2019 में चुनावी चौखट पर किसान राजनीति का नया मॉडल देंगे

खरी-खरी            Jun 15, 2017


पुण्य प्रसून बाजपेयी।
मोदी के सामने कोई नेता नहीं टिकता, लेकिन देश में कोई मुद्दा बड़ा हो जाये तो क्या मोदी का जादू गायब हो जायेगा? ये सवाल इसलिये क्योंकि इंदिरा गांधी के दौर को याद कर लीजिये। कहां कोई विपक्ष का नेता इंदिरा गांधी के सामने टिकता था। खासकर 1971 के बाद इंदिरा लार्जर दैन लाइफ की इमेज वाली जीती जागती नेता थीं और कोई सोच भी नहीं सकता था कि इंदिरा की सत्ता जो 1973 तक अजेय दिखायी दे रही थी, 1974 के आते आते वही सत्ता डगमगाने लगेगीं

उस वक्त जेपी कोई इंदिरा के विकल्प नहीं थे, वे सिर्फ जनता के भीतर के सवालों को सतह पर ला रहे थे और देखते देखते गुजरात से बिहार तक इंदिरा के खिलाफ आम जनता की गोलबंदी ही कुछ इस तरह होती चली गई कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ भी आंदोलन में शरीक हो गया। संघ के भीतर की राजनीतिक कुलबुलाहट को भी पहली बार देवरस ने राजनीतिक शुद्धिकरण कहीं आगे ला खड़ा किया। ठीक इसी तरह नया सवाल मोदी या कोई विकल्प के ना होने का नहीं बल्कि बेरोजगारी के बाद किसान के मुद्दों को लेकर जो कुलबुलाहट समाज के भीतर पनप रही है, अगर वह सतह पर आ जाये तो क्या देश की राजनीति बदल सकती है?

किसान या युवाओं से जुड़ा मुद्दा राष्ट्र या राजनीति में ही उठा-पटक ना कर दे। इस पर बाखूबी मौजूदा सत्ता की नजर भी होगी और मौजूदा सत्ता को भी इंदिरा का दौर याद होगा। तो मुद्दा उभरेगा तो संघ की सक्रियता भी होगी। जैसे किसानों के मुद्दे पर किसान संघ सक्रिय है। यानी आने वाले वक्त में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की पहल मौजूदा सत्ता के लिये तमाम अवरोधों को दूर कर रास्ता निकालने की होगी। मौजूदा हालात को देख कर कोई भी नौसिखिया राजनीतिज्ञ ये कह सकता है कि अब संघ स्वामीनाथन आयोग की सिफारिशों को लागू करने के लिये दबाव बनायेगा और आखिर में मोदी सरकार स्वामीनाथन आयोग की सिफारिशों को लागू कर खुद को नायक के तौर पर स्थापित कर लेगी। ये हो भी सकता है कि ये सब गुजरात चुनाव से एन पहले हो।

लेकिन ये भी पहली बार हो रहा है कि कोई एक दल यानी बीजेपी चुनाव दर चुनाव तो जीत रही है लेकिन देश में राजनीतिक शून्यता और गहरी होती जा रही है। यानी सवाल ये नहीं है कि कांग्रेस हो या वामपंथी या फिर कोई भी विपक्ष या समूचा विपक्ष भी मौजूदा मोदी सरकार का विकल्प बन नहीं पा रहा है या इनका इकट्ठा होना भी बीजेपी के लिये कोई खतरे की घंटी नहीं है। क्योंकि जब केन्द्र समेत 17 राज्यों में बीजेपी की सरकार हो चुकी हो और आने वाले वक्त में कर्नाटक, हिमाचल, ओड़िशा को लेकर भी लग रहा हो कि वहां भी बीजेपी आ जायेगी, तो कह सकते हैं कि बीजेपी स्वर्णिम काल को जी रही है। संघ के लिये बेहतरीन दौर है जब उसके प्रचारक सत्ता में है और एजेंडा देश में लकीर खींच रहा है। लेकिन इस दौर की बारीकी को समझें तो मुश्किल ये है कि बीजेपी जीत कर भी कमजोर हो रही है। संघ की सत्ता में होने के बावजूद वह अपने ढलान पर है और इसकी कोई दूसरी वजह नहीं बल्कि सिर्फ इतनी सी वजह है कि जिन मुद्दों को कटघरे में देश खड़ा है, उन मुद्दों को अभी तक सुलझाने के लिये जनता ने संघ परिवार या बीजेपी की तरफ देखा।


कांग्रेस सत्ताधारी पार्टी रही है और उसकी सत्ता तले ही गरीबी, महंगाई, भ्रष्टाचार , दलाली या संस्थानों के खत्म होने की शुरुआत हुई। इन्हीं सवालों को नरेन्द्र मोदी ने चुनाव प्रचार के वक्त मुद्दा भी बनाया। लेकिन मोदी के सत्ता में आने के बाद अगर वही सवाल फन उठाये हुये हैं तो नया सवाल ये नहीं है कि फिर से जनता कांग्रेस को ले आये, नया सवाल राजनीतिक व्यवस्था से मोहभंग के हालात बनना है। कांग्रेस की राजनीति का पर्याय बीजेपी में नहीं देखना है या कहें कमोवेश हर राजनीतिक दल का मतलब सत्ता में आने के बाद उसका कांग्रेसीकरण हो जाना है।

ये भी कोई सोच सकता है, क्योंकि सरकारी आंकड़ों के लिहाज से ही समझें तो बीते 15 बरस में कमोवेश हर राजनीतिक दल ने एनडीए-यूपीए गठबंधन के दौर में सत्ता की मलाई चखी। लेकिन इन्हीं 15 बरस में किसान ही नहीं बल्कि छात्र और बेरोजगार युवाओं की खुदकुशी के सच को परख लें तो हर घंटे दो किसान ने भी खुदकुशी की और हर घंटे दो छात्र या युवा बेरोजगार ने भी खुदकुशी की। 15 बरस में किसानों की खुदकुशी का आंकड़ा 2 लाख 34 हजार से ज्यादा का है। और इन्हीं 15 बरस में छात्रो की खुदकुशी 95 हजार से जेयादा तो युवा बेरोजगारों की खुदकुशी की संख्या एक लाख 44 हजार से ज्यादा की है।

तो फिर सत्ता के परिवर्तन ने ही क्या किसान-युवाओ में उम्मीद जगाये रखी कि हालात ठीक हो जायेंगे। अगर ऐसा है तो अगला सवाल ये भी है कि पहली बार किसान जिस तरह अपनी फसल की किमत ना मिलने से परेशान है और सरकार को भी सुझ नहीं रहा है कि आखिर कैसे फसल की किमत को भी देने की व्यवस्था वह कर दें। तो समाधान के रास्ते कर्ज माफी और फसल बीमा से सुलझाने के प्रयास तल खोजे जा रहे हैं। लेकिन राजनीति इस सच से आंखें मूंदे हुये है कि किसानों के मुद्दे से आंखें नेहरु के दौर में भी मूंदी गईं। तब लाल बहादुर शास्त्री ने जय जवान के नारे के साथ जय किसान को भी जोड़ा। लेकिन इंदिरा गांधी से लेकर मोदी तक के दौर में किसान कभी पंचवर्षीय योजनाओं में ही नहीं बल्कि हर बरस के बजट मे भी जगह पा नहीं पाया। 1991 के बाजार इकानॉमी से पहले या बाद के 25 बरस के दौर में ये मान कर हर राजनीतिक सत्ता ने काम किया कि खेती पर जितनी बड़ी तादाद टिकी हुई है उसमें जीडीपी में खेती का योगदान कम होगा ही।

यानी रुपया कहां से कमाया जाये और कहां खर्च किया जाए? अर्थव्यवस्था की सारी थ्योरी इसी पर टिकी रही। यानी किसान का पेट भरा रहे, किसान के बच्चों को शिक्षा-स्वास्थ्य सर्विस मिले, देश के सोशल इंडेक्स को छूने की स्थिति में किसान भी रहे। ये कभी किसी सरकार ने सोचा ही नहीं और चुनावी राजनीति को ही लगातार लोकतंत्र का जामा पहनाकर किसान ही नहीं युवा बेरोजगार और हाशिये पर तबकों में जब यही आस जगायी गयी कि सत्ता बदलने से हालात बदल जायेंगे तो क्या 2019 का चुनाव इस सोच के विकल्प के तौर पर याद किया जायेगा।

क्योंकि 2014 में जो भी वादे गढ़े गये, जो भी राजनीतिक आरोप गढ़े गये, वह सही-गलत जो भी हो लेकिन पहली बार देश प्रचार—प्रसार या कहें टेक्नालाजी के जरीये ऐसे चुनावी दौर में आया, जहां जो दिल्ली में दिखायी देता वही मंदसौर में दिखायी दे रहा था। जो मुंबई की हवा में राजनीतिक माहौल की गर्मी थी वही यूपी के किसी गांव में तपिश महसूस की जा रही थी । यानी आर्थिक असामनता के बावजूद चुनावी लोकतंत्र ने महानगर से लेकर गांव तक को एक प्लेटफार्म पर ला खड़ा कर दिया।

चाहे अनचाहे मोदी सरकार से नहीं बल्कि वोटरो की तादाद से भी चुनावी लोकतंत्र का आकलन होने लगा। और जब देश इतना राजनीतिक हो गया कि हर मुद्दे का राजनीतिक समाधान ही खोजने लगा तो फिर 2019 के चुनाव में ये अक्स क्या हालात पैदा कर सकता है ये किसे पता है। क्योंकि जिस तरह किसानों के संघर्ष व किसानों की त्रासदी , उनके दर्द को हड़पने की राजनीतिक दल सोच रहे हैं उसमें पहली नजर में लग तो यही रहा है कि मोदी की राजनीति के सामने बौने पड़ते हर राजनीतिक दलों को पहली बार किसान संघर्ष में अपनी सियासी जमीन दिखायी देने लगी है।

दरअसल, संसदीय चुनावी राजनीति के अक्स में अगर किसान को वोटर मान कर लोकतंत्र की धार को परखे तो फिर देश के इस अनूठे सच को भी समझ लें कि 2014 के लोकसभा चुनाव में कुल वोटर 83करोड 40 लाख , 82 हजार 814 वोटर थे। जिनमें से बीजेपी को 17 करोड 14 लाख 36 हजार 400 वोट मिले और दूसरी तरफ कांग्रेस को 10 करोड 67 लाख 32 हजार 985 वोट मिले। देश में किसान मजदूर का सच ये है कि कुल 26 करोड 29 लाख किसान-मजदूर देश में है । जिनमें 11 करोड 86 लाख किसान तो 14 लाख 43 हजार मजदूर।

यानी देश के ससंदीय राजनीति के इतिहास में 1951 से लेकर 2014 तक कभी किसी एक पार्टी को देश में मौजूद किसान-मजदूरों की तादाद से ज्यादा वोट नहीं मिला। लेकिन हर राजनीतिक दल के चुनावी घोषणापत्र में किसानों के हक की बात हर किसी ने जरुर की। 2014 में काग्रेस और बीजेपी दोनों ने बकायदा अपने अपने मैनिफेस्टो में किसानों पर पन्ना भर खर्च भी किया गया। कांग्रेस ने उपलब्धियां गिनायीं तो बीजेपी ने भी 2014 के चुनावी घोषणापत्र में 50 फीसदी न्यूनतम समर्थन मूल्य बढ़ाने का वादा किया। सत्ता में आने वाले अगले बरस ही केन्द्र सरकार 50 फीसदी समर्थन मूल्य बढ़ाने से 2015 में ही पलट गई।

बकायदा 21 फरवरी 2015 को कोर्ट में एफिडेविट देकर कहा कि 50 फीसदी न्यूनतम समर्थन मूल्य बढ़ाना संभव नहीं है। सरकार के मुताबिक ऐसा करने से बाजार पर विपरित प्रभाव होगा। और तो और जिन राज्यों में किसानों को प्रति क्विंटल धान पर तीन सौ रुपये का बोनस मिलता था वह भी बंद कर दिया गया। तो सवाल सिर्फ चुनावी वादे और उससे पलटने भर का नहीं है। सवाल तो ये भी है कि भारत ने डब्ल्यूटीओ के साथ समझौता कर 10 फीसदी से ज्यादा समर्थन मूल्य ना बढ़ाने पर हस्ताक्षर किये हुये हैं। आखिरी सवाल ये भी है कि जब राजनीतिक सत्ता के लिये बाजार ही मायने रखता है और बाजार अर्थव्यवस्था में किसान के लिए कोई जगह है ही नहीं तो फिर संसदीय चुनावी लोकतंत्र का मतलब किसान के लिये है क्या? और अगर किसानों की खुदकुशी तले ही चुनावी राजनीति का लोकतंत्र जी रहा है तो फिर किसान को करना क्या
चाहिये?

क्योंकि एक सच तो ये भी है कि किसानों से जुडे देश भर में 62 किसान संघ काम कर रहे हैं यानी राजनीति कर रहे हैं और राजनीति करने वाले किसानों की जिन्दगी बदल गई लेकिन किसान की हालत बद से बदतर ही हुई। तो फिर 2019 में राजनीति को ही चुनावी लोकतंत्र की चौखट पर किसान खारिज कर दें या नये तरीके से परिभाषित कर दें। मानिये या ना मानिये हालात उसी दिशा में जा रहे हैं, जो खतरे की घंटी है। सवाल यही है कि राजनीतिक सत्ता इसे समझेगी या सत्ता के लिये राजनीति इस आग को और भड़कायेगी और किसान राजनीति के इस सच को समझेंगे और देश को ही राजनीति का नया मॉडल देंगे।

 



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