निष्काम कर्मयोगी डॉक्टर दंपति,जो लेते हैं महज दो रूपये फीस
वीथिका
Nov 20, 2015
संजय गोविंद खोचे
जी हाँ, कोई गलती नहीं, कोई मिसप्रिंट नहीं, आपने शीर्षक में एकदम सही पढ़ा है, महाराष्ट्र के आदिवासी इलाके मेलघाट में पिछले 24 साल से काम कर रहे, डॉ. श्री. रवीन्द्र कोल्हे की फ़ीस सिर्फ़ 2 रुपये है (पहली बार) और दूसरी बार में 1 रुपया।
पूज्य विनोबाजी भावे के “सच्चे अनुयायी” डॉ. रवीन्द्र कोल्हे सभी से जॉन रस्किन का यह वाक्य कहते हैं कि, “यदि आप मानव की सच्ची सेवा करना चाहते हैं तो जाईये और सबसे गरीब तथा सबसे उपेक्षित लोगों के बीच जाकर काम कीजिये।"
जब रवीन्द्र कोल्हे नामक नौजवान ने MBBS की पढ़ाई के बाद मेलघाट के अति-पिछड़े इलाके में नौकरी की, तब उन्हें अहसास हो गया था कि, इन गरीब आदिवासी भाईयों की गहन पीड़ा और आवश्यकतायें सामान्य व्यक्तियों से अलग है।
तब उन्होंने MD की डिग्री हासिल की और पुनः मेलघाट आकर कोरकू आदिवासियों के बीच काम करने लगे। इन्होंने नागपुर विश्वविद्यालय से MBBS किया, वे शुरु से ही विनोबा भावे के कार्यों और विचारों से बेहद प्रभावित थे।
उन्होंने मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र और गुजरात के कई जिलों का दौरा किया और पाया कि महाराष्ट्र का गढ़चिरौली इलाका नक्सलवाद, गरीबी और बीमारी से जूझ रहा है तब उन्होंने मेलघाट को ही अपना स्थाई ठिकाना बनाने का फ़ैसला किया।
उनकी माताज़ी ने नक्सलवाद के खतरे को देखते हुए उन्हें मनाने की बहुत कोशिश की लेकिन रवीन्द्र कोल्हे ठान चुके थे कि उन्हें आदिवासियों के बीच ही काम करना है। उनका पहनावा और हुलिया देखकर कोई भी नहीं कह सकता कि यह एक MD डॉक्टर हैं।
अपने पुराने दिनों को याद करते हुये डॉ. रवीन्द्र कोल्हे कहते हैं, “उन दिनों इस पूरे इलाके में सिर्फ़ 2 स्वास्थ्य केन्द्र थे। मुझे अपनी क्लिनिक तक पहुँचने के लिये धारणी से बैरागढ़ तक रोजाना 40 किमी पैदल चलना पड़ता था। मुझे इन जंगलों में रोजाना कम-से-कम एक शेर जरूर दिखाई दे जाता था, हालांकि पिछले 4 साल से मैने यहाँ कोई शेर नहीं देखा।"
मेलघाट का मतलब होता है, वह जगह जहाँ 2 घाटों का मिलन होता है। यह गाँव महाराष्ट्र और मध्यप्रदेश की सीमा पर बसा हुआ है, और पहाड़ियों की गहरी हरियाली को सिर्फ़ एक ही बात भेदती है वह है यहाँ के स्थानीय निवासी कोरकू आदिवासियों का रंगीन पहनावा।
विकास के नाम पर इस पूरे इलाके में कुछ भी नहीं है, मीलों तक सड़कें नहीं हैं और गाँव के गाँव आज भी बिजली के बिना अपना गुज़ारा कर रहे हैं।
टाइगर रिज़र्व इलाका होने की वजह से यहाँ किसी प्रकार का “इंफ़्रास्ट्रक्चर” बनाया ही नहीं गया है, ये और बात है कि पिछले कई साल से यहाँ एक भी टाइगर नहीं देखा गया है, अलबत्ता केन्द्र और राज्य से बाघ संरक्षण के नाम पर पैसा खूब आ रहा है।
जंगलों के अन्दर आदिवासियों के गाँव तक पहुँचने के लिये सिर्फ़ जीप का ही सहारा है, जो ऊबड़-खाबड़ ज़मीन पर चल जाती है। यहाँ के आदिवासी सिर्फ़ पहाड़ी झरनों और छोटी नदियों के सहारे ही छोटी-मोटी खेती करके अपना पेट पालते हैं, क्योंकि न तो यहाँ सिंचाई व्यवस्था है, न ही पम्प, क्योंकि बिजली भी नहीं है।
ऐसी जगह पर डॉ रवीन्द्र कोल्हे एवम् उनकी धर्मपत्नी सौ. स्मितादेवी पिछले 24 साल से अपना काम एक निष्काम कर्मयोगी की तरह कर रहे हैं।
पहली बार जब भी कोई रोगी आता है तब वे उससे सिर्फ़ 2 रुपये फ़ीस लेते हैं और अगली बार जब भी वह दोबारा चेक-अप के लिये आता है तब 1 रुपया।
अपने खुद के खर्चों से उन्होंने एक छोटा क्लिनिक खोल रखा है, और वे वहीं रहते भी हैं जहाँ कोई भी 24 घण्टे उनकी सलाह ले सकता है।
ऐसे भले व्यक्ति को नमन।
संजय गोविंद खोचे के फेसबुक वॉल से
Comments