तो राज्यपालों की तरह मुख्यमंत्री भी नियुक्त किए जाते और उनके तबादले भी होते

खास खबर, वीथिका            Sep 25, 2018


डॉ.राम विद्रोही।
एक नवम्बर 1956 को चार राज्यों के विलय से अस्तित्व में आए मध्यप्रदेश की करीब आधी सदी की यात्रा राजनीतिक रूप से काफी उथल पुथल भरी और संघर्ष पूर्ण रही है। प्रदेश के पहले मुख्यमंत्री पंडित रविशंकर शुक्ल ने एक नवम्बर 1956 में प्रदेश की बागडोर सम्भाली थी पर दुर्भाग्य से वह केवल दो महीने ही मुख्य मंत्री रह सके और 31 दिसम्बर 1956 को उनका निधन हो गया। नए मप्र का गठन मध्यभारत, विन्ध्य प्रदेश महाकौशल तथा भोपाल राज्य का एकीकरण करके किया गया था।

इस लिए अगले मुख्य मंत्री के लिए कई दावेदार थे। सब से ज्यादा दावेदार मध्यभारत और महाकौशल क्षेत्र के नेता थे। भोपाल राज्य के मुख्य मंत्री रहे डॉ. शंकर दयाल शर्मा भी मुख्य मंत्री के दावेदारों में थे लेकिन सब से ज्यादा दावेदार पूर्व मध्यभारत प्रदेश के ही थे।

आजादी के तत्काल बाद से ही मध्यभारत में कांग्रेस के नेताओं में सत्ता के लिए स्वान युद्ध शुरू हो गया था।

मप्र के पहले मुख्य मंत्री पंडित रविशंकर शुक्ल के निधन के बाद मप्र में सत्ता का संघर्ष इतना तीव्र हो गया कि कोई किसी भी नेता के नाम पर सहमत ही नहीं हो रहा था। कांग्रेस के नेताओं में सत्ता के लिए मचे स्वान युद्ध की खबरें दिल्ली तक भी पहुंच रहीं थीं जिनसे प्रधान मंत्री जवाहर लाल नेहरू बेहद नाराज चल रहे थे।

फिर भी मप्र में सर्वसम्मत नेता के नाम पर प्रयास जारी रहे पर इस का कोई नतीजा नहीं निकला और सत्ता का संघर्ष विधान सभा से निकल कर सडक तक आ गया। शुक्ल के निधन के बाद भगवन्त राव मण्डोई को मप्र का कार्य वाहक मुख्य मंत्री बनाया गया था जो 30 जनवरी 1957 तक मुख्य मंत्री रहे।

मप्र के नेताओं में सत्ता की होड थमने का नाम ही नहीं ले रही थी तो प्रधान मंत्री जवाहर लाल नेहरू ने मप्र के मुख्य मंत्री के लिए एक ऐसा निर्णय किया जो लोकतंत्र के इतिहास में अनोखा और अजूबा था। कल्पना करें कि नेहरू जी का यह राजनीतिक प्रयोग यदि सफल हो गया होता तो भारतीय लोकतंत्र अपने शैशव काल में ही अजूबा बन जाता और राज्यपालों की तरह मुख्य मंत्री बदले जाते।

मप्र का नेता मेघालय या मिजोरम का मुख्य मुख्य मंत्री बनाया जा सकता था। मप्र के नेताओं की सत्ता लोलुपता से तंग आ कर नेहरू जी ने इलाहाबाद के बैरीस्टर और केन्द्र में कुछ समय तक मंत्री रहे डॉ. कैलाश नाथ काटजु को मप्र का मुख्य मंत्री नियुक्त कर भोपाल भेज दिया।

नेहरू जी के इस फैसले से सभी हत्प्रभ थे पर किसी में उनके सामने कुछ भी कहने का साहस नहीं था। काटजु बैरीस्टर होने के साथ साथ कानून में पीएच डी भी थे और इलाहाबाद में ही वकालात करते थे। कश्मीरी और इलाहाबाद के होने के कारण काटजु के नेहरू जी से उनके पारिवारिक रिश्ते थे। काटजु ने 31 जनवरी 1957 में मप्र के दूसरे मुख्य मंत्री के रूप में शपथ ली और अविभाजित मप्र के वह पूरे पांच साल तक मुख्य मंत्री रहे। काटजु मप्र विधान सभा के सदस्य नहीं थे इस लिए उन्होंने मध्यभारत की जाबरा विधान सभा सीट से उप चुनाव लडा और चुनाव जीतने के बाद 15 अप्रेल 1957 को दुबारा मुख्य मंत्री पद की शपथ ली तथा अपने मंत्रिमण्डल का गठन किया।

मुख्य मंत्री के तौर पर काटजु के तानाशाही व्यवहार से विपक्ष तो आक्रोशित रहता ही था, उनकी सरकार के मंत्री और कांग्रेस विधायक भी अपने को काफी अपमानित महसूस करते थे। नेहरू परिवार के साथ अपनी नजदीकी के चलते काटजु किसी की सुनते ही नहीं थे। विपक्ष की नाराजी की सब से बडी वजह तो यही थी कि मप्र के मुख्य मंत्री को सुनाई नहीं देता था। कान में मशीन लगाने के बाद ही वह सुन सकते थे, उनकी दृष्टि भी काफी कमजोर थी और आंखों पर मोटे ग्लास का चश्मा चढा रहता था। विधान सभा सत्र में जब विपक्ष अपनी बात रखता था तो काटजु अपने कान की मशीन निकाल रख देते थे।

इसी तरह उनसे मिलने आने वाले जनप्रतिनिधियों के सामने भी वह कान से मशीन निकाल लेते थे। स्वभाविक है कि ऐसे में विपक्ष अथवा उनसे मिलने आए लोग उनसे क्या कहना चाहते थे उसे सुनना मुख्य मंत्रीे जरूरी नहीं समझते थे। काटजु के इस अलोकतांत्रिक और तानाशाही व्यवहार के कारण काटजु हमेशा विपक्ष के निशाने पर रहे। विधान सभा के अन्दर और बाहर भी उन्हें हमेशा राजनीतिक मुश्किलों का सामना करना पडता था।

पांच साल बाद जब 1962 में आम चुनाव हुए तो काटजु विधान सभा का चुनाव हार गए। काटजु का चुनाव हार जाना नेहरू जी के प्रयोग के लिए एक झटका था। वह काटजु से भी बेहद नाराज थे जो मुख्य मंत्री रहते विधान सभा का चुनाव नहीं जीत सके।

एक तरह से देखा जाए तो काटजु का चुनाव हार जाना भारतीय लोकतंत्र की सेहत के लिए अच्छा ही साबित हुआ। दूसरे किसी प्रदेश के व्यक्ति को मुख्य मंत्री बनाने का प्रयोग जनता ने खारिज कर के अपनी परिपक्वता का ही परिचय दिया था।

कल्पना करें कि यह राजनीतिक प्रयोग यदि सफल हो जाता तो किसी भी प्रदेश का व्यक्ति दूसरे राज्य का मुख्य मंत्री बना कर भेज दिया जाता। तब राज्यपालों की तरह मुख्य मंत्री भी नियुक्त किए जाते और उनके तबादले भी होते जो देश के लोकतंत्र का एक प्रहसन बन कर रह जाता। विधान सभा चुनाव में पराजित होने के साथ ही काटजु के राजनीतिक भविष्य की भी इति हो गई। नेहरू जी काटजु से इतने नाराज थे कि उन्हें किसी राज्य का राज्यपाल तक भी नियुक्त नहीं किया।

चुनाव में पराजित होने के बाद काटजु अपने गृह नगर इलाहाबाद चले गए, इस तरह मप्र की जनता को एक बाहरी मुख्य मंत्री से मुक्ति मिल गई। कैलाश नाथ काटजु के चुनाव में पराजित होने के राजनीतिक कारण कुछ भी रहे हों पर कडवा सच यह भी है कि काटजु ने कभी भी अपने को मप्र और यहां की जनता के साथ एकाकार ही नहीं किया। प्रदेश को और यहां के लोगों को वह पराया ही समझते रहे। जनता की नाराजी का यह सब से बडा कारण भी रहा जिसे विपक्ष ने और ज्यादा हवा दी। उस समय मप्र विधान सभा में विपक्ष में सोशलिस्टों का बहुमत हुआ करता था।

 



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