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ग़लतबयानी कम से कम किसी पत्रकार को शोभा नहीं देता, चाहे वह ‘भक्त’ क्यों न हो

मीडिया            Apr 14, 2016


journalist-pankaj-shrivastavपंकज श्रीवास्तव। हाँलाकि यह कोई अनोखी बात नहीं है कि पीएम मोदी के समर्थक मनुस्मृति के विरोध से असहज हो जाएँ, लेकिन इसे लेकर ग़लतबयानी करना कम से कम किसी पत्रकार को शोभा नहीं देता, चाहे वह ‘भक्त’ क्यों न हो । आमतौर पर हिदी के पत्रकारों की तुलना में अंग्रेज़ी के पत्रकार ज़्यादा पढ़े-लिखे माने जाते हैं, लेकिन ऐसा लगता है कि भक्ति की पट्टी अंधा बनाने में भाषा का भेद नहीं देखती। तवलीन सिंह अंग्रेजी के मशहूर स्तंभकार हैं और मोदी की नीतियों का खुलकर समर्थन करती हैं। साथ ही, नेहरूवादी नीतियों और वामपंथी या समाजवादी स्वप्न को देश के लिए घातक बताने का अभियान चलाती हैं। मोदी से उनकी एक ही शिकायत है कि वे उतनी तेज़ी से आर्थिक सुधार नहीं कर रहे हैं जैसा कि 56 इंच वाले से उम्मीद की जानी चाहिए। बहरहाल, इस तक़लीफ़ के बावजूद मोदी विरोधियों को निपटाने का उनका दैनिक कार्यक्रम ज़रा भी कमज़ोर नहीं पड़ता। हाल ही में राहुल गाँधी का मनुस्मृति की आलोचना करना उन्हें बरदाश्त नहीं हुआ। ख़ैर यह कोई अस्वाभाविक बात नहीं थी, लेकिन इसके विरोध में उन्होंने जो ट्वीट किया, वह इतिहास के साथ छल है। पहले ज़रा इस ट्वीट को देखें— twitt-tavleen तवलीन सिंह अपने ट्वीट में मनुस्मृति को मानव इतिहास की सबसे पुरानी विधि संहिता (कोड ऑफ लॉ) क़रार दिया है जो सरासर झूठ है। इतिहासकारों का मानना है कि मनुस्मृति दूसरी या तीसरी शताब्दी में लिखी गई। कुछ विद्वान इसे 1000 ईसापूर्व से 1200 ईसापूर्व तक भी ले जाते हैं। लेकिन हम्मूराबी ने तो ईसा के जन्म के करीब साढ़े 1700 साल पहले लिखित विधि संहिता तैयार करा दी थी जिसे इतिहास की सबसे पुरानी विधि संहिता कहा जाता है। हम्मूराबी बेबीलोन (आज के सीरिया और जार्डन का क्षेत्र) के प्रथम शासक वंश का छठाँ शासक था। हम्मूराबी का जन्म 1810 ई.पू. में हुआ था और गद्दी मिली थी 1792 ई.पू.में। उसने करीब 42 साल राज किया और 1750 ई.पू. उसकी मृत्यु हुई। ज़ाहिर है, हम्मूराबी की विधि संहिता दुनिया की सबसे पुरानी विधि संहिता है। हम्मूराबी ने इस विधि संहिता को स्थानीय भाषा में लिखवाकर सार्वजनिक स्थानों पर लगवा दिया था ताकि लोग आसानी से समझ लें कि किस गुनाह की क्या सज़ा है। हाँलाकि वर्तमान कसौटियों को देखते हुए यह विधि व्यवस्था वैसी ही क्रूर थी जैसी एक सामंती शासन में हो सकती थी। यानी वही ‘आँख के बदले आँख’ निकाल लेने वाले सिद्धांत। इसलिए आज उसका महत्व सिर्फ इतिहास की एक घटना की बतौर है। वर्तमान में उसे किसी भी तरह प्रासंगिक या सम्मानित करने प्रयास मूर्खता ही माना जाएगा। hammurabi-vidhi-sanhita ( पेरिस के एक संग्रहालय में रखी हम्मूराबी की विधि संहिता। इसके दस्ते पर दो चित्र उकेरे गये हैं। खड़ा हुआ शख्स हम्मूराबी है जो राजचिन्ह ग्रहण कर रहा है। हाथ उसके मुंह पर है जो प्रार्थना का तत्कालीन तरीका था।) लेकिन भारत में समाजिक भेदभाव और शूद्रों को मनुष्य से एक दर्जा नीचे बताने का सैद्धांतिक आधार देने वाली, संस्कृत में लिखी गई ‘मनुस्मृति’ के बारे में ऐसा नहीं है। आज भी मनु महाराज समाज के एक बड़े तबके में सम्मानित ही नहीं हैं, राजस्थान उच्च न्यायालय के परिसर में उनकी प्रतिमा भी स्थापित है। जबकि समता, समानता, न्याय और और लोकतंत्र के हर रंग की राह में रोड़ा मानते हुए डॉ.अंबेडकर ने 25 दिसंबर 1927 को इस ग्रंथ को सार्वजनिक रूप से जलाया था। आज भी उनके अनुयायी प्रतीक रूप में मनुस्मृति दहन दिवस मनाते हैं जिस पर आरएसएस और उनके आनुषंगिक संगठनों की ओर से तमाम किंतु-परंतु सुनाई पड़ता है। बहरहाल, जिस दौर में पी.एम मोदी ख़ुद को डॉ.अंबेडकर का भक्त घोषित कर रहे हैं, उसी दौर में उनकी भक्त तवलीन सिंह का खुला मनुस्मृति प्रेम बताता है कि समरसता के तमाम पाखंड के बावजूद हक़ीक़त क्या है। ख़ैर, अपनी राय रखना किसी का भी हक़ है, लेकिन सिद्ध-प्रसिद्ध अंग्रेज़ी पत्रकार तवलीन सिंह से इतनी उम्मीद तो की ही जानी चाहिए कि वे इतिहास की तारीखों को अपनी जगह रहने दें। इतिहास का एक सामान्य विद्यार्थी होने के नाते मैं यह बात डंके की चोट पर कह रहा हूँ– हम्मूराबी, मनु महाराज का पुरखा था तो था ! इस तथ्य को कोई तवलीन सिंह बदल नहीं सकती ! पाठ्यक्रम बदलवाकर भी नहीं ! मीडिया विजिल।


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