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फिल्म समीक्षा:कहानी के नाम पर चूं-चूं का मुरब्बा साहो

पेज-थ्री            Aug 30, 2019


डॉ. प्रकाश हिन्दुस्तानी।
साहो का एक प्रसिद्ध वनलाइनर है। हर जुर्म का मकसद हो्ता है और हर मुजरिम की कहानी। इसी तरह हर फिल्म बनाने का कोई मकसद होता है और दर्शक को फिल्म देखने का बहाना। साहो को लोग बड़े बजट और प्रभास के कारण देखने जा सकते हैं।

दो साल और 300 करोड़ रुपये खर्च करके बनाई गई साहो इसलिए देखनी चाहिए कि भारतीय फिल्म निर्माता हाॅलीवुड की नकल कितनी कर पाते है। आधे घंटे का क्लाइमेक्स, दर्शकों को बांध रखता है, लेकिन पूरी फिल्म में कहानी नाम की कोई चीज है नहीं।

प्रभास को दिखाने के लिए फिल्म बनी है और इसमें प्रभास ही प्रभास है। प्रभास वो प्राणी है, जिसे अग्नि जला नहीं सकती, पानी गला नहीं सकता और वायु उड़ा नहीं सकती। ऐसे हीरो हिन्दी फिल्मों में बहुत हुए है। प्रभास भी उन्हीं में से एक है।

फिल्म देखते वक्त दर्शक को समझ ही नहीं आता कि वह चोर है, पुलिस अधिकारी है या अंडरवर्ल्ड के डॉन का उत्तराधिकारी है। कभी लगता है कि वह तो महान जनसेवक रॉय का उत्तराधिकारी है। अब यह रॉय कैसा जनसेवक था, कौन था, यह तो पता नहीं।

क्या वह सुब्रतो रॉय सहारा का रिश्तेदार रहा होगा? हीरोइन उससे मोहब्बत करती है, फिर नफरत करती है, फिर मोहब्बत करती है, फिर नफरत करती है और चूंकि प्रभास हीरो है, इसलिए उसे उससे मोहब्बत करनी ही पड़ती है। वरना डायरेक्टर पैसे क्यों देता?

साहो हिन्दी, तमिल और तेलुगु भाषाओं में बनी है और एक साथ 10 हजार स्क्रीन पर दिखाई जा रही है। जाहिर है निर्माता को दो-तीन दिन में ही लागत वसूल करनी है। सिनेमा घर में जाने वाले युवा दर्शकों को फिल्म के एक्शन रोमांचित करती है।

रोहित शेट्टी तो अपनी फिल्मों में केवल कार ही उड़ाते है, लेकिन सुजीत ने तो इस फिल्म में कार, हेलीकॉप्टर, बड़ी-बड़ी बिल्डिंगें, हवाई जहाज और ऐसी न जाने क्या-क्या चीजें उड़ा दी है, जो कभी नहीं उड़ती। क्राइम थ्रिलर फिल्म में रोमांस भी ठूंसा गया है और फिल्मी गाने भी। साहो को अलग-अलग भाषाओं में डब नहीं किया गया है, बल्कि बनाया ही गया है।

इसलिए प्रभास जब संवाद बोलते है, तब लगता है कि उन्हें संवाद बोलना नहीं आता। तमिल और तेलुगु में श्रद्धा कपूर ने क्या किया होगा, कल्पना करना मुश्किल है। वर्ष की सबसे बड़ी एक्शन फिल्म साहो में वीएफएक्स का जबरदस्त इस्तेमाल किया गया है।

श्रद्धा कपूर के लिए ज्यादा कुछ करने को था नहीं और न ही उनका किरदार प्रभावशाली है।

फिल्म देखते वक्त समझ में ही नहीं आता कि नील नितिन मुकेश हीरो है या खलनायक। पुलिस अधिकारी के रूप में उस व्यक्ति का एक ही कसूर है कि वह हीरो के विरुद्ध है, वरना वह कोई अनैतिक कार्य नहीं करता।

अब हिन्दी फिल्मों में नैतिकता, सच्चा प्यार, वफादारी, ईमानदारी आदि तो अतीत की चीजें हो चुकी हैं। कोई भी पुलिस अधिकारी देशद्रोहियों से मिला हो सकता है और कोई भी देशद्रोही पुलिस अधिकारी साबित हो सकता है।

ईमानदार पुलिस अधिकारी भी खलनायक हो सकता है और हिंसक हीरो भी दर्शकों को पसंद आ सकता है। कुल मिलाकर पूरी तरह गड्ड-मड्ड फिल्म है। एक्शन सीन देखते हुए अच्छा लगता है, लेकिन समझ नहीं आता कि यह सब क्यों हो रहा है।

जिस व्यक्ति को मारना हो, उसे प्यार से गोली मारी जा सकती है, लेकिन डायलॉग बाजी करके बचने की छूट देना क्यों जरूरी है?

ऐसा लगता है कि फिल्म निर्देशक ने पहले ही सोच लिया था कि इस फिल्म में क्या-क्या होना चाहिए। भीषण मारधाड़, कारों की दौड़, स्काई जम्पिंग के सीन, अबु धाबी, रोमानिया और भारत में मुंबई तथा हैदराबाद के शानदार दृश्य, कुछ रोमांटिक सीन, बाप-बेटे की कहानी, दर्शकों को इमोशनल बनाने के लिए दो-चार डायलॉग, हैरतअंगेज करतब और शानदार लोकेशन्स दिखाने का तय किया गया होगा।

फिर एक कहानी बनाई गई होगी, जिसमें केवल प्रभास ही प्रभास हो। अब ऐसे में फिल्म की जो कहानी बनी, उसमें एक दृश्य का दूसरे दृश्य से कोई संबंध हो यह जरूरी नहीं।

मारधाड़ के दृश्यों के लिए अफ्रीकी निग्रो कलाकारों को लिया गया और फालतू खर्च करने के लिए मंदिरा बेदी, जैकलिन फर्नांडिस, महेश मांजरेकर, चंकी पांडे, जैकी श्रॉफ, मुरली शर्मा आदि की भर्ती की गई, जिनके रोल दो-चार मिनट से अधिक के नहीं है।

इन सबके साथ अगर फिल्म में कहानी भी होती, तो बेहतर होता। फिल्म के गाने बेहद झिलाऊ है। प्रभास के मुंह से पंजाबी तड़के वाले गाने अटपटे लगते है।

पर्दे पर एक्शन देखने के शौकीन यह फिल्म देखने जा सकते हैं, मजा आ जाएगा। बस, दिमाग का उपयोग मत कीजिए। जिस तरह कविता में अकविता होती है, उसी तरह यह फिल्म बिना कहानी की फिल्म है या कहानी के नाम पर चूं-चूं का मुरब्बा।

 



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