन 1857 की क्रान्ति में बुन्देलों की एकता तथा संघर्षशीलता देखकर अँगरेजों ने बुन्देलखण्ड को चार भागों में बाँटने का षड्यंत्र रचा।

1866 ई. में कुछ रियासतों को ‘युनाइटेड प्राविंसिज’, कुछ को सेन्ट्रल प्राविंसिज, कुछ को सिन्धिया राज्य तथा बाकी को ‘पोलिटिकल एजेन्ट’ के अधीन रखा। एजेन्सी का मुख्यालय पहले कालपी तथा बाद में नौगाँव छावनी में बनाया गया।

उप प्रधानमंत्री सरदार वल्लभ भाई पटेल ने, गृह मंत्रालय के अधीन देशी राज्यों के एकीकरण के लिए ‘रियासती विभाग’ गठित कर दिया। राजाओं को प्रिवीपर्स तथा विशेषाधिकार देकर सभी देशी राज्यों का विलय, एक सहमति पत्र दिनाँक 12 मार्च 1948 को लिखकर, ‘संयुक्त राज्य विन्ध्य प्रदेश’ में करने की सहमति ले ली।

इस पर 35 रियासतों के राजाओं अथवा उनके प्रतिनिधियों ने हस्ताक्षर किए। इस नवनिर्मित राज्य की दो इकाइयाँ ‘बुन्देलखण्ड’ तथा ‘बघेलखण्ड’ बनाई गईं।

बघेलखण्ड का मुख्यालय रीवा में, पाँच रियासतों को राज्य प्रमुख रीवा नरेश के अधीन रखा गया।

बुन्देलखण्ड का मुख्यालय नौगाँव छावनी में तथा मुख्यमंत्री कामता प्रसाद सक्सेना को बनाया गया। इसमें तीस रियासतें शामिल की गईं।

इस सहमति पत्र की प्रस्तावना में स्वीकार किया गया कि इस क्षेत्र के निवासियों का हित एक ऐसे राज्य की स्थापना के द्वारा ही हो सकता है जो इन राज्यों को मिलाकर गठित हो तथा उसकी एक विधायिका, एक कार्यपालिका तथा एक न्यायपालिका हो।

सहमति पत्र की मंशा के अनुसार व्यवस्था न होने पर 20 दिसम्बर 1948 को पुनः एक विलय संधि (मर्जर एग्रीमेन्ट एण्ड स्पेशल प्रिविलेेजेज आफ रूलर्स) लिखी गई जिसके द्वारा ये सभी राज्य 1 जनवरी 1950 से ‘विन्ध्य प्रदेश’ नामक नये राज्य के अधीन कर दिए गए।

भारतीय संविधान लागू होने के ठीक पूर्व ‘विंध्य प्रदेश’ में से नौ रियासतों को निकालकर उत्तरप्रदेश में मिला दिया गया। 1953 में प्रथम राज्य पुनर्गठन आयोग बना। आयोग ने बुन्देलखण्ड राज्य स्वीकार नहीं किया।

विन्ध्य प्रदेश वाले राज्यों को नवगठित मध्यप्रदेश राज्य में सम्मिलित करके दतिया, छतरपुर, टीकमगढ़, पन्ना, दमोह तथा सागर जिलों में समायोजित किया गया। उत्तरप्रदेशीय बुन्देलखण्ड के जिले हैं - झाँसी, ललितपुर, जालौन, महोबा, हमीरपुर, बांदा और चित्रकूट।

जनपदीय अध्ययन के अधिकारी विद्वान डा. वासुदेव शरण अग्रवाल के अनुसार बुन्देलखण्ड एक सांस्कृतिक-भौगोलिक इकाई है। इसी आधार पर अनेक विद्वान कुछ अन्य जिलों की निम्नांकित तहसीलों को भी बुन्देलखण्ड का हिस्सा मानते हैं।

ये हैं - शिवपुरी जिले की पिछोर, करैरा, गुना जिले की मुंगावली, अशोकनगर की अशोकनगर, विदिशा जिले की विदिशा, कुरवाई, बसौदा, होशंगाबाद जिले की होशंगाबाद, सुहागपुर तथा जबलपुर जिले की जबलपुर तथा पाटन।

बुन्देलखण्ड मुक्ति मोर्चा ने इस पूरे भूभाग का मानचित्र बनाकर राज्य निर्माण का आन्दोलन चलाया।

भाषायी एकता

बुन्देलखण्ड क्षेत्र के सभी जिलों में बुन्देली भाषा बोली जाती है। उसके क्षेत्रीय रूप, बोलियाँ, व्याकरण तथा समृद्ध लोक-साहित्य और बुन्देली भाषा साहित्य की अविरल परम्परा है। सागर विश्वविद्यालय ने बुन्देली पीठ गठित करके इस दिशा में अच्छा कार्य किया है।

सांस्कृतिक एकता

रीति-रिवाज, परम्पराएँ, लोकनृत्य-संगीत-नाटक, लोकदेवता, लोकपर्व, लोकसभ्यता आदि की यहाँ समानधर्मी विशेषताएँ हैं। यह अंचल प्राचीन काल से कलात्मक हस्तशिल्प के उत्पादन का केन्द्र रहा है। चंदेरी की साड़ियाँ, श्रीनगर तथा ललितपुर की पीतल की मूर्तियाँ, चित्रकूट तथा श्योपुर के लकड़ी के खिलौने, गौरा पत्थर की मूर्तियाँ, प्रकृति-चित्रित शज्जर पत्थर के आभूषण, मौदहा की चाँदी की मछली, सुमेरपुर की नागरा जूती, कालपी के कालीन, हस्तनिर्मित कागज इस दृष्टि से महत्वपूर्ण हैं।

आर्थिक सक्षमता

आर्थिक दृष्टि से बुन्देलखण्ड सक्षम है। खनिज, वन सम्पदा, जलस्रोत, कृषि भूमि, पर्यटन स्थल, मत्स्य-प्रजातियाँ, उद्योगों का कच्चा माल, सस्ती श्रमशक्ति तथा विद्युत-उत्पादन के स्रोत यहाँ पर्याप्त मात्रा में मौजूद हैं।

खनिज सम्पदा की दृष्टि से इस अंचल में हीरा, राक-फास्फेट, चूना, सिलिका सैन्ड, ग्रेनाइट, गौरा पत्थर, बलुआ पत्थर, सफेद चिकनी मिट्टी, जिप्सम, ग्लेकोनाइट, गैरिक लौह अयस्क, एल्यूमीनियम अयस्क हैं।

नवीनतम भूगर्भ संरक्षणों में ताँबा, निकिल, टिन, टंगस्टन, चाँदी, लैड, सोना तथा अधिकतम रेडियोधर्मिता युक्त ग्रेनाइट चट्टानें जिनमें यूरेनियम की मात्रा तीस ग्राम प्रति टन तक बताई गई है।

हीरा उत्पादन में बुन्देलखण्ड का पन्ना क्षेत्र विश्व के प्रमुख स्थानों में है। बाँदा तथा समीपवर्ती क्षेत्र में केन नदी में प्रकृति द्वारा निर्मित चित्रित ‘शजर’ पत्थर विश्व में दुर्लभ है, जिसके आभूषणों की विदेशों, विशेषकर अरब देशों, में भारी माँग है।

प्राचीन काल से ही विंध्य पर्वत शृंखलाएँ, विशेषकर चित्रकूट क्षेत्र, दुर्लभ वनौषधियों के लिए चर्चित है। इनमें अर्जुन, अरंड, बहेड़ा, नीम, अमलतास, सर्पगंधा, अडसा, सौनाय, मुलैठी, लटजीरा, धतूरा, आँवला, गुवार, चिरायता, गिलोय, गोखरू तथा चिरौंजी की प्रचुर मात्रा उपलब्ध है।

एक दर्जन से अधिक जल धाराएँ प्रवाहित हैं। इनमें यमुना, नर्मदा, चम्बल, सिन्ध, धसान, बेतवा, चम्बल, टौंस, पयस्विनी, केन आदि प्रमुख हैं। जालौन जनपद में पहूज के तटवर्ती क्षेत्र में पाँच सौ से अधिक पातालतोड़ कुएँ हैं, जिनका उत्सर्जित जल व्यर्थ जा रहा है।

इन नदी तथा नदिकाओं में जल की विपुलता है किन्तु समुचित दोहन की आवश्यकता है। यहाँ की भौगोलिक संरचना में बृहत् जलाशय बनाकर उनका संरक्षण करना उपयुक्त है। जालौन, भिण्ड तथा इटावा की सीमा पर स्थित ‘पंचनदा’ वह दुर्लभ स्थल है, जहाँ यमुना पाँच नदियों का जल समेट कर जब आगे बढ़ती है तो इलाहाबाद पहुँचते-पहुँचते यमुना में गंगा नदी से अधिक पानी होता है।

भूसंरचना के आधार पर बुन्देलखण्ड को मटियार क्षेत्र, ग्रेनेटिक क्षेत्र तथा पठारी क्षेत्र में बाँटा गया है। मटियार क्षेत्र में अनेक स्थानों पर विलुप्त तथा अदृश्य जलधाराएँ हैं। इनमें मऊ मटौंध, अतर्रा तथा गोपालपुरा (जालौन) क्षेत्र हैं जो वर्तमान नदियों के जलीय सातत्य में हैं।

ग्रेनेटिक क्षेत्र में भौमजल अधिकतर शैलसंधियों तथा कन्दराओं में है। पठारी क्षेत्र में भौम जल का विशाल भण्डार विरोहन लाइम स्टोन संस्तर के नीचे है।

अब पर्यटन बहुआयामी हो गया है, यथा (1) ऐतिहासिक-पुरातात्विक एवं सांस्कृतिक स्थल (2) स्वतंत्रता संग्राम से जुड़े स्थल (3) धार्मिक स्थल (4) प्राकृतिक स्थल (5) अभयारण्य एवं बिहार (6) नौकायन (7) संग्रहालय।

बुन्देलखण्ड को पर्यटन की दृष्टि से व्यावसायिक क्षेत्र बनाने की अपार सम्भावनाएँ हैं। यहाँ विश्व विरासत के रूप में ‘खजुराहो’ तथा ‘ओरछा’ घोषित हैं। कालिंजर का दावा है। कोंच की रामलीला भी विश्व विरासत घोषित है।

देवगढ़, अजयगढ़, महोबा, चरखारी, झाँसी, चन्देरी, कालपी, भीमबैठिका, चित्रकूट, बिजोर, बांगाट तथा बेतवा नदी के तट पर स्थित चित्रित शैलाश्रय, जरायमठ, बुन्देली स्थापत्य के रूप में दतिया तथा ओरछा के महल, अनेक स्थलों पर मूर्तियों के विशाल-भण्डार हैं।

चित्रकूट, सोनागिरि, पावागिरि जैसे धार्मिक एवं सुरम्य प्रपात युक्त स्थल हैं। ललितपुर जिले में अनेक चित्रित गुफाएँ प्रकाश में आई हैं। यहाँ के अनेक महल तथा दुर्ग सैन्य विज्ञान की दृष्टि से अध्ययन के विषय हैं।

उपर्युक्त सभी तथ्यों के अध्ययन-मनन से यह आधार परिपुष्ट होता है कि पृथक बुन्देलखण्ड राज्य हर दृष्टि से औचित्यपूर्ण है।

इस भरपूर संभावना का साकार होना बुन्देलखण्ड के विकास की नई इबारत लिखेगा। दो करोड़ बुन्देलखण्ड वासियों की अपेक्षा और आकांक्षा को पूरा करेगा। उपेक्षा के अंधकार से प्रगति के प्रकाश की ओर तेजी से कदम बढ़ाने वाला होगा।

बुन्देलखण्ड को सरकारों में कितना उपेक्षित और महत्वहीन माना जाता है उसका एक ज्वलंत उदाहरण महाकवि केशव शोध केन्द्र है। तत्कालीन मुख्यमंत्री अर्जुन सिंह ने 12 अप्रैल 1981 को ओरछा में महाकवि केशव शोध केन्द्र की स्थापना की घोषणा की थी।

यह भी घोषित किया गया कि जुलाई 1983 से शोध केन्द्र कार्यरत हो जाएगा। इसका क्षेत्राधिकार तब अवधेश प्रताप सिंह विश्वविद्यालय रीवा था। कुछ समय ओरछा में महाकवि केशव शोध केन्द्र नाम की तखती लटकी भी रही। परंतु कभी इसमें काम-धाम नहीं हुआ।

इस केन्द्र को रीवा ले जाया गया और वहाँ बराएनाम बनाए रखा गया। काम कुछ भी नहीं हुआ। जब केन्द्र को ओरछा में ही कार्यरत करने की माँग उठी तब उच्च शिक्षा विभाग ने केन्द्र के स्थानांतरण का शासन-आदेश जारी किया।

इसी आधार पर रीवा विश्वविद्यालय के कुलसचिव ने ओरछा स्थानांतरण का आदेश निकाल दिया। परंतु इन आदेशों पर आज तक अमल नहीं हुआ।

अब जब छतरपुर में महाराजा छत्रसाल विश्वविद्यालय की स्थापना हो चुकी है तब इसके अधिकार क्षेत्र में महाकवि केशव शोध केन्द्र ओरछा में कार्यरत हो जाना चाहिए। रीवा में उसका कोई औचित्य नहीं है। यहाँ हमें बुन्देली के लोकप्रिय कवि महेश कटारे की दो पंक्तियाँ याद आती हैं -

 

ऐसे कबऊं मुकद्दर हुईयें,
सबरे दूर दलुद्दर हुईयें हैं।
इस पहेली का जवाब हम भी ढूँढ रहे हैं।

संस्थापक-संयोजक
माधवराव सप्रे स्मृति समाचारपत्र संग्रहालय एवं शोध संस्थान
माधवराव सप्रे मार्ग, मुख्य मार्ग क्र. 3, भोपाल (म.प्र.) 462 003
मो. 09425011467

 



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