एक धुंध से आना है, एक धुंध में जाना है...

वीथिका            May 15, 2015


चैतन्य नागर पिछले कुछ दिनों से मौत का कैसा तांडव चल रहा है! सोच कर अजीब-सी दहशत हो रही है कि पास-पड़ोस में, भूकंप, बेमौसम बारिश, तरह-तरह की आपदाओं और मुफलिसी की मार से लोग कैसे मौत के मुंह में समाते जा रहे हैं! हवा में मौत की महक है, अनित्य का आभास है, नश्वरता का नृत्य है। बार-बार मन इस प्राचीन प्रश्न की ओर लौट आता है। क्या है जीवन, क्या है मृत्यु? क्यों आते हैं, क्यों जाते हैं हम? कहाँ जाते हैं? जैसे छोटे कीट-पतंगे बच्चों के हाथ मारे जाते हैं, वैसे ही कुदरत हमारे साथ करती है। मानो, उसके लिए खेल है सबकुछ। हमारे रिश्ते, बरसों का कारोबार, नौकरी, बीमा, संचित धन, परेशानियाँ, हमारी चिंताएं और हमारे सपने, कुदरत के लिए कोई अर्थ नहीं इनका। उसके अपने सिद्धांत हैं, अपने तौर तरीके। और हमारी जीवन शैली के साथ जैसे मेल ही नहीं खाती उसकी संस्कृति। मौत का कारोबार तो ज़िन्दगी की पहली सांस के साथ ही शुरू हो जाता है। जन्म हुआ, तो मृत्यु तो होनी ही है। हादसों को छोड़ दिया जाए, तो आम तौर पर अचानक नहीं होती मौत। धीरे-धीरे जीवन की सीढ़ियां चढ़ती है मृत्यु, धीरे-धीरे संक्रमित होता है रुधिर, आहिस्ता-आहिस्ता टूटते हैं ऊतक, झरती हैं कोशिकाएं। दीमक समय धैर्य के साथ रोज़ चाटता है देह को। हम जान पायें, इससे बहुत पहले ही शुरू हो जाता है मौत का कारोबार। ‘मौत का एक दिन मुअय्यन है, नींद क्यों रात भर नहीं आती’ — ग़ालिब ऐसा सवाल पूछ रहे हैं जिसने हमेशा से इंसान को उलझन में डाला हुआ है। मृत्यु को हम जीवन का बड़ा सच मानते हैं पर इससे भयभीत भी रहते हैं। इसका रहस्य सुलझाने की भी कोशिश करते रहते हैं। एक ओर तो हम कहते हैं कि मृत्यु के बारे में हम कुछ जानते ही नहीं, और दूसरी तरफ उससे डरते भी हैं। जानते हैं, जिसे हम नहीं जानते, उससे डरा नहीं जा सकता है? वास्तव में मृत्यु का भय नहीं होता, भय होता है जीवन के खोने का। जीवन जैसा हम उसे समझते हैं — चीज़ों, लोगों, संबंधों से बना, उसके ताने-बाने से रचा गया हमारा जीवन। उँगलियों के बीच से जब वह रेत की मानिंद सरकता है, तो रोम-रोम में भय रेंगता है। और इस जीवन से इतना गहरा लगाव है कि धर्म हो या विज्ञान, किसी न किसी तरह वह अमरत्व की तलाश में लगा है, न जाने कब से। बर्लिन के मनोवैज्ञानिकों और डॉक्टरों ने ऐलान किया है कि उनके प्रयोगों में यह साबित हुआ है कि मृत्यु के बाद भी किसी रूप में जीवन का अस्तित्व बचा रहता है। वैज्ञानिकों की देख-रेख में उन्होंने मृत्यु के निकट होने के अनुभव (नियर-डेथ एक्सपीरियंस या NDE) का अध्ययन किया और कुछ मरीज़ों को करीब २० मिनट तक मृत्यु की अवस्था में रखने के बाद जीवित किया गया। ये प्रयोग चार वर्षों के दौरान 944 लोगों पर किये गए। ऐसी दवाइयाँ दी जाती हैं जिससे व्यक्ति क्लिनिकल मृत्यु के अनुभव से लौट कर बाहर आ सके। ऑटो पल्स नाम की एक नयी कार्डियोपल्मोनरी रेससिटेशन (CPR) मशीन की मदद से यह प्रयोग संभव हो पाया है। ज़्यादातर मरीज़ों ने इस प्रयोग में एक ही तरह के अनुभवों का ज़िक्र किया, मसलन अपने शरीर से अलग हो जाने का, ऊपर हवा में उड़ने का, पूर्ण शान्ति, सुरक्षा और गर्माहट का अनुभव और बिलकुल खो जाने, विलीन हो जाने का अनुभव। करीब-करीब सभी ने किसी प्रकाश पुंज की उपस्थिति का भी अनुभव किया। जीवन-मृत्यु के बुनियादी सवालों पर धर्म, दर्शन और मनोविज्ञान का अपना रवैया रहा है, और विज्ञान ने तो हमेशा इन सवालों को हमेशा एक उदासीन तटस्थता के साथ ही देखा है। ब्रिटेन की साउथैंप्टन यूनिवर्सिटी के वैज्ञानिकों की टीम ने भी एक प्रयोग शुरू किया था जिसमें ब्रिटेन, अमेरिका और ऑस्ट्रेलिया के 15 अस्पतालों के 2060 मरीज शामिल किए गए थे। इस रिसर्च का सबसे महत्वपूर्ण बिंदु रहा 57 वर्षीय एक सामाजिक कार्यकर्ता का अनुभव। इस शख्स ने हार्ट फेल होने और दोबारा होश आने के बीच की तीन मिनट की अवधि में कमरे में चली एक-एक गतिविधि का पूरा ब्योरा दे दिया। उसका कहना है कि वह हॉस्पिटल रूम के कोने में खड़ा सबकुछ देख रहा था। वैज्ञानिक अब तक मानते रहे हैं कि दिल धड़कना बंद होने के 20 से 30 सेकेंड के अंदर दिमाग काम करना बंद कर देता है और व्यक्ति को क्लिनिकली भी मृत घोषित कर दिया जाता है। इसके बाद कुछ भी सोचना, महसूस करना नामुमकिन है। मगर, इस प्रयोग से ऐसा लगता है कि शरीर की मृत्यु के बाद, उससे बाहर भी चेतना का अस्तित्व है। बेशक, इस एक प्रयोग के आधार परावैज्ञानिक किसी अंतिम निष्कर्ष पर पहुंचने की सलाह नहीं दे रहे । इस ओर तो जीवन की उठापटक है, कोई बड़ी प्रबल, ज़िद्दी चीज़ है जो हमें चक्करघिन्नी की तरह घुमाए जा रही है। यहाँ क्रीड़ा है, पीड़ा है, प्रेम है, रोग है, जरा है, मृत्यु है। अमीरों की अय्याशी है, गरीबों की भूख है। महत्वाकांक्षाएं हैं, सेक्स की दीवानगी है, उसका सुख है, उसे खोने का भय है। और इस सबके अंत में है मौत, जो होनी तो है ही, पर कब, कहाँ, किस कारण से, यह कोई जान नहीं पाया। बरसों तक भागती-दौड़ती देह अचानक शांत हो जाती है। इंसान का अचानक धरती पर आ जाना, और किसी दिन अचानक गायब हो जाना दुनिया के सबसे जटिल, अनसुलझे रहस्यों में है। और गायब भी ऐसा होना, कि फिर कभी भूले-भटके उसके नामोनिशाँ नहीं दिखते। मौत ने हमेशा से इंसान को चकित किया है, दुःख दिया है, उसके अंदर जिज्ञासा पैदा की है, उसे धर्म और ईश्वर की खोज करने पर बाध्य किया है। उसकी नींद उड़ाई हैं, और तमाम संसाधनों के बीच, अपने ऐश्वर्य और विज्ञान के बीच भी उसे बहुत ही ज़्यादा मजबूर, और लाचार महसूस कराया है। बेटी कॉर्डेलिया की मौत के बाद शेक्सपियर के किंग लियर का विलाप भीतर तक झकझोर देता है। वह हाहाकार करते हुए पूछता है: "क्यों, क्यों, किसी कुत्ते, चूहे और घोड़े का जीवन बना रहे, और तुम्हारी सांस बस यूँ ही रुक जाए?" death-0001 दार्शनिकों और कवियों के अलावा मौत शब्द से ही सभी की रीढ़ में दहशत रेंगने लगती है। कवि तो कवि ठहरे! कीट्स कहता था, उसे मौत से प्यार है। सुकरात का कहना था कि "दार्शनिक तो मरने को अपना पेशा ही बना लेते हैं।" जब उसके साथियों ने कहा कि वह जेल से भाग निकले और मौत की सज़ा से खुद को बचा ले, तो सुकरात ने कहा: "मैंने तो जीवन भर देह को आत्मा से अलग करके देखा है। और मृत्यु के समय यही तो होता है। आत्मा देह से अलग हो जाती है। तो अब जब इसका समय आ गया है, तो फिर मैं क्यों भाग जाऊं?" गोरखनाथ कहते हैं: “मरो हे जोगी मारो, मरण करण है मीठा।" नचिकेता और यम की कहानी से कौन परिचित नहीं! उपनिषद की प्रसिद्ध कथा है जिसमें नचिकेता यम से कहता है कि उसे समूचे संसार की धन-दौलत नहीं चाहिए, बस यही जानना है कि मृत्यु क्या है। किसी ने मौत को रूमानी नज़रों से देखा तो किसी ने एक आध्यात्मिक, बौद्धिक, अस्तित्ववादी चुनौती के रूप में जिससे किसी भी हाल में निपटना है। पर यह सवाल तो हर संवेदनशील इंसान ज़रूर पूछता है: "इस पार प्रिये मधु है, तुम हो; उस पार न जाने क्या होगा।" मौत के बारे में मीर के एक शेर का अर्थ है: मौत जीवन की लाचारी के बीच का एक अंतराल है, और उससे आगे भी जाना है। मौत के बाद भी आगे चलने का इशारा करता उनका यह शेर इस्लामी सिद्धांतों के परे है और इसमें वेदांत का प्रभाव दिखता है। फ़िराक़ साहब ने मौत के बारे में लिखा है : मौत का इलाज हो शायद / ज़िंदगी का कोई इलाज नहीं… जीवन और मृत्यु की गुत्थियां और अभी तक कोई इन्हे सुलझा नहीं सका। इसलिए चार्वाक जैसे भौतिकवादी और नास्तिक दार्शनिकों ने सीधा-सा रास्ता अपना लिया होगा यह कह कर कि देह तो राख में बदल जाती है, और मृत्यु के बाद कोई जीवन वगैरह नहीं होता। कई व्याख्याएं हैं, कहानी-किस्से हैं, लतीफे हैं, अटकलबाजियां हैं, उस चीज़ को समझने के लिए गढ़ी गईं बातें हैं, जिसका प्रत्यक्ष अनुभव और फिर वापस लौट कर उस अनुभव का वर्णन अभी तक असम्भव रहा है। अच्छी बात है, विज्ञान ने अपने अंदाज़ में एक दार्शनिक मसला उठाया है। उम्मीद की जानी चाहिए कि यह पहल आगे चलकर इंसानियत को ऐसी रोशनी देगी जिससे विज्ञान और दर्शन दोनों के अंधेरे कोने जगमगा उठेंगे। आइंस्टाइन ने कहा था कि विज्ञान धर्म के बगैर नेत्रहीन है, और धर्म विज्ञान के बिना पंगु है। बेहतर हो कि इन बुनियादी सवालों पर दोनों क्षेत्र के लोग मिल कर काम करें। चैतन्य नागर के ब्लॉग हंसा जाई अकेला से


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