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कुलपति के 'कुबोल' पर कविता,कहानी के कुनबे में कलह..

मीडिया, वीथिका            Jan 25, 2018


डॉ.राकेश पाठक।

लानत भेजता हूँ उनकी बातों पर

मुम्बई में हेमंत फाउंडेशन के सम्मान समारोह में एक विशिष्ट अतिथि डॉ विनोद टिबड़ेवाला के अनर्गल भाषण पर साहित्य की दुनिया के प्याले में तूफान आ गया है।

टिबड़ेवाला जेजेटी यूनिवर्सिटी के कुलपति हैं। उनके ही कॉलेज में आयोजन था। वे इस आयोजन में कुछ सहयोग करते हैं। वे समारोह में बतौर विशिष्ट अतिथि मंच पर थे।

सबसे अंत में उनका भाषण हुआ।शुरू से ही वे दुनिया जहान की बातें करने लगे और फिर सरकार की तारीफ। दलित विमर्श पर भी कुछ बोले। जैसे कि-- दलित दलित नहीं कहना चाहिये, अब सब बराबर हैं आदि आदि।

फिर उन्होंने ज्ञान बांटा कि साहित्यकारों को अपना चैनल, अख़बार शुरू करना चाहिए।
मेरे बगल में प्रसिद्ध साहित्यकार सूर्यबाला जी मंचासीन थीं जो कि अध्यक्षता कर रहीं थीं। मैंने तुरंत सूर्यबाला जी Suryabala Lal से कहा कि ये क्या बकवास कर रहे हैं..? वे भी असहज ही थीं।

विजय वर्मा कथा सम्मान से सम्मानित 'बहुवचन' के संपादक अशोक मिश्र Ashok Mishra ने अपनी वॉल पर लिखा भी है--

" विशिष्ट अतिथि विनोद टिबडेवाला के खराब किस्म के भाषण पर उस समय किसी का भी ध्यान ही नहीं गया क्योंकि लोग घटिया भाषणबाजी से ऊब गए थे । मैं भी मंच से नीचे था। मैं उनके भाषण और विचारों से असहमति जताता हूं कि उन्हें ऐसा नहीं कहना चाहिए था। मैं उनको पत्र लिखकर विरोध भी करूंगा। "

उनके भाषण के बाद श्रीमती संतोष श्रीवास्तव Santosh Srivastavaने माइक थामा ही था कि डॉ टिबड़ेवाला जबरन फिर पोडियम पर आए और दुबारा बोलने लगे।
मैं उसी समय वॉशरूम जाने के लिए मंच से उतरा और तब लौटा जब आभार भी हो चुका था। दुबारा मंच पर गया ही नहीं।

(मैं उनके दुबारा बोलने के समय मंच पर नहीं था इसकी तस्दीक हर व्यक्ति, हर फोटो से हो जाएगी )
भोजन के समय किसी ने बताया कि इन महोदय ने दुबारा के उदबोधन में मुसलमानों को लेकर कुछ आपत्तिजनक बातें कहीँ हैं।

मैंने बाद में आयोजकों से गंभीर आपत्ति दर्ज कराई। यहां तक कहा कि अगर मेरे सामने ये सब कहा होता तो मंच पर ही प्रतिवाद करता।

अब चार दिन बाद फ़िरोज़ खान Firoj Khanकी पोस्ट से मुद्दा गरमा गया। वहां मौजूद वरिष्ठ कथाकार सूरज प्रकाश ने भी कुछ लिखा। कथाकार सुधा अरोड़ाSudha Arora ने भी लिखा है । सुधा जी कार्यक्रम में उपस्थित नहीं थी।

फ़िरोज़ ने सबसे अच्छी बात ये लिखी कि "बिगाड़ के डर से उबर कर अब लिखा है"। फ़िरोज़ की सारी बातों से सहमत हूँ। आखिर किसी को तो खड़े होकर विरोध करना था न।

ख़ामोश रहने वालों में सूर्यबाला,सूरज प्रकाश Suraj Prakashके अलावा खांटी संपादक, कथाकार हरीश पाठक. Harish Pathak, धीरेंद्र अस्थानाDhirendra Asthana,हरि मृदुलHari Mridul आदि आदि भी गिन लिए गए हैं।

1.सबसे पहली बात तो ये उन कुलपति महोदय की बेहूदा बातों पर मुझे भी घोर आपत्ति है। लानत भेजता हूँ उन्हें।

फिर कह रहा हूँ कि अगर मुसलमानों पर टीका टिप्पणी मेरे सामने हुई होती तो तुरंत वहीं विरोध करता। दलितों वाली बात इतनी गोलमोल थी कि समझ ही नहीं आया कि ये महाशय कहना क्या चाहते हैं.? वाक्य भी पूरा न होता और वे अगले वाक्य में किसी और विषय पर बोलने लगते थे।

2. आयोजक सहित किसी को भी अंदाज़ नहीं था कि वे अगले वाक्य में क्या बोलने वाले हैं..? सच तो ये है कि वे इतना संदर्भहीन और बिखरा हुआ बोल रहे थे कि कोई ध्यान ही नहीं दे रहा था।

3.जहां तक बिगाड़ के डर से न बोलने की बात है तो वहां ऐसा कोई नहीं था कि इन कुलपति के हाथों बिगाड़ से डर जाता।

4. जो न जानते हों वे जान लें कि हरीश पाठक उस बला का नाम है जो देश के सबसे बड़े अख़बार समूह से सुप्रीम कोर्ट तक लड़ाई लड़ने और जीतने वाले साथियों में शामिल थे।
धर्मयुग में लंबी पारी खेलने के बाद हिंदुस्तान और राष्ट्रीय सहारा जैसे अखबारों में दो दशक से ज्यादा संपादक रहे।

5. डॉ विजयकांत,सूर्यबाला,सूरज प्रकाश, धीरेंद्र अस्थाना जैसे दिग्गजों का क्या बिगाड़ लेते ये 'कुबुद्धि' कुलपति..?
हरि मृदुल जैसे प्रतिभाशाली कवि को भी इनसे कोई "हींग" नहीं बदलनी।

6. शायद इन सबने उन महाशय की बकवास पर ध्यान ही नहीं दिया।

7. और जहां तक आयोजक का सवाल है..उन्हें क्या पता कि अतिथि अगले पल क्या बोल बैठेगा।

और जरा सोचिए अपने पुत्र और भाई की स्मृति में समारोह कर रही महिला किसी अतिथि के अनायास कुछ कह देने पर अपने ही आयोजन में मंच पर ही तमाशा खड़ा कर सकती थी..?
(संतोष श्रीवास्तव ने साफ—साफ अपनी मनोदशा बता दी है और कुलपति के भाषण पर आपत्ति दर्ज करा दी है उनकी पोस्ट देख लीजिए।)

8. अब अपने बारे में क्या कहूँ...

भाइयो बहनों.. लगभग तीस साल की पत्रकारिता में किसी माई के लाल से "बिगाड़ का डर" कभी नहीं लगा। दो दशक से ज्यादा बड़े बड़े संस्थानों में संपादक रहा। उसूलों से कभी कोई समझौता नहीं किया। ग्वालियर में पत्रकारों के हक़ के लिए एक बड़े अख़बार में ऐतिहासिक हड़ताल का गुनाहगार हूं।

आज भी रोज सत्ता प्रतिष्ठान से टकराता हूँ।
ऐसे फासीवाद, कट्टरतावादी विचारों से निर्द्वंद लोहा लेता हूँ ।

विनम्रता से कहूं 'बिगाड़ का डर' तो उस 'महामानव' से भी नहीं जो आज सत्ता के शिखर पर बैठा है। बखत निकाल कर थोड़ा सा टहल आइये न हमारी वॉल पर। वहां शायद कुछ मिले जो बताये कि "बिगाड़ के डर की फिक्र किये बिना ईमान की बात" कितनी होती है।

और अंत मे उनकी बात जो इस मुद्दे पर 'क्रांति' की मशाल थाम कर चले आ रहे हैं..

पहले भाई अशोक पांडे की बात जो उन्होंने फिरोज को लिखी है--

" इसे मुद्दा बनाकर सबकी कमीज़ की मैल की आड़ में अपनी सफेदी का प्रदर्शन करने वाले लोग किसका भला करते हैं, यह भी खूब समझता हूँ। बेहतर हो मित्र इससे सबक लें और आगे बढ़े। लड़ाई लंबी है और ऐसी चीज़ें इतना भी महत्त्व नहीं रखतीं कि सबको खारिज़ कर दिया जाए।"
शुक्रियाAshok Kumar Pandey

1. इनमें से क्या पता किसी को इन्हीं कुलपति से मानद 'डीलिट'
की दरकार रही हो और न मिल पाई हो?
2. बहुतेरे ऐसे भी होंगे जो अपने कॉलेज में प्राचार्य या चैयरमेन के सामने मुंह भी न खोल पाते हों।
3. पुरस्कार और सम्मान न मिल पाने की कसक भी तो कोई चीज होती है न।
4. एक महापुरुष ने ज्ञान दिया है कि सम्मान वापस करना चाहिए..
काहे भैया..किसी अतिथि ने यकायक कुछ बक दिया तो इसमें आयोजक की क्या ग़लती?
और हाँ जो लोग मुझे जानते ही नहीं हैं उनसे किसी तरह के प्रमाण पत्र की ज़रूरत नहीं है। जो जानते हैं उनसे कुछ कहने की ज़रूरत है भी नहीं।
तो भाइयो बहनों
ज्यादा कहा..ज्यादा ही समझना।
स्नेहाधीन आपका

 


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