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जनता जाति, धर्म, क्षेत्र से आगे निकल गई बुद्धिजीवी वहीं अटके हैं

खरी-खरी            May 24, 2019


ममता यादव।
इस बार वोट जातिवाद, क्षेत्रवाद, धर्म, अगड़ा-पिछड़ा से ऊपर उठकर डाले गए हैं। भारत जैसे लोकतांत्रिक देश में इसे अच्छा संकेत माना जाना चाहिए मगर कई बुद्धिजीवियों टाईप प्राणियों को बात पच नहीं रही।

अभी भी इनके विश्लेषण इन्हीं चीजों पर अटके हैं। कुछ तो इतने विक्षिप्त से हो गए हैं कि जनता को ही मूरख बता रहे हैं। कुछ जो कल वंशवाद के विरोधी थे उन्होंने अब इसके पक्ष में हज़ार-हज़ार शब्दों के आलेख लिख डाले हैं।

मोदी जी औऱ उनका विरोध अपनी जगह पर लेकिन,जनमत का सम्मान तो बनता है। नेहरू के बाद क्या कोई नेता हो पाया जिसके सिर्फ नाम पर वोट दिये गए हों? इन चुनावों से एक सन्देश बहुत तगड़ा गया है अगले चुनावों में इसका असर दिखेगा। पार्टी और सिम्बोल से ऊपर व्यक्ति के आधार पर भी चुनाव लड़े जा सकते हैं।

किसी ने गौर किया हो तो दिल्ली सहित कुछ राज्यों में राष्ट्रीय राष्ट्रवादी पार्टी जैसों ने इसकी शुरुआत की है। इस पार्टी ने अपने प्रत्याशी बिना चुनाव चिन्ह के उतारे और उस चेहरे पर ही चुनाव लड़ा। Satyendra Kumar Pandey ये हो सकता है। जिस जनता ने राजा महाराजा को निपटा दिया इन महलों के गुलाम मानसिकता वाले लोग जनता को कोस रहे हैं।

बेहतर है अगले 5 साल कांग्रेस आत्मचिंतन, आत्मावलोकन तो करे ही जमीन पर भी तैयारी करे। विपक्ष में हैं तो इस बार विपक्ष की जिम्मेदारी ज्यादा बड़ी है जनता के प्रति। मजबूत विपक्ष बनकर सामने आना चाहिए 2024 तक।

अब आते हैं कांग्रेस सहित विपक्ष की हार पर तो असली बात ये है कि विपक्ष मोदी के चक्कर में मुद्दे भूल गया। बदजुबानी का कंपटीशन कर भाजपा से बराबरी करने में लगा रहा और चौकीदार चोर सोशल मीडिया पर तो ठीक रहा पर ज़मीनी तौर पर लोगों में इसका गलत संदेश गया।

पूरी भाजपा ने अपने नाम के आगे चौकीदार लगाकर ये साबित कर दिया कि काँग्रेस इस शब्द को ही बदनाम कर रही है जो कि गलत है।

ऐसा लगा कांग्रेस ने भी जमीनी होने के बजाय सोशल मीडिया के आधार पर ही चुनाव लड़ा। हमारे प्रत्याशी वोट काटने के लिये हैं ये तैयारी थी कांग्रेस की। प्रियंका गांधी यूं उतरीं चुनाव मैदान में जैसे हंसी मजाक के मूड में उतरी हों।

उत्तरप्रदेश में स्वतन्त्र चुनाव लड़ना अपने आप मे बड़ा जोखिम साबित हुआ। कांग्रेस खुद की गलतियां न तो सुधारना चाहती है न देखना और घोर आलोचना से पहले विक्टिम फिर विनर बने मोदी के बाद अब सहानुभूति वाली पोस्टें कांग्रेस को दयनीय दिखा रही हैं। खुद की ही योजनाओं को भूल गई कांग्रेस। अब क्या? जो हुआ सो हुआ।

फिलहाल मोदी विकल्पहीनता के इस दौर में एकमात्र विकल्प दिखते हैं। कोई इसे अतिशंयोक्ति माने तो माने।

 


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