Breaking News

इस राज्य में बरता जाता है 98 तरह का छुआछूत,दलितों के शमशान तक अलग

वीथिका            Jul 25, 2016


विनीत खरे। दलितों के साथ रहने वाले ग़ैर-दलित छात्र जब वापस घर लौटते हैं तो उनके मां-बाप शुद्धिकरण के लिए क्या तरीके अपनाएंगे? ढाई साल पहले गुजरात पुलिस से रिटायर्ड दलित आईपीएस अफ़सर राजन प्रियदर्शी ने 'दलितों पर अत्याचार' विषय पर पीएचडी के दौरान ग़ैर-दलित छात्रों को प्रश्नपत्र में यही सवाल पूछा। बच्चों ने बताया कि मां-बाप उन्हें गाय छूने को कहेंगे जिससे वो पवित्र हो जाएंगे। गंगाजल छिड़कने पर शुद्धता आएगी। मुसलमान को छूने से भी अशुद्धियाँ दूर होंगी। उनसे सूरज की ओर लगातार देखने को कहा जाएगा जिससे शरीर शुद्ध होगा। राजन प्रियदर्शी कहते हैं, "इस प्रश्नपत्र में जवाब से पता चला कि ग़ैर-दलित, दलितों के साथ खाने को तो दूर उन्हें पड़ोसी बनाने को भी तैयार नहीं थे।" आईजी की पोस्ट तक पहुंचने वाले प्रियदर्शी अपने गांव में उच्च जातियों के दबाव के कारण अपना घर तक नहीं बना पाए। मज़बूरन वो अहमदबाद के एक दलित-बहुल इलाक़े में रह रहे हैं। वो कहते हैं, "गुजरात में कोई दलित अपनी मनपसंद जगह में नहीं रह सकता।" गुजरात में दलितों की संख्या केवल सात फ़ीसद है और जाति आधार पर विभाजित गुजराती समाज में दलित सबसे नीचे हैं। कुछ समय पहले रॉबर्ट एफ़ केनेडी फ़ॉर जस्टिस एंड ह्यूमन राइट्स ने स्थानीय नवसर्जन ट्रस्ट के साथ दलितों के हालात पर गुजरात के 1589 गांवों का अध्ययन किया। इसमें पता चला कि दलितों के साथ 98 तरह से छुआछूत किया जाता है। पाया गया कि 98.1 फ़ीसद गांवों में दलित ग़ैर-दलित के यहां मकान किराए पर नहीं ले सकता। 97.6 फ़ीसद गांवों में दलित ग़ैर-दलित के बर्तन को नहीं छू सकता। 67 फ़ीसद गांवों में दलित पंचायत सदस्यों के लिए अलग 'दलित कप' हैं। 56 फ़ीसद गांवों के चाय ढाबों में दलितों और ग़ैर-दलितों के अलग-अलग कप हैं और हां दलित की ज़िम्मेदारी है कि वो अपने कप को धोकर ग़ैर-दलितों के कप से दूर रखें। 53 फ़ीसद गांवों में दलित बच्चों को अलग बिठाया जाता है, उनसे कहा जाता है कि वो अपना पानी घर से लाएं। नवसर्जन की मंजुला प्रदीप बताती हैं, "पहले बसों में दलितों को ग़ैर दलित को सीटें देनी पड़ती थीं। वो कुएं से ख़ुद पानी नहीं भर सकते थे, उन्हें ऊपर से पानी दिया जाता था। दलितों के लिए अलग प्लेट हैं जिसे रक़ाबी कहते हैं। शोध में पाया गया कि 77 फ़ीसद गांवों में मैला ढोने की व्यवस्था है।" वो बताती हैं ग़ैर दलित की मौत पर कफ़न वाल्मीकि समुदाय के व्यक्ति को दिया जाता है, जिस चारपाई में व्यक्ति की मौत हुई है, वो दलित को दे दी जाती है, दलित बच्चों से ही टायलेट की सफ़ाई करवाई जाती है। इन सबसे परेशान होकर दलित शहर जाते हैं, लेकिन वहां उन्हें मकान नहीं दिया जाता। अहमदाबाद में दलितों के अलग मोहल्ले हैं, जैसे बापूनगर, अमराईवाड़ी, वेजलनगर। अमीर दलित अपनी सोसाइटी में रहते हैं। गांवों के मुख्य गरबे में दलित शामिल नहीं हो सकते, उनके श्मशान तक अलग हैं। कारण -दलित के जलने से निकलने वाले धुएं से पवित्रता नष्ट होगी। श्मशान न होने के कारण दलितों को अपने मृतकों को दफ़नाना भी पड़ता है। गांधीनगर से 50 किलोमीटर दूर बाउली गांव में ऐसा ही एक दलित श्मशान है। ऊपर टीन की चादर, चार लोहे के लंबे खंबे, कांक्रीट की ज़मीन, ज़मीन पर राख का निशान। जैसे थोड़े वक्त पहले ही कोई मानव शरीर राख हुआ हो। चारों ओर से छोटी दीवार का घेरा। गांव के एक कोने में दलितों के मकान है। अमीर पटेल इलाकों से उलट यहां न सड़क है, न शौचालय। चारों ओर गड्ढे, गड्ढों में मैला पानी, जो पानी के पाइप के पानी से मिलकर लोगों के घरों तक पहुंचता है। स्थानीय निवासी पोपट बताते हैं, "यहां के पटेल, ठाकुर, कहते हैं कि तुम नीच कौम के हो, इसलिए तुम अपने श्मशान में शरीर जलाओ।" 11 साल के मयूर ने बताया, "मंदिर की प्रतिष्ठा के वक्त वो प्लास्टिक की प्लेट में खाते हैं, हमें कागज़ पर खाना दिया जाता है। वो हमें दुतकारते हैं, इसलिए हम उधर नहीं जाते। जब हम बैठते हैं तो हमें उठा दिया जाता है। कहा जाता है कि तुम हमारे साथ नहीं बैठ सकते.। मेरे दिमाग में आता है कि मैं ये गांव छोड़कर चला जाऊं। वो हमें ठेड़े (गुजराती में नीची जाति) कहकर चिढ़ाते हैं।" गुजरात में हर वर्ष दलित उत्पीड़न के हज़ार से ज़्यादा मामले दर्ज होते हैं, इनमें मौखिक क्रूरता से लेकर बलात्कार तक के मामले शामिल हैं। 2014 में 100 से ज़्यादा गांवों में दलितों की सुरक्षा के लिए पुलिस तैनात करनी पड़ी थी,आज ऐसे 14 गांव हैं। अहमदाबाद से करीब 150 किलोमीटर दूर नंदाली गांव के एक खेत में मैं मजदूर बाबूभाई सेलमा से मिला। क़रीब एक हज़ार लोगों वाले इस गांव में केवल 20 दलित रहते हैं। सेलमा के मुताबिक़ उन्हें स्थानीय राजपूत जुझार सिंह ने किसी बात पर कथित रूप से एक थप्पड़ मारा। जब वो मामला पुलिस के पास ले गए तो गांव में दलितों का सामूहिक बहिष्कार कर दिया गया। रात 10 बजे गांव के बाहर स्थित उनके झोपड़े के बाहर सभी दलित इकट्ठे हुए, उनके साथ थे गुजरात पुलिस के विपुल चौधरी। गांव में स्थित नंदी माता के मंदिर में दलित प्रवेश नहीं कर सकते। माचिस खरीदने के लिए भी दलितों को तीन किलोमीटर दूर खैरालू गांव जाना पड़ता है। राजपूतों की ज़मीन पर वो काम नहीं कर सकते इसलिए भूखों मरने की नौबत आ गई है। जुझार सिंह मामले को फ़र्जी बताते हैं।लेकिन बेहिचक कहते हैं, "हम दलित के घर नहीं खाते, सारा गुजरात नहीं खाता। केजरीवाल खाता है, राहुल गांधी खाता है,हम नहीं।" गुजरात में वर्ण व्यवस्था और जाति बेहद महत्वपूर्ण है। राम मंदिर बनाने बहुत से दलित और आदिवासी भी अयोध्या गए थे, लेकिन जब वही दलित वापस अपने गांव आए तो उन्हें राम मंदिर में घुसने तक नहीं दिया गया। शहरों में जाति-आधारित इमारतें हैं लेकिन गांवों में स्थिति बदतर है। उच्च जाति वाला अपने से नीची जाति के लोगों को नीची निगाह से देखता है। एक वक्त था जब लोग पूछते थे, तुम्हारा दूध क्या है। दलित संख्या में कम हैं, उनके पास ज़मीन नहीं है। आर्थिक कारणों और भेदभाव से दलित बच्चे बड़ी संख्या में प्राइमरी स्कूल से आगे नहीं पढ़ पाते। इस कारण वो आरक्षण के फ़ायदे से भी महरूम हैं। छूत-अछूत की समस्या सौराष्ट्र में सबसे विकट है। समाजशास्त्री गौरांग जानी बताते हैं कि सौराष्ट्र के अलग-अलग हिस्सों में सामंती सोच वाले राजाओं का राज था, राजा तो चले गए लेकिन सोच जीवित रही। वो कहते हैं, "गुजरात में कोई नॉलेज ट्रेडिशन नहीं है, गांधीवादी सोच को किनारे रख दिया गया है। यहां कोई वाम आंदोलन नहीं हुआ। इस खालीपन में हिंदुत्ववादियों को जगह मिली। हिंदू एकता के नाम पर राजनीतिक दल हिंदुओं को साथ तो ले आए लेकिन दलितों की ज़िंदगी बदलने की कोशिश नहीं की गई। पहले साथ रहना एक पाठशाला जैसा था, अब जाति आधारित आवासीय इमारतों के कारण पुराना बंधन टूट गया है। भूमंडलीकरण के दौर में जब सभी वर्ग आगे की ओर बढ़ रहे हैं, तो दलित युवा ख़ुद की हालत देखते हैं और पूछ रहे हैं, आख़िर विकास के दौर में उनका विकास क्यों नहीं हो रहा है? अगर पटेल सरकार पर हावी हो सकते हैं तो दलित क्यों नहीं? आरक्षण विरोध प्रदर्शन और कई दंगे देख चुके गुजरात में दलित के लिए सबसे बड़ी चुनौती लोगों की मानसिकता बदलने की है? बीबीसी हिंदी से साभार।


इस खबर को शेयर करें


Comments