निज भाषा उन्नति अहै, सब उन्नति को मूल।
वीथिका
Sep 14, 2015
श्रीश पांडेय
भाषा कोई भी हो, वह उसे जानने वालों के मध्य संचार का अचूक माध्यम होने के साथ ही सभ्यता व संस्कृति के विकास का वाहक भी होती है। इतिहास साक्षी है कि दुनिया के अलग-अलग भू-भागों में अनेक भाषाओं और बोलियों ने मानव की नैसर्गिक प्रतिभा को पल्लवति, पोषित किया है। आदि मानव में बर्बरता इसीलिए थी, क्योंकि उसकी कोई बोली या भाषा नहीं थी। बस थी तो- भूख, प्यास, नींद और मौजूद थे कहने, सुनने व समझने के लिए कुछ अस्पष्ट स्वर व संकेत। समय के साथ भाषा का निर्माण बड़े जतन से अक्षरों, शब्दों के गढ़ने के बाद हुआ।
आज भारत में लगभग 1618 भाषा एवं बोलियां है और दुनिया में लगभग 6912 भाषाएं एवं बोलियां हैं। जिनके माध्यम से कई मानवपयोगी अनुसंधान व अविष्कार हुए हैं, लेकिन आज इनमें से अधिकांश लुप्त हो चुकी हैं और न जाने कितनी ही लुप्त होने के कगार पर हैं। जैसे बड़ी मछली छोटी को निगल जाती है ठीक वैसे ही बड़ी भाषाएं छोटी भाषा और बोली को लीलती जा रही हैं और भाषा के साथ नष्ट होती है, वहां की मौलिकता, सभ्यता और संस्कृति के साथ एक समूची व्यवस्था, जिसे सदियों से हमारे पूर्वज सहेजते और विकसित करते आ रहे हैं। लेकिन कैसे एक विदेशी भाषा हमारी मौलिकता को नष्ट करती जा रही है, उसका बारीक एहसास मुझे अपने बेटे मानस श्री को उसके स्कूल में मिले गृहकार्य (होमवर्क) की एक अंग्रेजी कविता पढ़ाते वक्त हुआ।
कविता थी 'ओल्ड मेक्डोनॉल्ड हैड अ फॉर्म ईया ईया ओ... विथ सम डॉगस, बाऊ-बाऊ हेयर एण्ड बाऊ- बाऊ देयर’ और इसी प्रकार 'विथ सम कॉऊ,.. मूं-मूं हेयर एण्ड मूं-मूं देयर’ इस कविता में कुत्ते के भौंकने (भों-भों) को बाऊ-बाऊ और गाय के रम्भाने (म्हां-म्हां) को मूं-मूं कहकर बच्चों से रट्टा लगवाया जा रहा है। धर्म क्षेत्र में देखें तो, बच्चे अब देवताओं के नाम गणेश नहीं 'गणेशा’, राम-कृष्ण नहीं 'रामा-कृष्णा’ जैसे सम्बोधन के आदी होते जा रहे हैं। कैसे बचपन से ही मूल स्वरों व आवाजों से इनकी महक छिनती जा रही है। इन्हीं एक-एक शब्दों के जरिए हमारी आने वाली पीढ़ी अपनी भाषा और संस्कृति से परे होती जा रही है। कार्यालयों, रोजमर्रा के मेल मुलाकातों के सम्बोधनों गुडमॉर्निंग, गुडईवðनग, गुडनाईट ने हमारे नमस्कार, प्रणाम, शुभरात्रि जैसे शब्दों को विस्थापित कर दिया है और जो भी बचा है वह प्रभावित हुए बिना नहीं रहने वाला। आचार-विचार और सोच में यह तब्दीली तथाकथित अंग्रेजी दां सोसायटी में तो पूरी तरह उतर ही चुकी है और अब इसका अवतरण कस्बाई इलाकों में भी हो रहा है।
सृजन किसी भी तरह का हो वह मौलिक बोली या भाषा में ही उत्कृष्ट और पूर्ण हो सकता है। गौरतलब है कि मौलिकता ही रचनात्मकता की जनक है और यह अपनी मातृभाषा में ही सम्भव है। तभी तो टैगोर द्वारा बांग्ला में लिखी 'गीतांजलि’ भारत में एकमात्र नोबल पुरस्कार पाने वाली पुस्तक बन कर रह गई। पर राष्ट्रभाषा हिन्दी को लेकर जिस तरह से दोयम दर्जे का व्यवहार भारत में किया जाता है, वैसा दुनिया के किसी और मुल्क में हरगिज नहीं होगा।
इतिहास साक्षी है कि दुनिया के अधिकांश अविष्कार मौलिक भाषा में हुए हैं। यथा आज भी चीन में मंदारिन, फ्रांस में फ्रेंच, रूस में रशियन, जापान में जैपनीज भाषा में ही समस्त कार्य जारी हैं। यहां तक कि उनके राजनयिक देश-विदेश की यात्राओं में अपने देश की राष्ट्रभाषा बोलने में नहीं हिचकते। लेकिन भारत में ऐसी स्थितियों में नेता अंग्रेजी के पक्ष में रहते हैं, न कि राष्ट्रभाषा के।
भारत में स्थितियां दिनोंदिन विपरीत होती जा रही हैं। इन दिनों देश में अंग्रेजी को रोजगार से जोड़ देने की साजिश चल पड़ी है। अंग्रेजी माध्यम में पढ़ाई कर रहे बच्चों को एक अलग समूह के रूप में देखा जाने लगा है, जैसा पहले कभी ब्रितानी हुकूमत के दौर में था। आज भारत की शिक्षा प्रणाली में अंग्रेजी की अनिवार्यता बना दी गई है। पिछले दो वर्षों में इसे पढ़ाने का एक नया चोर रास्ता गढ़ दिया गया। प्रतियोगी परीक्षाओं में अंग्रेजी की अनिवार्यता, पास होने के स्थान पर चयन का कारक बना दी गई है।
क्या इसके मायने यह नहीं कि जो बच्चे कस्बाई या ग्रामीण क्षेत्रों में हिन्दी माध्यम के सरकारी स्कूलों में मध्यान भोजन की सुविधा के मध्य अध्ययन कर रहे हैं, वे प्रतियोगी परीक्षा के लिए अयोग्य हैं? उनके नसीब में अभी मुफ्त का मध्यान भोजन है, बाद में मनरेगा की मजदूरी का होगा। सवाल बड़ा है पर उठाया नहीं जाता कि ऐसे स्कूलों से निकले प्रतिभाशाली बच्चों के लिए अंग्रेजी का अतिरिक्त अतिरिक्त बोझ क्यों? देश में इससे बड़ा भाषाई भ्रष्टाचार और क्या हो सकता है? जो तथाकथित अंग्रेजीदां नीति नियंताओं द्वारा फैलाया गया है।
आर्थिक भ्रष्टाचार से तो मात्र भौतिक स्तर पर देश को नुक्सान पहुंचाता है, जिस पर कठोर कानूनी उपायों और भ्रष्ट व्यक्तियों के सामाजिक तिरस्कार द्वारा नियंत्रण पाया जा सकता है, लेकिन भाषा को लेकर हो रहा भेदभाव समाज की रचनाशक्ति, उसकी प्रतिभा यहां तक की सभ्यता के लिए धीमा जहर साबित हो रहा है। मुझे एक पत्रकार मित्र ने बताया है कि आज-कल बड़े हिन्दी दैनिकों में छपने वाले आलेख कई बार अंग्रेजी भाषा के लेखकों के होते हैं, जिनके निमित्त दफ्तरों में बाकायदा हिन्दी अनुवादकों को रखा जाता है। मित्र यह कहने से नहीं चूके कि यदि हिन्दी अखबार में बने रहना (सरवाइव करना) है, सो अंग्रेजी में पढ़ना-लिखना सीखिए वरना...! उनकी यह चेतावनी हिन्दी भाषा से विरक्ति को लेकर नहीं थी, बल्कि रोजगार को बरकरार रखने को लेकर थी।
हाल में दसवां विश्व हिदी सम्मलेन भोपाल में संपन्न हुआ। जितने लोग उतनी बातें, इस सम्मलेन के बरक्स, जमकर काना फूसी हुई। दरअसल असल सम्मेलन यही था। मोदी आये, शिवराज ने भी आसन लिए। पर किसी में हिम्मत नहीं थी कि कह देते कि प्रतियोगी परीक्षाओं में अंग्रेजी की अनिवार्यता समाप्त की जाती है। भले ये दोनों आजाद भारत में जन्मे, पर संस्कार तो बोल ही गए, हिम्मत डोल गयी। एक-एक सरकारी स्कूल हिंदी माध्यम का है, पर एक भी नौकरी बिना अंग्रेजी में दक्षता लिए नहीं है। जब ऐसा पाखंड, देश का पीएम और प्रदेश का सीएम पाले हों तो फिर किससे आस लगाई जा सकती है? अब तो बस एक तिथि है 14 सितम्बर यानी 'हिन्दी दिवस’ जिस दिन राष्ट्रभाषा को याद कर लिया जाता। शायद भारतेन्दु हरिश्चन्द्र की दी गई सीख हमने विस्मृत कर दी है कि -
निज भाषा उन्नति अहै, सब उन्नति को मूल। बिन निज भाषा ज्ञान के मिटे न हिय को शूल।।
Comments