समाजवादी जंगलराज से दुखी IAS सूर्यप्रताप चाहते हैं वीआरएस, लिखा मार्मिक पत्र

खरी-खरी, वीथिका            Jul 24, 2015


मल्हार मीडिया डेस्क मित्रों, आज दिनांक 23/07/2015, मेरे जीवन का महत्वपूर्ण दिन है। जिस सेवा को पाने के लिए वर्षों तपस्या करनी पड़ती है, उससे मैंने स्वैच्छिक सेवा निवृति लेने का निर्णय लिया है। उक्त आशय हेतु अपनी पूरी व्यथा व वेदना निम्न पत्र, जो आज मैंने मुख्य सचिव महोदय को भेजा है, में लिख दी है। आप इस पत्र को पढ़ें और मेरे निर्णय को स्वीकार कर, मेरी हौसला अफजाई करें, ऐसा मेरा निवेदन है। अब इस प्रदेश में निष्ठा से काम करना हर किसी के बस की बात नहीं। अतः अब मुझे शांति से सेवानिवृत होने का मन है। जीवन के बचे क्षण जनसामान्य के रूप में उन्मुख भाव से जी कर उसकी पीड़ा का स्वयं अनुभव करना चाहता हूँ। या फिर जैसी मेरी नियति ऊपरवाले ने लिखी हो, उसे सहर्ष स्वीकार करूँगा। सेवा निवृति के स्वीकृति आदेश तक मैं अपने वर्तमान पद यथावत कार्य करता रहूँगा। आप के लिए व समाज के लिए लड़ाई जारी रहेगी। मित्रों, दोस्ती की वास्तविक परीक्षा अब होगी। मूल पत्र नित्न​लिखित है : पत्रांक ७५४ /प्र०स० / सा०उ०वि० /२०१५ लखनऊ दिनांक २३ जुलाई, २०१५ प्रेषक: डॉ.सूर्य प्रताप सिंह, आई.ए.एस. प्रमुख सचिव, सार्वजनिक उद्यम विभाग ,उत्तर प्रदेश शासन सेवा में: श्री आलोक रंजन, आई.ए.एस. मुख्य सचिव, उ.प्र. शासन, लखनऊ आदरणीय महोदय: विषय: अखिल भारतीय सेवा (मृत्यु सह रिटायरमेंट लाभ) नियमावली(यथा संशोधित), नियम १६(२)/ सुसंगत नियम के तहत स्वैछिक सेवानिबृति हेतु आवेदन/नोटिस निवेदन है कि मैं वर्ष १९८२ में भारत की एक ऐसी सेवा, भारतीय प्रशासनिक सेवा (आईएएस) में आया, जिसपर न केवल इस सेवा के अधिकारियों का समस्त परिवार, कुनवा और गाँव/शहर गर्व करता था, अपितु इस सेवा को ब्रिटिश औपनिवेशवाद की समाप्ति के बाद सम्पूर्ण भारत के जनसामान्य ने भी सम्मान और आशा की दृष्टि से देखा था, आज की परिस्थिति बदल सी गयी है| एक आईएएस जब किसी जिले का जिलाधिकारी यानी कलेक्टर बनकर पदस्थ होता था, उसका अत्यधिक सम्मान होता था, वह पूरी ईमानदारी, कार्यकुशलता, संवेदनशीलता, मेहनत और लगन के साथ काम करके जिले का कायापलट करने का जजवा रखता था, आज की परिस्थिति कुछ और ही नज़र आती है | होता यह है कि अगर कोई अधिकारी निष्ठा व कर्मठता का परिचय देना आरंभ करता है तो स्थानीय राजनैतिक लोग उसे सही रास्ते पर चलने नहीं देते, स्वार्थपर्तावश या कार्यकर्ताओं के बहाने राह में रोड़ा अटकाते हैं । जरा-जरा सी बात पर शिकायतों के माध्यम से उस अधिकारी के सिर पर निलंबन या स्थानांतरण की तलवार लटकना आम बात है। अगर किसी अफसर ने जनप्रतिनिधि, यहाँ तक कि सत्तारूढ़ दल के 'छूट भैया नेता' की भी सही-गलत बात नहीं मानी, बस हो जाती हैं उनकी नजरें तिरछी। यही कारण है कि आज अफसरों ने भी अपने आप को राजनेताओं की मंशा के अनुरूप ही ढालने में भलाई समझी है, और बहती गंगा में हाथ धोने को ही अपनी कार्यशैली का अंग बना लिया। इससे दो काम तो हो गए – 'राजनैतिक आका' खुश हुये और अपना 'व्यक्तिगत' स्वार्थ भी पूरा हो गया, परन्तु पिसता रह गया, अभागा जन-सामान्य...... वह दर्द व् पीड़ा से कराह रहा है- वलात्कार, चोरी, दबंगई, रंगबाजी, भू-माफिया आदि सामाजिक उलझनों के सामने रोज-रोज बेबश होता है, कोसता है अपने अस्तित्व को | सत्तर के दशक तक की समाप्ति तक अखिल भारतीय सेवा के अधिकारियों को बड़े ही सम्मान के साथ देखा जाता था। तब तक अधिकारियों को भय होता था कि अगर उन्होंने किसी से भी रिश्वत ली या कदाचार किया तो समाज उन्हें हेय दृष्टि से देखेगा। शनैः शनैः वह डर ख़त्म हो गया; नौकरशाह, मीडिया और राजनेताओं के गठजोड़ ने समूची व्यवस्था को ही पंगु बना डाला है। आज भी काफी बड़ी संख्या में अधिकारीगण कर्त्व्यनिष्ट बनकर काम करना चाहतें है, परन्तु ऐसे सब आज हासिये पर है, और 'दागी' और 'मेनेजर टाइप' के अफसर, चाहे कोई भी पार्टी सत्ता रूढ़ हो, केन्द्रीय भूमिका में बने रहतें है | मैं तीनो अखिल भारतीय प्रशासनिक सेवायों अर्थात भारतीय प्रशासनिक सेवा (आईएएस), भारतीय पुलिस सेवा(आईपीएस) और भारतीय वन सेवा (आईएफएस) में रहा हूँ, मैं इस सेवाओं का बहुत सम्मान करता हूँ, परन्तु तीनो सेवाओं में आज 'पद का लालच', 'आत्म-सम्मान' से ऊपर हो गया है | भारतीय प्रशासनिक सेवा (आईएएस) ने अपनी दो सहयोगी सेवाओं, भारतीय पुलिस सेवा (आईपीएस) और भारतीय वन सेवा (आईएफएस), के प्रति सेवा-सम्बन्धी मामलों में बड़े भाई के रूप में 'उदार व संरक्षक' की भूमिका नहीं निभाई और उन्हें निराश किया, जिसके कारण इस तीनो सेवाओं में एकजुटता का आभाव बढता गया, परिणाम स्वरुप जनहित उपेक्षित होता गया, 'स्वार्थी व् कुटिल तत्वों' ने राजनीति की आड़ में इन अखिल भारतीय सेवाओं की आपसी फूट का खूब लाभ उठाया और अपने स्वार्थों की पूर्ति की| भारत के संसदीय लोकतंत्र में प्रशासन को चलाने की जिम्मेदारी में कार्यकारी निर्णयों, जिनको जनसेवकों द्वारा कार्यान्वित किया जाना था, में राजनैतिज्ञो का हस्तक्षेप बढता गया और नौकरशाही का गिरता मनोबल व् बढती स्वार्थपरता ने प्रशासनिक व्यवस्था को पंगू बना कर रख दिया है, यही कारण है कि आज उ.प्र. जैसे राज्य में 'पदानुक्रमित प्रणाली' (Hierarchy) ध्वस्त हो चुकी है, वरिष्ट अधिकारी संरक्षक की भूमिका में असहाय व् विवश से लगते हैं, अधीन अधिकारियों को छोटी-मोटी गलती पर बुलाकर समझाने की प्रथा समाप्त हो गयी है, इस लिए इस प्रकार की त्रुटियों पर समझाने के बजाए 'राजनैतिक आक़ाओं' की 'हाँ-में-हाँ' मिला कर ट्रान्सफर या निलंबन कर दिया जाता है; 'आका खुश तो सब अच्छा' को नियति मानकर अपने पद पर लम्बे समय तक टिके रहने को 'सफलता' का आधार मान लिया गया है | भारत सरकार (DOPT) के निर्देश पर तीनो अखिल भारतीय सेवाओं के अधिकारीयों के लिए बनाये गए 'सिविल सर्विसेज बोर्ड' उ.प्र. में लगभग मृत प्राय है, जिसका उदेश्य इन सेवाओं के अधिकारियों को राजनैतिक हस्तक्षेप से मुक्त रखने तथा कम से कम दो वर्ष का एक स्थान पर कार्यकाल सुनिश्चित करने का था, परन्तु आज उलटी व्यवस्था है , अधिकारिओं को सार्वजनिक रूप से ताली बजवाने की शेखी में इस बोर्ड के अनुमोदन के बिना ही मौखिक ट्रान्सफर कर दिया जाता है, तथा बोर्ड के सदस्य 'कटपुतली' की तरह बाद में हस्ताक्षर करते रहतें है | उत्तर प्रदेश जैसे आर्थिक, सामाजिक व् राजनैतिक रूप से 'पिछड़े' राज्य में प्रशासनिक व्यवस्था की स्थिति आज भयावय है | यंहा 'नौकरशाही' का बहुत बड़ा वर्ग 'जाति' तथा 'राजनैतिक' विचारधारा के आधार पर बट गया है | 'सत्ता' परिवर्तन से पूर्व ही यह पता होता है कि कौन नौकरशाह सत्ता के शीर्ष वाले किस-किस पद पर आसीन होगा| यंहा तक सुनने में आता है कि मलाईदार उच्च पदों के लिए बोली लगायी जाती है | उत्तर प्रदेश में पिछले १०-१५ सालों में गिरती प्रशासनिक व्यवस्था को मैंने खुली आखो से देखा है, मेरे अध्धयन अवकाश पर जाने से पूर्व तथा वापिसी के वर्षों (२००४-२०१३) के बीच इतना बड़ा अंतर देखने को मिला कि मैं हतप्रद हूँ, सन २००० के बाद से गिरावट आना शुरू हुई और आज शायद चरम पर है | आज प्रति सप्ताह लगभग २-दर्ज़न आईएएस/आईपीएस/आईएफएस अधिकारियों के ट्रान्सफर हो रहे है, PCS/PPS/अन्य कैडर के अधिकारियों के ट्रांस्फर्स की तो कुछ पूछो ही नहीं, पिछले १५ सालों में देश में कुल २०० आईएएस/आईपीएस/आईएफएस अधिकारियों का निलंबन हुआ, जिसमे से १०५ केवल उत्तर प्रदेश से है | विभागों में मंत्रीगण का एक ही काम रह गया है, पैसे लेकर अफसरों/कर्मचारियों का ट्रान्सफर करना, मैंने पिछले २ वर्ष में किसी अपने मंत्री को कभी विभागी बजट या योजनाओं की समीक्षा करने की पहल करते नहीं देखा | जिलाधिकारियों/ मंडलायुक्तों/उच्च पुलिस अधिकारियों का सार्वजनिक रूप से अपमान आम बात हो गयी है | नौकरशाही का मनोबल गिरा हुआ है, किसी पद पर अत्यन्त अल्प-कार्यकाल होने के कारण अधिकारियों को अपनी कार्यछमता दिखाने का मौका ही नहीं मिल पा रहा है | पुलिसकर्मीयों के बिल्ले नोंचने, वर्दी फाड़ने, अभियांताओं व अधीन अधिकारियों के साथ मारपिट व् धमकाने की घटनाएँ आम हो गयी है | सरकारी कार्यों में 'टेंडर' प्रणाली मात्र कागजी खाना पूरी रह गयी है, जिसे विभागीय मंत्री काम देना चाहतें है, टेंडर की कागजी खाना पूरी करके, दे दिया जाता है | जन-सामान्य की FIR तक लिखी नहीं जाती, साधारण से साधारण कार्य भी बिना सिफारिश के नहीं हो पाता | शिक्षक तथा कर्मचारीवर्ग की मांगे बिना आन्दोलन के सुनी नहीं जाती, यह आलम पहले ऐसा न था | गुणवत्ता/वरिष्टता से इतर, जाति आधारित ट्रान्सफरों, प्रोन्नतियों व भर्तियों से कर्मचारियों/अभ्यर्थियों का मानोबल टूट रहा है, अविश्वास व् हीनभावना पीड़ा दे रही है | मैंने स्वमं पिछले २ वर्षों में ७ विभागों में अपनी अदला-बदली देखी है | प्रमुख सचिव स्तर के अधिकारियों के ट्रान्सफर कभी इतनी जल्दी-जल्दी नहीं होते थे, जिसका प्रभाव नीतिगत निर्णयों की सततता पर पड़ना स्वाभाविक है, लेकिन शायद किसी को इस बात की परवाह नहीं है | प्राशासनिक व्यवस्था के शीर्ष पर बैठे 'राजनैतिकगणों' में ५४% अपराधिक प्रष्टभूमि तथा बहुत कम पढ़े लिखे होने के कारण 'नीतिगत' निर्णयों में उनकी सक्रिय भागीदारी लगभग नगण्य है, वे स्वार्थपरता के वशीभूत निर्णय लेने में ज्यादा रूचि दिखातें है, उन्हें प्रमुख सचिव/जनसेवक का परामर्श हितकर नहीं लगता, जिसने ऐसी व्यवस्था को जन्म दिया कि नौकरशाह और राजनेता ने गठजोड़ कर लिया और जिस प्रसाशनिक व्यवस्था की परिकल्पना 'लौह पुरूष' सरदार बल्लभ भाई पटेल ने की थी, को ध्वस्त कर नयी 'निजी स्वार्थ सर्वोपरि, जन-हित गर्त में गया' की 'अव्यवस्था' में परिवर्तित कर दिया, मीडिया ने भी सजग प्रहरी की भूमिका न निभाकर, इस गठजोड़ से हाथ मिला लिया और छला कौन गया ..... प्रेमचंद के गोदान का 'होरी' यानि कि जन-मानस | आज जब मैं मीडिया में सार्वजनिक मुद्दों पर राजनेतायों या पार्टी छुटभैया को बहस करते तथा अपनी-अपनी पार्टियों का बचाव करने हेतु कुतर्क व अनाप-सनाप बातें करते सुनता हूँ.... तो हँसना आता है उनकी उथली–खोखली, झूटे सपने दिखाने वाली बातों पर... और रोना आता है लोकतंत्र के भविष्य पर | चुनावो में पैसे तथा प्रचार-विज्ञापनों पर खर्चा कंहा से आता है ...कोई हिसाब देने को तैयार नहीं | उ.प्र. में आज कलेक्टर को जनपद में शराब की बिक्री में बृधि के लिए कहा जा रहा है यानि कि 'शराब सिंडिकेट' की मदद के लिए शासनादेश निकाला जा रहा है .....वाह! वाह! क्या बात है ... ऐसा लग रहा है कि 'शराब सिंडिकेट' के घर पर ही शासनादेश का ड्राफ्ट तैयार किया गया हो | आज उत्तर प्रदेश में रोजाना लगभग ८ वलात्कार तथा ११ हत्याएं हो रही है | गत वर्ष ४०,००० से अधिक 'हिंसक-अपराध' हुए | २,००० से अधिक वलात्कार तथा ५,००० से अधिक हत्याएं हुईं | देश में सबसे असुरक्षित १० स्थानों (हत्या व वलात्कार के कारण) में से ५ उत्तर प्रदेश में है| पुलिस थानों में एक वर्ग विशेष के दरोगाओं की तैनाती की बात से पुलिस में जनसामान्य का विश्वास डगमगाया है, कानून व्यवस्था के लिए पुलिस-प्रशासन का तटस्थ होना व दिखना अति आवश्यक है, ऐसा आभास होना कि पुलिस केवल सत्ता पक्ष के लिए है, अत्यन्त गैर-पेशेवर धारणा है और यही हो रहा है आज के उत्तर प्रदेश में | महिलायों के प्रति संवेदनशीलता की बातें खूब होती है, परन्तु वास्तविकता इसके इतर है .....जन प्रतिनिधियों द्वारा ऐसी बातें..." लड़कों-बच्चों से अक्सवर गलतियां हो जाती हैं " आदि के कारण जाति विशेष के दरोगा अब थानों में पत्रकार की माँ तक तो हबिश का शिकार बनाने और असफल होने पर जलाकर मारने से भी नहीं चूकते ...कारण ऊपर बचाने वाले जो बैठें है ...आरोप के अनुसार 'जाति-विशेष' के प्रभावशाली मंत्री के इशारे पर पत्रकार को जलाकर मारने से भी कोई गुरेज नहीं हुआ ...गिरफ्तारी तो होगी नहीं और न आज तक हुई | लेखपाल, अमीन, बाबू की तो बिसात ही क्या.... मंत्रीगण व उनके गुर्गे ARTO तक को पिट रहें है, कपडे फाड़ रहे है, 'कानून का राज्य' बेमानी धारणा बन कर रह गयी है, ऊपर से यह ' सफ़ेद-झूट' भी कहा जाता है कि उ.प्र. में अन्य राज्यों से बहतर कानून व्यवस्था है | आज कुछ अधिकारीगण अपने कर्तव्य के बशीभूत यदि कुछ जनहित के अति-आवश्यक मुद्दे उठातें है, तो कभी यह जानने का प्रयास किया जाना चाहिएकि कारण क्या है ? जनसेवक को जनसमस्याओं के प्रति संवेदनशील होना क्या आचार संहिता का उल्लंघन है? मैंने जनमानस की मौन स्वीकृति के वशीभूत होकर, सामाजिक व्यवस्था के दर्द व असंतोष को एक जन-सेवक के रूप में जन-हित में उठाया | मैं, सामान्यतः व्यक्तिगत या संस्थागत आलोचना से बचता रहा हूँ | अब तक निम्न मुख्य सार्वजनिक मुद्दे 'जनहित' में उठायें है, जिन पर व्यापक जन समर्थन मिला है : 1. प्रदेश में 'बोर्ड परीक्षायों' में व्याप्त 'नक़ल' का मुद्दा: "नकल रोको अभियान' चलाया | उ.प्र. में शिक्षा के गिरता स्तर का मुद्दा उठाया | 2. आजीवन दुर्धर्ष संघर्ष से जूझते किसानो की इस वर्ष हुई ओलाब्रष्टि में रु.७,५०० करोड़ की अवितरित क्षतिपूर्ति व् किसानो के आत्महत्या का मुदा उठाया, गत वर्ष सुखा राहत का रु. ४९० करोड़ का वितरण न होना तथा गन्ना किसानो का रु. ११,००० करोड़ का लंबित भुगतान आदि के सभी मुद्दे 'किसान-हित' व 'जन-हित' में उठाये गए | 3. प्रदेश में बिजली मूल्य में ७०% जनविरोधी बृद्धि:, बिजली विभाग में व्याप्त भ्रष्टाचार व VIP जनपदों में बिजली चोरी की खुली छूट का मुद्दा उठाया | 4. लोकसेवा आयोग के अध्यक्ष अनिल यादव के भ्रष्टाचार, जातिवाद, कदाचार का मुद्दा तथा अन्य भर्ती आयोगों जैसे अधीनस्थ चयन आयोग, माध्यमिक चयन आयोग, में एक ही जाति के अध्यक्ष व हो रही नियम विरुद्ध व्यापक भर्तियाँ/भ्रष्टाचार के आरोप/मुद्दे उठाये तथा समर्थन किया | वेरोजगारी तथा युवायों में सरकारी भर्ती में घुटालों, जाति आधारित भर्ती, पिछड़ा जातियों के २७% कोटा के विरुद्ध २१% तक एक ही जाति के लोगो की भर्ती और वह भी क्षेत्र विशेष के लोगो की, से बढता आक्रोश का मुद्दा उठाया | उ.प्र. लोक सेवा आयोग का कारनामा कि यूपी में बने ८६ एसडीएम में से ५६ एक ही जाति के बने, का मुद्दा उठाया । 5. शाहजहांपुर में श्री जगेन्द्र सिंह पत्रकार को सत्ता पक्ष के प्रभावशाली नेता वर्ग द्वारा जलाकर मारने, व बाराबंकी में पत्रकार की माँ के साथ दरोगा द्वारा वलात्कार का प्रयास तथा जलाकर मारने का मुद्दा, जिनमे अभी तक कोई गिरफ्तारी/कारवाही नहीं हुई, को प्रभावी ढंग से उठाया | 6. आगरा-लखनऊ एक्सप्रेसवे (लागत:रु.१५,००० करोड़) पर छ: "शक की सुईयां" उठाई- जिसमें इस परियोजना के केवल ४-५ जनपदों ,एक VIP गाँव व भूमाफिया/रियल एस्टेट एज़ेट्स के लाभार्थ उदेश्य को उजागार किया गया | 7. उ.प्र. में सड़कों की खस्ता हालत और रु.१५,००० करोड़ से केवल २३२ गाँव (आवादी लगभग ८०,०००) और ५ जनपदों, मुख रूप से एक वीआईपी जनपद व गाँव को लाभान्वित करने की योजना (आगरा-लखनऊ एक्सप्रेस-वे) तथा भूमाफियाओं को लाभ पहुचने के उद्देश्य का मुद्दा उठाया | ऐसे हाईवे प्रदेश के १लाख ७ हज़ार गाँव तथा २० करोड़ की सम्पूर्ण आवादी को क्यों नहीं ? आदि का मुद्दा उठाया | उपरोक्त धनराशि के १/५ अंश से ही प्रदेश की अधिकांश सड़कें ठीक हो सकती थी, यह एक एकतरफा प्राथमिकता (lopsided priority) का द्रष्टान्त लगता है | 8. उत्तर प्रदेश में जब तक नॉएडा/ग्रेटर नॉएडा/UPSIDC को राजनेतायों व अफसरशाही की चारागाह बनाये रखा जायेगा तथा उत्तर प्रदेश में उद्योगों का शोषण बंद नहीं होगा, नवीन निवेश के MOU तो खूब पूर्व में भी हुए है और आगे भी प्रचार के वास्ते मुर्ख बनाने के लिए होते रहेंगे, परन्तु निवेश नहीं आ सकता | हाँ, यादव सिंह जैसे नव धनाड्य जरूर पैदा होते रहेंगे और स्वार्थी राजनीतिज्ञों का संरक्षण भी पाते रहेंगे, निष्ठावान अधिकारी/कर्मचारी ठिकाने लगते रहेंगे..अन्यायपूर्ण ढंग से प्रताड़ित होते रहेंगे..परन्तु निवेश नहीं आएगा | 9. यमुना एक्सप्रेसवे में रु.१,८६,००० करोड़ का सरकार/नॉएडा को नुकशान हुआ, कैग की रिपोर्ट विधमान है, परन्तु कुछ प्रभावशाली राजनेताओं व नौकरशाहों के फंसे होने के कारण पिछले कई वर्षों से बिना उचित जांच के यह गंभीर प्रकरण लंबित है,जिसकी सीबीआई जांच के मांग की शिकायत भी अनिस्तारित है, का मुद्दा उठाया | 10. 10. शुगर कारपोरेशन की १० चीनी मिलों को, औने-पौने दामों में भूमाफिया व् बिल्डर्स को बेच दिया गया, यंहा तक कि रु.४००-५०० करोड़ की परिसम्पतियों- मशीनरी, बिल्डिंग , भूमि तथा चीनी का स्टॉक आदि को मात्र रु. १०-३० करोड़ में ही निजी स्वार्थवश बेच दिया गया, एक-एक चीनी मिल में १५०-२०० बीघा जमीन शहरी क्षेत्र से सटी थी, कैग की रिपोर्ट पर सीबीआई से जांच की मांग की गयी थी, का मुद्दा उठाया गया | इस प्रकार के मुद्दे सरकार की आलोचना नहीं, अपितु सहयोगार्थ उठाये गए है | उपरोक्त मुद्दों पर विचार विमर्श होना चाहिए और समाधान निकाला जाना चाहिए, ताकि पीड़ित जनता को राहत मिल सके न कि इन महत्पूर्ण मुद्दे को उठाने वाले जनसेवकों को प्रताड़ित करने का तथा सबक सिखाने का प्रयास किया जाये ...यह न्यायपूर्ण व्यवस्था नहीं होगी | उत्तर प्रदेश का आज का राजनैतिक एवं प्रशासनिक परिवेश 'सर्वजन-हिताय, सर्वजन-सुखाय' से इतर 'निजि-हिताय, निजि-सुखाय' की ओर ज्यादा अग्रसर होता लग रहा है, जो लोकतंत्र के लिए घातक है | लोकतंत्र की परिभाषा के अनुसार यह "जनता द्वारा, जनता के लिए, जनता का शासन है"। भारत एक समतावादी-उदार लोक तंत्र है, जिसके चरित्रगत लक्षणों में व्यक्ति व अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता, सामाजिक व आर्थिक समानता, मानवधिकारों की रक्षा, धर्म निरपेक्षता, जन-धन की सुरक्षा (विशेष रूप से महिला/बच्चों की सुरक्षा) और सामाजिक-न्याय जैसी अवधारणाओं का प्रमुख स्थान रहा है, मुझे यह सब आज के उत्तर प्रदेश में होता नहीं लगता । डॉ. राम मनोहर लोहिया ने एक बार कहा था कि 'जिंदा कौमें पांच साल तक इंतजार नहीं करतीं', परन्तु उत्तर प्रदेश की जनता पिछले कई वर्षों से यंहा यही सहने के लिए विवश है .....कुपित है....आक्रोशित है ...परन्तु कुटिल जातिवादी ...परिवारवादी ...छद्म धर्मनिरपेक्ष व्यवस्था न उसे जीने देती है और न ही मरने | आत्महत्या करके भी कुछ नहीं मिलता ...ओलाब्रुष्टि के दौरान सैकड़ों किसानो ने हाल ही में ही जान से हाथ धोये...आत्महत्याएं की .....परिवारों ने खूब रोया चिल्लाया ...फिर भी किसी का मन नहीं पसीजा .. पूरा मुआवजा आज तक नहीं मिला | विरोध करने वालों को डर है कि कंही जलाकर न मार डालें जांए क्यों कि..... 'आज के उत्तरप्रदेश' में सबक सिखाने का यही नया चलन है.....नयी न्यायिक व्यवस्था है ...यंहा कोर्ट-कचहरी की जरूरत नहीं...विरोध के दंड की सजा की नयी परिभाषा लिखी गयी है... हमारे प्यारे उत्तर प्रदेश ...क्या उत्तम प्रदेश की ओर अग्रसर है ...या वोट बैंक के लिए तुष्टिकरण के वशीभूत ...बेपरवाह प्रशासनिक व्यवस्था ...खाली खजाना ...बिगडती कानून व्यवस्था ...यौनाचार से महिला बच्चो की चीत्कार ... जलाकर मारने की क्रूर 'नयी दंड व्यवस्था' ..... ...जातिवाद...क्षेत्रवाद ....छदम धर्मनिरपेक्षता ... ने क्या इसे उल्टा-पुल्टा प्रदेश नहीं बना दिया है?..... सर जी, आप ही बताईये | अब इस प्रदेश में निष्ठा से काम करना हर किसी के बस की बात नहीं...अतः अब मुझे शांति से सेवा निबृत होने का मन है..जीवन के बचे क्षण जनसामान्य के रूप में उन्मुख भाव से जी कर उसकी पीड़ा का स्वमं अनुभव करना चाहता हूँ..या फिर जैसी मेरी नियति ऊपरवाले ने लिखी हो ..उसे स्वीकार करूँगा | मैं उन सभी का आभारी हूँ जो मुझे प्यार करते है ..और उनका भी जो नहीं... | कुछ लोग मेरे दिमाग का स्क्रू ढीला बताते है ...मैं उनका भी आभार व्यक्त करता हूँ क्यों कि जन सामान्य तो मुझे फेसबुक पर कह रही है कि मेरी भांति उन्हें भी अपने दिमाग का स्क्रू ढीला कराना है....अतः ऐसा होना शायद गर्व की बात है | वैसे भी कुछ लोग मानते है कि शोषक-समाज के कुछ क्रूर वर्गों की करतूतों व हथकण्डों का पर्दाफाश के लिए शायद दिमाग का कुछ स्क्रू ढीला होना जरूरी है | उपरोक्त व्यथित हृदय की वेदना के वशीभूत मैं निवेदन करता हूँ कि मुझे अखिल भारतीय सेवा (मृत्यु सह रिटायरमेंट लाभ) नियमावली(यथा संशोधित), नियम १६(२)/ सुसंगत नियम के तहत स्वैछिक सेवानिबृति दे दी जाये | मैं अत्यन्त आभारी होऊंगा | यदि इस पत्र में मुझसे कोई त्रुटि या अशिष्टता हो गयी हो तो मैं माफ़ी चाहता हूँ| आपका हृदय बड़ा है, आप मुझे अवश्य कृतार्थ करेंगे, ऐसा मेरा विश्वास है | ससम्मान भवदीय (डॉ. सूर्य प्रताप सिंह) भडास4मीडिया से साभार


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