राकेश दुबे।
हाल ही में सम्पन्न विधान सभा और दिल्ली नगर निगम चुनाव के बाद एक बार फिर यह साफ हुआ है कि राजनीति में अपराधीकरण खत्म करने को लेकर कोई भी राजनीतिक पार्टी गंभीर नहीं है।
गुजरात में चुनाव पूर्व पकड़ी गई नकदी और नशीले पदार्थों की खेप और चुनाव पश्चात् छन-छन कर आ रही खबरें यही प्रमाणित कर रही है कि अपराध और चुनाव के बीच गंभीर रिश्ता है।
उसके निवारण के बारे में न तो बड़े राजनीतिक दल सोच रहे हैं और न वैकल्पिक राजनीति देने की बात करने वाले नये दल ही!”
सार्वजनिक रूप से राजनीतिक दल और उनके नेता चाहे कितने भी दावे करें कि वे राजनीति को स्वच्छ बनाने के लिए काम करेंगे।
लेकिन मौका मिलते ही वे भी इस बात का वे खयाल रखना भी जरूरी नहीं समझते कि अपराध के आरोपी या आपराधिक पृष्ठभूमि वाले किसी व्यक्ति को उम्मीदवार बनाने से कौन-सी परंपरा मजबूत होगी?
बाकी खबरें भी जल्दी सामने आयेंगी, अभी तो दिल्ली नगर निगम चुनावों में जीते पार्षदों के संदर्भ में ‘एसोसिएशन फार डेमोक्रेटिक रिफार्म्स’ यानी एडीआर और ‘दिल्ली इलेक्शन वाच’ की ओर से जारी एक रिपोर्ट में बताया गया है कि 248 विजेताओं में से 42 यानी सत्रह फीसद निर्वाचित पार्षद ऐसे हैं, जिन पर आपराधिक मामले दर्ज हैं।
इसके अलावा, 19 पार्षद गंभीर आपराधिक मामलों के आरोपी हैं। विडंबना है कि यह प्रवृत्ति कम होने के बजाय हर अगले चुनाव में और बढ़ती ही दिख रही है।
मध्यप्रदेश में ओ असत्य जानकारी देने के आरोप में चुनाव तक रद्द हो चुके हैं।
आज प्रश्न है कि आए दिन राजनीतिक परिदृश्य को एक स्वच्छ और नई छवि देने से लेकर ईमानदारी का दावा करने वाली पार्टियों और उनके नेताओं के लिए चुनावों के आते ही यह सवाल महत्त्वहीन क्यों हो जाता है?
देश के कुछ अन्य राज्यों में जब स्थानीय स्तर पर राजनीति में अपराधियों के दखल को लेकर चिंता जताई जाती है तो उम्मीद बंधती है कि कम से कम राजधानी दिल्ली में नई शुरुआत होगी।
लेकिन पिछले कई सालों से होने वाले चुनावों में यह देखा गया है कि यहां भी वही प्रवृत्ति हावी होती जा रही है।
दिल्ली में फरवरी, 2020 में हुए विधानसभा चुनाव के नतीजों के बाद भी एडीआर ने अपने विश्लेषण में चुने गए कम से कम आधे विधायकों पर गंभीर आपराधिक मामले दर्ज पाए थे।
इसमें मुख्य रूप से आम आदमी पार्टी के विधायक थे।
अब दिल्ली नगर निगम के चुनावों में भी किसी पार्टी ने उम्मीदवार बनाने के लिए स्वच्छ छवि के व्यक्ति को तरजीह देने की जरूरत नहीं समझी।
नतीजतन, जनकल्याण के नारे और वादे के साथ जो उम्मीदवार जीत कर पार्षद बने हैं, वे खुद गंभीर अपराधों के आरोपों से जूझ रहे हैं।
देश में जब भी राजनीति के अपराधीकरण का मुद्दा बहस का केंद्र बनता है तो अमूमन सभी दलों की ओर से बढ़-चढ़ कर इसके खिलाफ अभियान चलाने और इसे खत्म करने के दावे किए जाते हैं।
लेकिन जब चुनाव आता है तो वही राजनीतिक पार्टियां आपराधिक पृष्ठभूमि वाले लोगों या फिर अपराध के आरोपियों को उम्मीदवार बनाने में कोई हिचक नहीं महसूस करती हैं।
दुर्भाग्यपूर्ण बात यह है कि इसमें वैसी पार्टियां भी शामिल हैं, जिनका राजनीति में उदय ही भ्रष्टाचार जैसे मुद्दे के खिलाफ अभियान चलाने से हुआ।
आज़ादी के बाद से देश के नागरिकों को यह उम्मीद थी कि राजनीतिक पार्टियाँ राजनीति को अपराधीकरण से मुक्त एक नया चेहरा देंगी।
लेकिन ऐसा लगता है कि लगभग सभी पार्टियों ने यह मान लिया है कि राजनीति में आपराधिक पृष्ठभूमि के लोगों के बिना काम नहीं चल सकता।
वरना क्या कारण है कि ईमानदार और प्रतिबद्ध आम लोगों से लेकर कार्यकर्ताओं तक की एक श्रंखला होने के बावजूद किसी पार्टी के शीर्ष नेतृत्व को जनता का प्रतिनिधि चुने जाने के लिए स्वच्छ छवि को एक अनिवार्य शर्त बनाना जरूरी नहीं लगता?
नगरनिगम से लेकर संसद तक हर राजनीतिक दल के पास ऐसे चेहरे मौजूद हैं जिनकी जगह ये सदन नहीं होना चाहिए थे।
देश के किसी राजनीतिक दल को इनसे गुरेज नहीं है, न्यायपालिका की अपनी सीमा है, वह शिकायत आने पर कुछ करती है।
चुनाव के दौरान आई गुजरात जैसी शिकायत और मध्यप्रदेश जैसे चुनाव निरस्त होने पर ये दल सबक क्यों नहीं लेते ?
अभी इन चुनावों के नतीजों की समीक्षा जारी है सब जगह से दिल्ली जैसे समाचार मिलेंगे, इसकी उम्मीद ज्यादा है।
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