ईसुरी बिना फाग अधूरी

वीथिका            Mar 22, 2016


संजीव सलिल। पर्वराज होली से ही मध्योत्तर भारत में फागों की बयार बहने लगती है। बुंदेलखंड की फाग यानी होली ईसुरी के बिना अधूरी लगती है। बुंदेलखंड में फागें, बृजभूमि में नटनागर की लीलाएँ चित्रित करते रसिया और बधाई गीत, अवध में राम-सिया की जुगल जोड़ी की होली-क्रीड़ा जन सामान्य से लेकर विशिष्ट जनों तक को रसानंद में आपादमस्तक डुबा देते हैं। राम अवध से निकलकर बुंदेली माटी पर अपनी लीलाओं को विस्तार देते हुए लम्बे समय तक विचरते रहे इसलिए बुंदेली मानस उनसे एकाकार होकर हर पर्व-त्यौहार पर ही नहीं हर दिन उन्हें याद कर 'जय राम जी की' कहता है। बुंदेली फागों के एकछत्र सम्राट हैं लोककवि ईसुरी। ईसुरी ने अपनी प्रेमिका 'रजउ' को अपने कृतित्व में अमर कर दिया। ईसुरी ने फागों की एक विशिष्ट शैली 'चौघड़िया फाग' को जन्म दिया। हम अपनी फाग चर्चा चौघड़िया फागों से ही आरम्भ करते हैं। ईसुरी ने अपनी प्राकृत प्रतिभा से ग्रामीण मानव मन के उच्छ्वासों को सुर-ताल के साथ समन्वित कर उपेक्षित और अनचीन्ही लोक भावनाओं को इन फागों में पिरोया है। रसराज शृंगार के संयोग और वियोग दोनों पक्ष इन फागों में अद्भुत माधुर्य के साथ वर्णित हैं। सद्यस्नाता युवती की केश राशि पर मुग्ध ईसुरी गा उठते हैं- लोक ईसुरी की फाग-रचना के मूल में उनकी प्रेमिका रजऊ को मानती है। रजऊ ने जिस दिन गारो के साथ गले में काली काँच की गुरियों की लड़ियों से बने ४ छूँटा और बिचौली काँच के मोतियों का तिदाने जैसा आभूषण और चोली पहिनी, उसके रूप को देखकर दीवाना होकर हार झूलने लगा। ईसुरी कहते हैं कि रजऊ के सौंदर्य पर मुग्ध हुए बिना कोई नहीं रह सकता। जियना रजऊ ने पैनो गारो, हरनी जिया बिरानो छूँटा चार बिचौली पैरें, भरे फिरे गरदानो जुबनन ऊपर चोली पैरें, लटके हार दिवानो 'ईसुर' कान बटकने नइयाँ, देख लेव चह ज्वानो ईसुरी को रजऊ की हेरन (चितवन) और हँसन (हँसी) नहीं भूलती। विशाल यौवन, मतवाली चाल, इकहरी पतली कमर, बाण की तरह तानी भौंह, तिरछी नज़र भुलाये नहीं भूलती। वे नज़र के बाण से मरने तक को तैयार हैं, इसी बहाने रजऊ एक बार उनकी ओर देख तो ले। ऐसा समर्पण ईसुरी के अलावा और कौन कर सकता है? हमख़ाँ बिसरत नहीं बिसारी, हेरन-हँसन तुमारी जुबन विशाल चाल मतवारी, पतरी कमर इकारी भौंह कमान बान से तानें, नज़र तिरीछी मारी 'ईसुर' कान हमारी कोदी, तनक हरे लो प्यारी ईसुरी के लिये रजऊ ही सर्वस्व है। उनका जीवन-मरण सब कुछ रजऊ ही है। वे प्रभु-स्मरण की ही तरह रजऊ का नाम जपते हुए मरने की कामना करते हैं, इसलिए कुछ विद्वान रजऊ को सांसारिक प्रेमिका नहीं, आद्या मातृ शक्ति को उनके द्वारा दिया गया सम्बोधन मानते हैं: जौ जी रजऊ रजऊ के लाने, का काऊ से कानें जौलों रहने रहत जिंदगी, रजऊ के हेत कमाने पैलाँ भोजन करैं रजौआ, पाछूँ के मोय खाने रजऊ रजऊ कौ नाम ईसुरी, लेत-लेत मर जाने ईसुरी रचित सहस्त्रों फागें चार कड़ियों (पंक्तियों) में बँधी होने के कारन चौकड़िया फागें कही जाती हैं। इनमें सौंदर्य को पाने के साथ-साथ पूजने और उसके प्रति मन-प्राण से समर्पित होने के आध्यात्मजनित भावों की सलिला प्रवाहित है। रचना विधान: ये फागें ४ पंक्तियों में निबद्ध हैं। हर पंक्ति में २ चरण हैं। विषम चरण (१, ३, ५, ७ ) में १६ तथा सम चरण (२, ४, ६, ८) में १२ मात्राएँ हैं। चरणांत में प्रायः गुरु मात्राएँ हैं किन्तु कहीं-कहीं २ लघु मात्राएँ भी मिलती हैं। छंद प्रभाकर नरेंद्र है। इस छंद में खड़ी हिंदी में रचनाएँ मेरे पढ़ने में अब तक नहीं आयी हैं। ईसुरी की एक फाग का खड़ी हिंदी में रूपांतरण देखिए: किस चतुरा ने चोटी गूँथी, लगतीं बेहद प्यारी किंचित छोटी-बड़ी न उठ-गिर, रहीं साँस सम न्यारी मुकुट समान शीश पर शोभित, कृष्ण मेघ सी कारी लिये ले रही जान केश-छवि, जब से दिखी उघारी नरेंद्र छंद में एक चतुष्पदी देखिए- बात बनाई किसने कैसी, कौन निभाये वादे? सब सच समझ रही है जनता, कहाँ फुदकते प्यादे? राजा कौन? वज़ीर कौन?, किसके बद-नेक इरादे? जिसको चाहे 'सलिल' जिता, मत चाहे उसे हरा दे


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