प्रकाश भटनागर।
रास्ते में कीचड़ से सामना हो जाना भले ही अच्छा न लगने वाला मामला हो, काम तो उससे भी लिया जा सकता है। कीचड़ के भीतर या उसके आसपास जमा पानी में अपना प्रतिबिंब देख लेना चाहिए।
2024 के आम चुनाव के मार्ग पर तेजी से बढ़ती जा रही भाजपा के लिए भी कर्नाटक की पराजय का कीचड़ इसी तरह से उपयोगी साबित हो सकता है। इस दक्षिणी राज्य में उतरे अपने पानी में भाजपा को अपनी ताजा सूरत देखना चाहिए।
ऐसा करते ही उसे साफ नजर आ जाएगा कि उसके लिए अविजित छवि के मोहपाश से बाहर निकलना बहुत जरूरी हो गया है, खासतौर पर राज्यों के स्तर पर इस दल को अभी बहुत कुछ और करना है।
यदि आप अपराजेय हैं तो फिर ऐसा क्यों होता है कि बिहार में 2015 में लालू यादव और नीतीश कुमार की जातिगत राजनीति की काट आप नहीं तलाश पाते और उसके आगे ध्वस्त हो जाते हैं?
शक्ति केवल यह नहीं कि आप कई राज्यों में आगे बढ़े हैं, शक्ति की कमी बल्कि यह है कि विश्व का सबसे बड़ा राजनीतिक दल बन जाने के बाद भी आप राजस्थान, हिमाचल के बाद कर्नाटक में 'एक बार भाजपा-एक बार कांग्रेस' वाले मिथक को नहीं तोड़ पाते हैं।
कर्नाटक में जीत पर कांग्रेस का उत्साहित होना स्वाभाविक है, यह जीत उसका मनोबल बढ़ाने वाली है। लेकिन कर्नाटक की हार में भाजपा के लिए कई सबक हैं।
कांग्रेस और जेडीयू की सरकार को तोड़ कर भाजपा ने येद्दियुरप्पा को मुख्यमंत्री बनाया। बुजुर्ग येद्दियुरप्पा को हटाया क्यों, क्योंकि पार्टी में जड़ता आ रही थी।
तो इस बदलाव के बाद जनता दल से आए बासवराज बोम्मई को मुख्यमंत्री बनाने का कोई औचित्य भाजपा का शीर्ष नेतृत्व अपने ही कार्यकर्ताओं को समझा सकता था क्या?
सबक यह भी है कि केवल जातीय समीकरण बैठाने भर से भी काम नहीं चलेगा, पार्टी के शीर्ष नेताओं को नीचे के कार्यकर्ताओं की भावनाओं और उनकी पसंद और नापसंद का भी ध्यान रखना पड़ेगा।
सबक यह भी है कि धर्म, आस्था, संस्कृति और राष्ट्रवाद के नाम पर भ्रष्ट नेताओं को संरक्षण मतदाता को स्वीकार नहीं होगा।
अगर आप दिल्ली में भ्रष्टाचार मुक्त सरकार चलाने का दावा करते हैं तो उसे राज्यों पर भी अमल में लाना होगा। चालीस प्रतिशत कमीशन के आरोपों का जवाब पिच्चयासी प्रतिशत कमीशन के प्रति आरोपों से नहीं दिया जा सकता है।
कर्नाटक का सबक यह भी है कि किसी भी राज्य का युवा वोटर मेरिट बेस पर नतीजे चाहता है, भाजपा यहां वोकलिंगा, लिंगायत और बजरंग बली में ही अटक कर रह गई।
यह सही है कि हर चुनाव में पार्टी कार्यकर्ताओं की भावनाओं, जातिवादी समीकरण, प्रतिभाओं का उपयोग जैसी तमाम चीजें महत्व रखती हैं।
अब इसी साल के आखिर में मध्यप्रदेश में भी चुनाव हैं, यहां भी चेतने के लिए समय कम है। पार्टी का संगठन स्थानीय स्तर पर मंत्रियों और विधायकों का जेबी बन चुका है।
नए और पुराने कार्यकर्ता के साथ अब चुनौती ज्योतिरादित्य सिंधिया के साथ आए कांग्रेसी संस्कारों में पले बढ़े नए कार्यकर्ता और नेता भी हैं।
यहां भी भाजपा में ही कार्यकर्ताओं की सबसे बड़ी शिकायत सत्ता और संगठन में उनकी पूछ परख को लेकर है।
मंत्री विधायक बड़े आराम से कार्यकर्ताओं को कह देते हैं कि कलेक्टर या वल्लभ भवन में बैठे अफसर उनकी सुनते नहीं है लेकिन जब कार्यकर्ता देखते हैं कि मंत्री, विधायक की खदान और दुकान तो मजे से चल रही है तो कार्यकर्ताओं के छोटे-बड़े काम क्यों नहीं करवा सकते हैं?
हर राज्य का अपना राजनीतिक गणित होता है।
भाजपा के शीर्ष नेतृत्व का मुगालता ऐसा नहीं है कि अकेले कर्नाटक में दूर हुआ है। पश्चिम बंगाल विधानसभा चुनाव याद कीजिए।
भाजपा यूं हुंकार भर रही थी, जैसे कि ममता बनर्जी की तृणमूल कांग्रेस सरकार को उसके मूल से हमेशा के लिए उखाड़ देगी, लेकिन ऐसा नहीं हुआ।
इस जोश का नतीजा यह जरूर हुआ कि जिस राज्य में यह पार्टी त्याज्य मानी जाती थी, वहां अब उसने दूसरी पायदान पर स्थान सुरक्षित कर लिया है।
भाजपा में घातक तरीके से स्थापित यह किया जा रहा है कि भाजपा अब राज्यों में भी नरेंद्र मोदी और अमित शाह की छवि पर आश्रित होकर रह गयी है। खुद मोदी-शाह भी इसके चलते आत्ममुग्ध हो गए दिखते हैं।
तभी तो ऐसा होता है कि बिहार में नेतृत्व के नाम पर बात सुशील कुमार मोदी से इंच भर भी आगे नहीं बढ़ पाती और विधानसभा चुनाव की कमान मोदी यूं संभालते हैं, मानो कि वह खुद ही मुख्यमंत्री पद के दावेदार हों, कर्नाटक में भी यही हुआ।
नदी के ठीक किनारे लगे वृक्ष भले ही सघन झुरमुट जैसे विशाल स्वरूप के न हों, लेकिन वह वृक्ष ही अपनी जड़ों से नदी किनारों को बांधे रखते हैं।
जगदीश शेट्टार सहित अन्य नाराज कर दिए गए भाजपाई ऐसे वृक्षों की ही तरह पार्टी को मजबूती से बांधे हुए थे, लेकिन भाजपा ने उनकी ही जड़ों को अलग कर दिया।
येद्दियुरप्पा का यहां अब पहले जैसा प्रभाव नहीं रहा, जिनकी कुछ ताकत थी, वे गुजरात फॉमूर्ले की भेंट चढ़ा दिए गए, फिर मोदी मैदान में आए।
बिहार में 'डीएनए' वाली तर्ज पर बजरंगबली के मुद्दे को भुनाने का असफल प्रयास ठीक उसी तरह, जिस तरह हिमाचल में तमाम जरूरी मुद्दों को दरकिनार कर डबल इंजन की सरकार के शोर की नाकाम कोशिश की गयी।
मोदी कर्नाटक में असली मुद्दों से बचते रहे, भाजपा की किसी भी घोषणा में यह नहीं दिखा कि पार्टी ने '40 प्रतिशत कमीशन' वाले आरोपों को ईमानदारी से काउंटर करने की कोशिश की हो।
उल्टा होता तो यह भी दिखा कि भाजपा अब खेत हो चुकी अपनी सरकार के कामकाज का भी प्रभावी तरीके से प्रचार नहीं कर सकी। इससे अलग नेतृत्व आंख मूंदकर पुराने टोटकों पर ही भरोसा करता रहा।
कांग्रेस आक्रामक तरीके से स्थानीय मुद्दों पर आगे बढ़ी और भाजपा इसी मुगालते में जिंदा रही कि उसके खिलाफ जितना तीखा प्रचार किया जाए, उसका उसे ही फायदा मिलता है।
यह नतीजा भाजपा को बता रहा है कि उसे मोदी और शाह जैसे बरगदों से इतर भी राज्यों में स्थानीय नेतृत्व की जड़ों को मजबूत करने का काम करना होगा।
शिवराज सिंह चौहान से लेकर योगी आदित्यनाथ और हिमंता बिस्वा सरमा जैसे और उदाहरण राज्यों के स्तर पर विकसित करने होंगे। उन्हें अपनी क्षेत्रीय ताकतों के रूप में केंद्रीय स्तर तक की शक्ति का महत्वपूर्ण कारक मानना होगा।
ऑपरेशन लोटस जैसी काठ की हांडी हर बार और हर जगह नहीं चढ़ सकती, भाजपा के लिए इस बात को अब स्वीकारने का यह उचित समय है।
हिमाचल, राजस्थान, छत्तीसगढ़ के बीते विधानसभा और कर्नाटक के हालिया चुनाव का नतीजा बताता है कि किसी राज्य में सरकार बन जाने भर से भाजपा का काम नहीं चल जाता, बल्कि इसके बाद उसकी यह जिम्मेदारी और बढ़ जाती है कि सरकार उस तरीके से चले कि उसके लिए दोबारा अवसर भी स्थापित किए जा सकें।
दूसरा, कार्यकर्ताओं को केवल देवतुल्य कहने भर से काम नहीं चलेगा। उम्मीदवारों के चयन में कार्यकर्ताओं की भावनाओं का ध्यान रखे बिना आने वाले चुनावों में भी कर्नाटक जैसे नतीजों का खतरा भाजपा के लिए बरकरार रहेगा।
ऐसे हालात के बीच कर्नाटक की हार भले ही भाजपा की हार हो, लेकिन इसका असली दोषी कौन कहा जाएगा, यह किसी से नहीं छिपा है।
यूं तो कीचड़ को कमल के फूल के लिए गुणकारी खाद माना जाता है, लेकिन कर्नाटक में भाजपा के हिस्से में आए कीचड़ में अहंकार और गलतियों से सबक न लेने के वह विषैले तत्व भी मौजूद हैं, जो कमल को मुरझाने वाली अवस्था में लाने की पूरी ताकत रखते हैं।
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