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अगस्ता की उड़ान के संकेत:सियासी जमीन बचाने बनाने का वक्त

खरी-खरी            May 07, 2016


punya-prasoon-vajpaiपुण्य प्रसून बाजपेयी। मोदी सरकार के दो बरस पूरे होने से ऐन पहले ही राजनीतिक संघर्ष की मुनादी सड़क पर खुले तौर पर होने लगी है। यानी अगस्ता हेलीकाप्टर की उड़ान ने यह संकेत दे दिये हैं कि अब सवाल संसद के जरिये देश चलाने या विपक्ष को साथ लेकर सरकार चलाने का वक्त नहीं रहा। वक्त सियासी जमीन बचाने या सियासी जमीन बनाने का आ गया है। इसीलिये एक तरफ प्रधानमंत्री मोदी अब चुनावी सभाओं में गांधी परिवार को सजा दिलाने का जिक्र करने से नहीं चूक रहे हैं तो सोनिया गांधी मोदी सरकार को मिट्टी में मिलाने के तंज कसने से नहीं चूक रही है और यह तकरार संसद के भीतर नहीं बल्कि चल रही संसद के बाद सड़क से हो रही है। इस संघर्ष में तीसरा कोण बने नीतिश कुमार भी संघ और बीजेपी मुक्त सत्ता का ख्वाब यह सोच कर संजो चले हैं कि जब कांग्रेस हर राज्य में अपने हर विरोधियों को साध कर मोदी सरकार को हराने के लिये झुकने को तैयार है तो फिर रणनीति अभी से 2019 को लेकर बनाने लगे हैं, इससे इंकार भी नहीं किया जा सकता । लेकिन सवाल यही है कि क्या जिस अगस्ता हेलाकाप्टर को बोफोर्स तोप की तर्ज पर मोदी सरकार रखना चाह रही है क्या वह अतीत दुबारा उभर पायेगा? या फिर मोदी सरकार को हराने के लिये जिस तरह 1977 के जनता पार्टी की तर्ज पर कांग्रेस लेफ्ट से लेकर राइट तक को अपने साथ समेटने को तैयार है क्या वह अतीत लौट कर आयेगा। क्या जो सपना संघ की खिलाफत कर नीतीश कुमार पाले हुये हैं दोबारा देवेगौडा या गुजराल के दौर को देश दोहराने के लिये तैयार हैं? ध्यान दें तो भारतीय राजनीति के सारे पुराने प्रयोग नये सिरे से मथे जा रहे हैं। हर एक की बिसात बदल गई है और हर का नजरिया बदल चुका है। क्योकि एक तरफ सोनिया गांधी भी इस सच को समझ गई है 45 सांसदों के जरीये संसद के भीतर ज्यादा लंबी लडाई नही लड़ी जा सकती है तो वह सड़क पर कार्यकर्ताओं के साथ संघर्ष के लिये भी तैयार है। अपने हर विरोधी के साथ हर राज्य में गठबंधन कर बीजेपी को साधते हुये। मोदी सरकार को कटघरे में खड़ा करने का कोई मौका गंवाना नहीं चाहती। मोदी सरकार को भी समझ में आ गया है कि गवर्नेंस का मतलब अब विपक्ष को साथ लेकर चलना नहीं बल्कि निशाने पर लेकर कठघरे का खौफ पैदा करते हुये दो दो हाथ करना ही ठीक है। यानी इसी आसरे सौदेबाजी हो गई तो ठीक नहीं तो कांग्रेस मुक्त भारत के संघ के एजेंडे को लागू कराने के लिये तमाम संस्थानों का सियासीकरण । और इस दो कोण में तीसरा कोण नीतीश। कुमार बना रहे हैं। जो 2014 से पहले संघ को सही ठहराने के लिये जेपी के तर्क गढ़ा करते थे वही नीतिश अब संघ-बीजेपी विरोध के सबसे बडा झंडाबरदार बनने को तैयार हो रहे हैं। लेकिन राजनीति संघर्ष की मुनादी चलती हुई संसद के वक्त दिल्ली की सडक पर कांग्रेस लोकतंत्र बचाओ के नारे के साथ इस तरह करेगी जिसमें संसद मार्ग पर बैरिकेट्स तोडते हुये पूर्व पीएम मनमोहन सिंह और सोनिया गांधी भी नजर आये यह तो किसी ने सोचा नहीं होगा । लेकिन सच यही है कि कांग्रेस के सड़क का यह संघर्ष भी संसद में 45 से उसी 272 तक पहुंचने की चाह है जिस चाह में एक वक्त बीजेपी सडक पर संघर्ष करती रही और कांग्रेस सत्ता के मद में डूबी रही। तो क्या दो बरस में वाकई ऐसी स्थिति आ गई है जहां कांग्रेस को लगने लगा है कि वह लोकतंत्र बचाओ के नारे तले मोदी सरकार को कठघरे में खड़ाकर अपनी खोयी जमीन बना सकती है। या फिर मोदी के कांग्रेस मुक्त भारत के नारे को ही हथियार बनाकर कांग्रेस के नोस्टाल्जिया को अब गांधी परिवार जीवित करना चाहता है। लेकिन समझना यह भी होगा कि कांग्रेस के पास कोई ऐसी स्क्रिप्ट वाकई नहीं है जहां योजनाबद्द तरीके से कांग्रेस को कैसे आगे बढ़ना है यह उसे पता हो। क्योंकि बीते दो बरस में जिन मुद्दों के आसरे कांग्रेस ने खुद को खड़ा करने की कोशिश की वह मुद्दे मोदी सरकार ने ही दिये। भूमि अधिग्रहण का सवाल सूट बूट की सरकार तले राहुल को पहचान दे गया। तो जीएसटी का सवाल अतीत में मोदी के जीएसटी विरोध तले जा खड़ा हो गया। और मनरेगा या खाद्दान्न सुरक्षा या फिर आधार कार्ड के गुणगाण ने कांग्रेस को मान्यता दे दी । यानी मोदी सरकार ही काग्रेस को खोयी जमीन अपनी असफलताओं से लौटा रही है । इसीलिये जो मुद्दे एक वक्त पीएम की रेस में होते हुये नरेन्द्र मोदी उठाते। अब उन्हीं मुद्दों को कांग्रेस उठा रही है और सरकार फंसती जा रही है। यानी मुद्दे वही किसान-मजदूर, खेती-किसानी, अल्पसंख्यक- दलित, महंगाई और पाकिस्तान के है। बस पाला बदल गया है। तो क्या पीएम बनने से पहले जिस तरह हर भाषण के वक्त मोदी मोदी की गूंज होती थी , वह राग बदल रहा है। सच यह भी है कि 2014 के लोकसभा चुनाव से पहले मोदी की लोकप्रियता के पीछे कही ना कही मनमोहन सिंह के दौर का काला अध्याय़ था जिससे लोग उब गये थे और एतिहासिक चुनावी जीत को ही बीजेपी ने जिस तरह मापदंड बनाया उसमें अब यह सवाल बीजेपी के भीतर भी खड़ा हो चला है कि चुनावी जीत ना हो तो फिर सियासी जमीन बरकरार रखने का आधार होगा क्या?क्योकि 2015 में दिल्ली -बिहार में बीजेपी को हार का मुंह देखना पड़ा। फिर 2016 में सिवाय असम के किसी राज्य में बीजेपी को कोई आस भी नहीं है। अगर असम में भी चूक गये तो बीजेपी के सामने यही बडा सवाल होगा कि वह सियासी जमीन बनाये रखने के लिये काग्रेस पर सीधा हमला करें। ध्यान दें तो पहली बार मोदी सरकार ने अगस्ता हेलीकाप्टर के जरीये गांधी परिवार को कटघरे में खडाकर सीधे संघर्ष की मुनादी की है। तो मोदी भी अब कांग्रेस की दुखती रग को पकड़ने के लिये तैयार हैं। क्योंकि पीएम बनने से पहले विकास की जो भी लकीर खिचने की मोदी ने सोची होगी वह दो बरस में संसद के हंगामे और राज्यसभा में कांग्रेस की रणनीति ने फेल कर दिया है। तो बीजेपी के सामने भी अब सियासी जमीन बचाने के लिये रास्ता सियासत का ही बचता है । इसीलिये अगस्ता हेलीकाप्टर को लेकर काग्रेस अगर सुप्रीम कोर्ट की निगरानी में जांच की बात कर रही है तो सुब्रहमण्यम स्वामी यह कहने से नहीं चूक रहे कि मनमोहन सिंह के दौर में ही सुप्रीम कोर्ट का जिक्र क्यो नहीं हुआ। तब सिर्फ सीबीआई जांच ही क्यों हुई। यानी जिस रास्ते पर देश निकल पड़ा है उसमें सबसे बड़ा सवाल यही है कि जिसके पास राजनीतिक सत्ता होगी उसी सत्ता के अनुकूल लोकतंत्र का सारे खंभे काम करेंगे। और सत्ता में जो भी होगा उसका रास्ता भ्रष्टाचार मुक्त भारत का नहीं बल्कि गांधी परिवार मुक्त कांग्रेस या संघ परिवार मुक्त बीजेपी का होगा। और देश सत्ता बदलने के साथ इसी में उलझ कर रह जायेगा कि बीजेपी संघ का राजनीतिक संगठन भर है और गांधी परिवार के बगैर कांग्रेस कुछ भी नहीं ।


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