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डिजीटल इंडिया के प्रयोग ‘डिजीटल डिवाइड’ भी पैदा कर रहे हैं

मीडिया            Sep 24, 2016


sanjay-dwediसंजय द्विवेदी। उपराष्ट्रपति डा.हामिद अंसारी की नई किताब ‘सिटिजन एंड सोसाइटी’ के विमोचन के मौके पर प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने कहा कि “प्रौद्योगिकी के कारण लोग नेट पर आश्रित हो गए हैं, और पारंपरिक सीमाएं विलोपित हो रही हैं। बावजूद इसके परिवार देश की सबसे बड़ी ताकत है।” निश्चय ही प्रधानमंत्री हमारे समय के एक बड़े सामाजिक प्रश्न पर संवाद कर रहे थे। आज यह तय करना मुश्किल होता जा रहा है कि हम पहले सिटिजन(नागरिक) हैं या नेटिजन(इंटरनेट पर आश्रित व्यक्ति)। नेटिजन होना जरूरत है, आदत है या स्टेटस सिंबल? ऐसे में क्या नागरिक धर्म, पारिवारिक दायित्वबोध पीछे छूट गए हैं? देशभक्ति ,राजनीति से लेकर समाजसेवा सब नेट पर ही संभव हो गयी है तो लोगों से क्यों प्रत्यक्ष मिलना? क्यों समाज में जाना और संवाद करना? नेटिजन होना दरअसल एकांत में होना भी है। क्योंकि नेट आपको आपके परिवेश से काटता भी और एकांत भी मांगता है। यह संभव नहीं कि आप नेट पर चैट भी करते रहें और सामने बैठे मनुष्य से संवाद भी। यह भी गजब है कि भरे-पूरे परिवार और महफिलों में भी हमारी उंगलियां स्मार्ट फोन पर होती हैं और संवाद वहां निरंतर है, किंतु हमारे अपने उपेक्षित हैं। महफिलों, सभाओं, विधानसभाओं, कक्षाओं, अंतिम संस्कार स्थल से लेकर भोजन की मेजों पर भी मोबाइल में लगे लोग दिख जाएंगे। मनुष्य ने अपना एकांत रच लिया है, और इस एकांत में भी वह अधीर है। पल-पल स्टेटस चेक करता है कि क्या-कहां से आ गया होगा। यह गजब समय है, जहां एकांत भी कोलाहल से भरे हैं। स्क्रीन चमकीली चीजों और रोशनियों से भरा पड़ा है। इसके चलते हमारे आसपास का सौंदर्य और प्रकृति की नैसर्गिक सुंदरता बेईमानी हो चली है। हमारे अपने प्रतीक्षा में हैं कि हम कुछ कहें, बोलें, बतियाएं पर हमें चैटिंग से फुरसत नहीं है। हम आभासी दुनिया के चमकते चेहरों पर निहाल हैं, कोई इस प्रतीक्षा में है, हम उसे भी निहारेगें। यह अजब सी दुनिया है, नेटिजन होने की सनक से भरी दुनिया, जिसने हमारे लिए अंधेरे रचे हैं और परिवेश से हमें काट दिया है। प्रौद्योगिकी का इस्तेमाल करना और प्रौद्योगिकी के लिए इस्तेमाल होना दोनों दो चीजें हैं, पर हम इसका अंतर करने में विफल हैं। हालात यह हैं कि भरे-पूरे परिवार में संवाद की कहीं जगह बची ही नहीं है। माता-पिता और संतति सब नेटिजन बन चुके हैं। उनमें संवाद बंद है, सब के पास चमकती हुयी स्क्रीन है और उससे उपजी व्यस्तताएं। शिक्षा मंदिरों का हाल और बुरा है। कक्षा में उपस्थित शिक्षक अपने विद्यार्थियों तक नहीं पहुंच पा रहा है, मोबाइल यहां भी बाधा बना है। शिक्षक की भरी-पूरी तैयारी के बाद भी उसके विद्यार्थी ज्ञान ‘गूगल गुरू’ से ही लेना चाहते हैं। शिक्षक भौंचक है। उसके विद्यार्थियों में एकाग्रता का संकट सामने है। वे कंधे उचकाकर फिर स्क्रीन पर चेक करते हैं, नए नोटिफिकेशन से बाक्स भर गया है। बहुत से चित्र, संवाद और बहुत सी अन्य चीजें उनकी प्रतीक्षा में हैं। एकाग्रता, तन्मयता, दत्तचित्तता जैसे शब्द इस विद्यार्थी के लिए अप्रासंगिक हैं। वह किताबों से भाग रहा है, वे भारी हैं और भटका रही हैं। उसे ‘फोकस्ड’ और ‘पिन पाइंट’ ज्ञान चाहिए। गूगल तैयार है। गुरू गूगल ने ज्यादातर अध्यापक को अप्रासंगिक कर दिया है। ज्ञान की तलाश किसे है, पहले हम सूचनाओं से तो पार पा लें। आज ‘डिजीटल इंडिया के शिल्पकार प्रधानमंत्री’ अगर यह कह रहे हैं कि परिवार हमारी सबसे बड़ी ताकत है, तो हमें रूककर सोचना होगा कि प्रौद्योगिकी की जिंदगी में क्या सीमा होनी चाहिए। क्या प्रौद्योगिकी का हम प्रयोग करेंगे या वह हमारा इस्तेमाल करेगी। नेटिजन और सिटिजन क्या समन्वय बनाकर एक साथ चल सकते हैं, इस पर भी सोचना जरूरी है। भारत जैसे विविधता और बहुलता से भरे देश में डिजीटल इंडिया के प्रयोग एक ‘डिजीटल डिवाइड’ भी पैदा कर रहे हैं। एक बड़ा समाज इन चमकीली सूचनाओं से दूर है और उस तक चीजें पहुंचने में वक्त लगेगा। सूचनाएं और संवाद किसी भी समाज की शक्ति होती हैं। वह उसकी ताकत को बढ़ाती हैं। लेकिन नाहक, प्रायोजित और संपादित सूचनाएं कई तरह के खतरे भी पैदा करती हैं। क्या हमें हमारे देश की वास्तविक सूचनाएं देने के जतन हो रहे हैं? क्या हम इस देश को उस तरह से चीन्हते हैं जैसा यह है? 128 करोड़ आबादी, 122 भाषाएं और 1800 बोलियों वाले 33 लाख वर्ग किलोमीटर में फैले देश की आकांक्षाएं, उसके सपने, उसके दुख-सुख-आर्तनाद क्या हमें पता हैं? क्या हमें पता है कि एक वनवासी कैसे बस्तर या अबूझमाड़ के जंगलों में हमारे लोकतंत्र की प्रतीक्षा में सात दशक गवां चुका है? गांव, गरीब, किसान की बातें करते-करते थक चुकी हमारी सरकारें और संवेदनहीन प्रशासनिक तंत्र क्या इस चमकीले डिजीटल इंडिया के सहारे भी हाशिए पर पड़े लोगों के लिए कोई स्पेस ढूंढ पाएगा? समर्थों की चाकरी में जुटी सारी नौकरशाही क्या लोकसेवक होने के वास्तविक अहसास से भर पाएगा? कहते हैं लोकतंत्र सौ साल में साकार होता है। सत्तर साल पूरे कर चुके इस देश में 70 प्रतिशत तो लोकतंत्र आ जाना चाहिए था, किंतु देश के बड़े बुद्धिजीवी रामचंद्र गुहा 2016 में भी हमारे लोकतंत्र को 50-50 बता रहे हैं। ऐसे में नागरिक बोध और नागरिक चेतना से लैस मनुष्यों के निर्माण में हमारी चूक साफ नजर आ रही है। लोकतंत्र कुछ समर्थ लोगों और प्रभु वर्गों की ताबेदारी बनकर सहमा हुआ सा नजर आता है। परिवार हमारी शक्ति है और समाज हमारी सामूहिक शक्ति। व्यवस्था के काले हाथ परिवार और समाज दोनों की सामूहिक शक्ति को नष्ट करने पर आमादा हैं। समाज की शक्ति को तोड़कर, उन्हें गुटों में बांटकर राजनीति अपने लक्ष्य संधान तो कर रही है पर देश हार रहा है। समाज को सामाजिक दंड शक्ति के रूप में करना था किंतु वह राजनीति के हाथों तोड़ा जा रहा है, रोज और सुबह-शाम। आज समाज नहीं राजनीति पंच बन बैठी है, वह हमें हमारा होना और जीना सिखा रही है। राजरंग और भोग में डूबा हुआ समाज बनाती व्यवस्था को सवाल रास कहां आते हैं। इसलिए सवाल उठाता सोशल मीडिया भी नागवार गुजरता है। सवाल उठाते नौजवान भी आंख में चुभते हैं। सवाल उठाता मीडिया भी रास नहीं आता। सवाल उठाने वाले बेमौत मारे जाते हैं, ताकि समाज सहम जाए, चुप हो जाए। नेटिजन से पहले सिटिजन और उससे पहले मनुष्य बनना, खुद की और समाज की मुक्ति के लिए संघर्ष किसी भी जीवित इंसान की पहली शर्त है। लोग नेट पर आश्रित भले हो गए हों, किंतु उन्हें लौटना उसी परिवार के पास है जहां संवेदना है, आंसू हैं, भरोसा है, धड़कता दिल है और ढेर सारा प्यार है। ( लेखक माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय, भोपाल में जनसंचार विभाग के अध्यक्ष हैं)


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