पुण्य प्रसून बाजपेयी।
किसान की कर्ज माफी और रोजगार से आगे बात अभी भी जा नहीं रही है और बीते ढाई दशक के दौर में चुनावी वादो के जरीये देश के हालात को समझे तो सडक बिजली पानी पर अब जिन्दगी जीने के हालात भारी पड रहे है।
ऐसे में से सवाल है कि क्या वाकई सत्ता संभालने के लिये बैचेन देश के राजनीतिक दलो के पास कोई वैकल्पिक सोच है ही नहीं। क्योकि राजस्थान , मध्यप्रदेश और छत्तिसगढ के चुनावी महासंग्राम में कूदी देश की दो सबसे बडी राष्ट्रीय राजनीतिक पार्टियो भी या तो खेती के संकट से जुझते किसानो को फुसलाने में लगी है। या फिर बेरोजगार युवाओ की फौज के घाव में मलहम लगाने की कोशिश कर रही है।
चूंकि चार महीने बाद ही देश में आम चुनाव का बिगुल बजेगा तो हिन्दी पट्टी के इन तीन राज्यो के चुनाव भी खासे महत्वपूर्ण है और पहली बार लोकसभा चुनाव की आहट देश को एक ऐसी दिशा में ले जा रही है जहा वैकल्पिक सोच हो या ना हो लेकिन सत्ता बदलती है तो नई सत्ता को सोचना पडेगा ये तय है, अन्यथा नई सत्ता का बोरिया बिस्तर तो और जल्दी बंध जायेगा।
ये सारे सवाल इसलिये क्योकि 1991 में अपनायी गई उदारवादी आर्थिक नीतियो तले पनपे या बनाये गये या फले फूले आर्थिक संस्थानो भी अब संकट में आ रहे है।
ध्यान दिजिये तो राजनीतिक सत्ता ने इस दौर में हर संस्थान को हडपा जरुर या उस पर कब्जा जरुर किया लेकिन कोई नई सोच निकल कर आई नहीं। काग्रेस के बाद बीजेपी सत्ता में आई तो उसके पास सपने बेचने के अलावे कोई आर्थिक माडल है ही नहीं। सपनो का पहाड बीजेपी के दौर में जिस तरह बडा होता गया उसके सामानातंर अब काग्रेस जिन संकटो से निजात दिलाने का वादा वोटरो से कर रही है अगर उसे सौ फिसदी पूरा कर दिया गया तो होगा क्या ?
इस सवाल पर अभी सभी खामोश हैं तो इसे तीन स्तर पर परखें। पहला काग्रेस इस हकीकत को समझ रही है कि वह सिर्फ जुमले बेच कर सत्ता में टिकी नहीं रह सकती।
यानी उसे बीजेपी काल से आगे जाना ही होगा । दूसरा , जो वादे काग्रेस कर रही है मसलन, दस दिन में किसानो की कर्ज माफी , या न्यूनतम समर्थन मूल्य में वृद्दि या बिजली बिल माफ। अगर काग्रेस इसे पूरा करती है तो फिर बैक सहित उन तमाम आर्थिक संस्थानो की रीढ और टूटेगी इससे इंकार किया नहीं जा सकता।
सपने बेचने या लेफ्ट की आर्थिक नीतियों के अलावा तीसरा विकल्प सत्ता में आने के बाद किसी भी राजनीतिक सत्ता के सामने यही बचेगा कि वह वैकल्पिक आर्थिक नीतियो की तरफ बढे। सही मायने में यही वह आस है जो भारतीय लोकतंत्र के प्रति उम्मीद जगाये रखती है। क्योकि मोदी के काल में तमाम अर्थशास्त्री या संघ के विचारो से जुडे बुद्धिजीवी उदारवादी आर्थिक नीतियो से आगे सोच ही नहीं पाये।
इस दौर में देश के तमाम संस्थानो को अपने मुताबिक चलाने की जो सोच पैदा हुई उसने संकट इतना तो गहरा ही दिया है कि अगर सत्ता में आने के बाद काग्रेस सिर्फ ये सोच लें कि देश में लोकतंत्र लौट आया और अब वह भी सत्ता की लूट में लग जायेगी तो 2019 के बाद देश इस हालात को बर्दाश्त करने की स्थिति में होगा नहीं ।
दरअसल , बीजेपी की सत्ता क्यों काग्रेस की बी टीम या कार्बन कापी की तरह ही वाजपेयी काल में उभरी और मोदी काल में भी। काग्रेस से अलग होते हुये भी सत्ता में आते ही बीजेपी का भी काग्रेसी करण क्यों होता रहा है और अब काग्रेस के सामने ये हालात क्यो बन रहे है कि वह वैक्लिपिक सोच विकसित करें तो इसके कारण कई है।
जैसे काग्रेस की उदारवादी नीतियां मोदी की चुनावी गणित अनुकुल करने की कारपोरेट नीतिया । क्षत्रपो का चुनावी गणित के लिये सोशल इंजिनियंरिग को टिकना। क्षत्रप अभी भी जातिय समीकरण के आधार पर अपनी महत्ता बनाये हुये है।
अजित जोगी या मायावती को कितना मतलब है कि आदिवासी या दलित किस सोशल इंडेक्स में फिट बैठ रहा है या उसका जीवन स्तर कितना न्यूनतम पर टिका हुआ है। ये ठीक वैसे ही जैसे उदारवादी आर्थिक नीतिया या कारपोरेट के अनुकल देश को चलाने की नीतियो ने इतनी असमनता पैदा कर दी कि देश का नब्बे फिसदी संसाधन दस फिसदी लोगो के हिस्से में सिमट चुका है।
यही से अब सबसे बडा सवाल राजस्थान, मध्यप्रदेश, छत्तिसगढ के विदानसभा चुनाव से लेकर 2019 के लोकसभा चुनाव तक है कि क्या वाकई देश ऐसे मुहाने पर जा पहुंचा है जहा हर नई सत्ता को वैकल्पिक सोच की दिशा में बढना होगा क्योकि विपक्ष के राजनीतिक नैरेटिव मौजूदा सत्ता की नीतियो से ठीक उलट है या खारिज कर रही है। यहा कोई भी सवाल खडा कर सकता है कि बीजेपी ने तो हमेशा काग्रेस के उलट पालेटिकल स्टैड लिया लेकिन सत्ता में आते ही वह काग्रेसी धारा को अपना ली। ये साल भी सही है।
याद किजिये वाजपेयी के दौर में गोविन्दाचार्य वैक्लिपक स्वदेशी आर्थिक नीति के जरीये वाजपेयी के ट्रैक टू को खारिज कर रहे थे। यानी संघ के स्वयसेवक गोविन्दाचार्य तब दत्तोपंत ठेंगडी और मदनदास देवी के जरीये मनमोहन की आर्थिक नीतियो के ट्रैक पर चलती वाजपेयी सरकार के सामने विकल्प पेश कर रहे थे। पर वाजपेयी सत्ता में भी इतनी हिम्मत नहीं थी कि वह विकल्प को अपनाये।
अंदरुनी सच तो यही है कि वाजपेयी ने गोविन्दाचार्य को मुखौटा प्रकरण की वजह से दरकिनार नहीं किया/करवाया बल्कि वह विश्व बैक और आईएमएफ का ही दवाब था जहां वह स्वदेशी माडल अपनाने की स्थिति में नहीं थे, तो गोविन्दाचाार्य खारिज कर दिये गये।
आज अमित शाह चुनावी जीत के लिये जिस सोशल इंजिनियरिंग को अपनाये हुये है उस सोशल इंजिनियरिंग का जिक्र या प्रयोग की बात 1998 में गोविन्दाचार्य कर रहे थे और तब संघ अंदरुनी अंतर्विरोध की वजह से या तो अपना नहीं पाया या विरोध करने लगा।
आखरी सवाल यही है कि क्या वाकई सत्ता अपने बनाये दायरे से बाहर की वैक्पिक सोच को अपनाने से कतराती है। या फिर भारत का इक्नामिक माडल जिस दिशा में जा चुका है उसमें विदेशी पूंजी ही सत्ता चलाती है और भारतीय किसान हो या मजदूर या फिर उच्च शिक्षा प्रप्त युवा सभी को प्रवासी मजदूर के तौर पर होना ही है।
सत्ता सिर्फ गांव से शहर और शहर से महानगर और महानगर से विदेश भेजने के हालात को ही बना रही है जिससे शरीरिक श्रम के मजदूर हो या बौद्धिक मजदूर सभी असमान भारत के बीच रहते हुये या विदेशी जमीन पर मजदूरी या रोजगार करते हुये भारत में पूंजी भेजे जिसपर टैक्स लगाकर सरकार मदमस्त रहे और देश लोकतंत्र के नाम पर हर सत्ता को सहूलियत देते रहे।
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