पुण्य प्रसून बाजपेयी।
अगर एनकाउंटर और आतंकवाद के सवाल पर सत्ता बदलते ही भारत सरकार के दो रुख सामने आने लगें तो क्या देश को देखने का नजरिया सत्ता बदलने के साथ बदलना होगा? या फिर सत्ता अपनी राजनीतिक सुविधा से एनकाउंटर और आतंकवाद के मामले पर रुख बदल रही थी। क्योंकि प्रधानमंत्री मोदी से पहले देश के प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह थे। उस वक्त गृहमंत्री चिदंबरम थे, गृह सचिव जी के पिल्लई थे, अंडरसेक्रेटी आरवीएसमणि थे, और उसी दौर में गुजरात में इशरत का इनकाउंटर हुआ था और उसी दौर में इशरत आतंकवादी से मासूम लड़की करार दे दी गई। उसी दौर में ना तो गृहसचिव पिल्लई और ना ही अंडरसेक्रेट्री आरवीएसमणी ने चूं तक की।
तो क्या सत्ता नौकरशाहों को दबाकर अपने लिये काम करवाती है? या फिर राजनीतिक सत्ता के आगे समूचा सिस्टम या तो खत्म हो जाता है या फिर राजनीतिक सत्ता ही सिस्टम हो जाती है? क्योंकि इशरत को लेकर मनमोहन सिंह के दौर के गृह सचिव और अंडर सेक्रेट्री अब बोले जब सत्ता बदल गई। संयोग से इशरत के इनकाउंटर का सवाल प्रधानमंत्री मोदी के उसी दौर से टकरा रहा है जब वह पीएम बने नहीं थे और गुजरात के सीएम थे।
तो क्या आतंकवाद का सवाल चाहे अनचाहे देश के साथ गद्दारी या देशभक्ति के साथ इस तरह जोड़कर परोसा जाता है जिससे राजनीतिक सत्ता की आतंकवाद पर व्याख्या हर दौर में सही लगे। तो मुश्किल यह नहीं कि इशरत को लेकर मनमोहन के दौर के नौकरशाह अब सामने क्यों आये।
सवाल यह है कि क्या वाकई देश के गृहमंत्री के दबाब में ना सिर्फ इशरत को आतंकी से मासूम करार दिया गया बल्कि एसआईटी से लेकर सीबीआई भी राजनीतिक सत्ता के इशारे पर काम करती रही। तो फिर इसकी क्या गारंटी है कि कल जब देश में सत्ता बदल जायेगी तो राजनीतिक हालात ऐसे ना बनें कि मौजूदा वक्त के गृह सचिव राजीव महर्षि हों या ज्वाइंट सेके्रटरी या वीआरएस मणी की तर्ज पर कोई अंडर सेक्रेटी आने वाले दौर में मौजूदा राजनीतिक सत्ता को नकारते हुये तब की सत्ता के साथ खड़े होकर अब के दौर को ही कटघरे में खड़ा ना कर दें।
क्योंकि सवाल सिर्फ राजनीतिक सत्ता के बदलने भर का नहीं है बल्कि सवाल संस्थानों के खत्म होने का है। या कहें सस्थानो के भी राजनीतिक सत्ता में समाने का है। क्योंकि चिदंबरम के गृह मंत्री रहते हुये जो पहला हलफनामा 6 सितंबर 2009 को हाईकोर्ट को सौंपा गया उसमें इशरत के तार आतंकवादियों से जुड़ रहे थे और 24 दिन बाद 30 सितंबर 2009 को जो दूसरा हलफनामा दायर हुआ उसमें इशरत मासूम बताई गई और एनकाउंटर फर्जी करार दिया गया।

जाहिर है 24 दिनों के बीच क्या कैसे बदला इसी का जिक्र उस वक्त के अंडरसेक्रेटी या गृह सचिव अब कर रहे हैं, कि कैसे मानसिक दबाब से लेकर शारिरिक प्रताड़ना की गई। तो क्या सत्ता का वाकई ऐसा खौफ होता है? लेकिन कुछ सवाल तब के जो अब भी अनसुलझे हैं। मसलन, चिदंबरम के बदले रुख दो (हलफनामे) के बीच में 7 सितंबर 2009 को मेट्रोपोलेटेन मजिस्ट्रेट तमांग एनकाउंटर को फर्जी करार देते हैं। तो क्या केन्द्र सरकार की लंबी जांच के बावजूद चिदंबरम को उस वक्त तमांग का तर्क ठीक लगा? और जब देश की सत्ता ने ही एनकाउंटर को फर्जी करार देकर इशरत को मासूम करार दे दिया तो उसके बाद एसआईटी और सीबीआई की क्या बिसात?
इसीलिये एसआईटी ने 2010-11 के बीच तीन बार तो सीबीआई ने 2013-14 के बीच दो बार एनकाउंटर को फर्जी करार दिया। लेकिन अब जब केन्द्र में सत्ता बदल चुकी है और पुराने नौकरशाह निकल कर आतंक का कच्चा-चिट्टा खोल रहे हैं तो यह सवाल मौजूं है कि क्या देश में राजनीतिक सत्ता बदलते ही सच को झूठ या झूठ को सच बनाने का खेल सामने आता है। या फिर सत्ता ही देश के साथ देशभक्ति या देशद्रोह का खेल खेलना शुरु कर रही है? क्योंकि यह सिर्फ राजनीतिक टकराव है तो भी देश के लिये घातक है और अगर राजनीतिक टकराव से आगे के हालात है तो फिर कानून अपना काम क्यों नहीं करता? सिर्फ सत्ता ही काम करती हुई नजर क्यों आती है?
क्योंकि उसी दौर में गुजरात की सीएम आनंदीबेन की बेटी अनार को नरेन्द्र मोदी के सीएम रहते हुये कौडियों के मोल जमीन का मामला भी सामने आता है और चिदंबरम के बेटे कार्ति के 2 जी स्कैम में घोटाले के तार मनमोहन सिंह के दौर में कैसे दबाये गये यह भी सामने आते हैं। दोनों ही मामलों में कानून काम करता हुआ नजर नहीं आता और सत्ता इतनी उग्र हो जाती है कि सत्ताधारियों की देश में लूटपाट एक ही हमाम में हर किसी को खड़ा कर अपने दौर को निकालने की दिशा में बढ़ती नजर आती है । यानी देश के साथ गद्दारी । देश की संपत्ति की लूटपाट।
विदेशी तार से जुडे होकर कहीं संपत्ति तो कभी हक को परिभाषित करने वाले हालात अगर जनता के सामने आते हैं और राजनेता ही कटघरे में खड़े नजर आते हैं तो फिर जनता क्या लोकतंत्र का राग हर पांच बरस बाद के चुनाव तले ही बैठ कर गाये? क्योंकि लग तो यही रहा है कि टकराव के इस दौर में देश की सुरक्षा से लेकर देश के सिस्टम तक राजनीतिक सत्ता अपनी सुविधा से कुचल देती है और देश के गृहमंत्री रहते हुये चिंदबरम इशरत के टैरर को रेड कारपेट तले दबा देते हैं और मोदी सरकार आरोप लगाकर खामोश हो जाती है। क्योंकि लोकतंत्र तो चैक-एंड-बैलेंस पर टिका है।

अगर ऐसा हुआ है तो फिर देशद्रोह का इससे ज्यादा बड़ा मामला और क्या हो सकता है? यानी सरकार को कहने की जगह तो तुरंत जांच कराकर आरोप साबित करते हुये कार्रवाई करनी चाहिये। अगर देश के सत्ताधारी सिर्फ सियासत कर रहे हैं तो देशद्रोह के आरोप में कन्हैया को जमानत देते वक्त जज जिस तरह के सवाल कन्हैया को लेकर उठाते हैं अगर उन सवालों को देश के राजनेताओ की तरफ मोड़ दिया जाये तो हालात क्या बनेंगे, जरा यह भी समझ लें।
क्योंकि जज ने फ़ैसले में कहा है कि छात्र संघ अध्यक्ष होने के नाते कैंपस में होने वाले किसी भी राष्ट्रविरोधी कार्यक्रम की ज़िम्मेदारी कन्हैया की समझी जाती है। वह जिस अभिव्यक्ति की आज़ादी की बात कर रहे हैं, वह भारत की सीमा की रक्षा करने वाले सैनिकों की वजह से है। तो देश के हालात के लिये लोकतंत्र का राग गाया जाये या फिर सत्ताधारियो की भी कोई जिम्मेदारी है। जज ने कहा है कि कुछ छात्रों ने जैसे नारे लगाए, वो अभिव्यक्ति की आज़ादी के अधिकार के तहत नहीं आते। ''मुझे यह एक तरह का संक्रमण लगता है, जिससे ऐसे छात्र पीड़ित हैं और महामारी बनने से पहले इसके नियंत्रण और उपचार की ज़रूरत है।
जब भी किसी अंग में इन्फ़ेक्शन होता है तो पहले एंटीबायोटिक दवा दी जाती है और अगर इससे काम नहीं चलता तो फिर दूसरा उपचार होता है। कभी-कभी इसके लिए सर्जरी की जाती है। अगर इन्फ़ेक्शन की वजह से अंग इस हद तक संक्रमित हो जाये कि गैंग्रीन हो जाए तो अंग को काटना ही अकेला उपाय बचता है।'' तो फिर इशरत को लेकर चिंदबरम सही हैं या मोदी?
सही गलत कोई भी हो, समझना तो यही होगा कि हम बीमार से हर पांच बरस बाद इलाज पूछते हैं या इलाज की दवाई मानते हैं। जबकि इलाज उसी जनता को करना है जो जाति की बीमारी से लेकर धर्म में खोयी है और वोट बैंक की दवाई में बीमार राजनेताओं के इलाज तले अगले पांच बरस के लिये देश को कहीं ज्यादा बीमार कर देती है ।
Comments