पुण्य प्रसून वाजपेयी।
संविधान लागू होते ही लोकतंत्र के जिस पाठ को देश ने पढ़ा, वह वोट देने की बराबरी का ही था। 1950 में 17 करोड 32 लाख,12 हजार, 343 वोटर थे तो आज यानी 2017 में 83 करोड 40 लाख 82 हजार 814 वोटर हो चुके हैं। यानी दुनिया के सबसे बडे लोकतांत्रिक देश होने का तमगा लिये भारत का अनूठा सच ये भी है कि अपनी सत्ता खुद चुनने वाले देश में सत्ता ने चुनने वालो को ही जाति धर्म से लेकर महिला-युवा और गरीब-रईस में भी बांटा। अपना संविधान अपनी सरकार थी तो भी संविधान में दर्ज लोकतंत्र की धज्जियां जमकर उड़ायीं गईं। आपातकाल तो18 महीने रहा। लेकिन बरस दर बरस संसदीय चुनावी लोकतंत्र के राग को देश में हर सत्ता ने कुछ इस तरह गाया कि कि संविधान में दर्ज जनता के हक को देने या छिनने की राजनीति चुनावी मेनिफेस्टो में सिमट गई। और देश इतना गरीब होता चला गया कि 2017 में 1950 के हिन्दुस्तान से दोगुने नागरिक गरीबी की रेखा से नीचे खड़े नजर आये। शिक्षा-हेल्थ-पीने का पानी भी मुनाफे के धंधे में समा गया। खेती से उघोग और उघोग से खनिज संसाधनों की लूट सबसे बडी कमाई बन गई। लेकिन सत्ता उसी को मिली जिसने भूखी जनता
का पेट भरने का नारा दिया।
तो लोकतंत्र की ताकत गरीबी में समायी और सत्ता रईसी की कुर्सी बन गई। देश के संसधानो की लूट में गरीबों की हिस्सेदारी नहीं मिली। गरीबों के लिये पैकेज और कल्याण योजनाओं से होते हुये चुनावी मेनीफेस्टो ने भूखे भारत की तस्वीर ही राज्य दर राज्य रखी। वह भी सत्ताधारियो ने। इसी बार पंजाब में अकाली 10 बरस की सत्ता के बाद भी आटा, चावल गेंहू, दूध ही बांटते नजर आये और यही हालत 5 बरस सत्ता में रहने के बाद समाजवादी अखिलेश यादव की भी रही। तो सत्ता ने गरीबी बरकरार रखकर गरीबों को अपनी सत्ता पर आश्रित किया। और गरीबों ने लोकतंत्र के राग तले संविधान में दर्ज अपने अधिकार को ही जीने की न्यूनतम जरुरत पाने के लिये सत्ता तले बंधक मान दिया।
असर इसी का हुआ कि नेहरु से लेकर मोदी तक के दौर में 60 फिसदी गरीब सबसे बडा एकमुश्त वोटर हो गया। तो 60 फिसदी संपत्ति-संसाधनों के मालिक बहुराष्ट्रीय कन्ज्यूमर हो गये। और सत्ताधारियों ने रईसी को निसाने पर लेकर खुद को गरीब से जोड़कर दुनिया के सबसे बड़े लोकतांत्रिक देश का नेता खुद को मान लिया। लेकिन लोकतंत्र के इस मिजाजमें सत्ता पाने के लिए प्रचार प्रसार की चकाचौंध में पानी की तरह पैसा हर किसी ने कुछ बहाना शुरु किया। कि गरीबी सिर्फ चुनावी नारो में सिमटी और विकास शब्द लोकतंत्र पर भारी लगने लगा। ऐसे में वोट के लिये नेताओं की जुबां जिस तरह कभी महिलाओं की खूबसूरती पर चोट तो कभी वोट और महिलाओं का घालमेल। किसी को तड़ीपार कहना तो किसी को करप्ट कहना। किसी को चोर तो किसी को डकैत तक कहना। तो क्या ये माना जाये कि गणतंत्र के लोकतंत्र में ये बोली वोट के लिये है।
ये अंदाज सत्ता पाने या गंवाने की उम्मीद बनने या टूटने के हैं या फिर लोकतंत्र का मिजाज सत्ता पाने के लिये अब इतना अराजक हो चला है कि मर्यादा टूटेने का खतरा नहीं है बल्कि समाज की मर्यादा कौन कैसे कितने विभत्स तरीके से हवा में उछाल सकता है भीड़ उसी के हिस्से में आयेगी क्योंकि सवाल वोट बैक का है। और वोट भीडतंत्र से समेटे जा सकते है लोकतंत्र से नहीं। तो क्या जिस संसदीय चुनाव को संविधान लागू होने के बाद लोकतंत्र का सबसे बडा ककहरा माना गया वह मौजूदा वक्त में लोकतंत्र से ही दूर हो चला है। ये सवाल इसलिये क्योंकि एक तरफ गरीबी और भुखमरी देश की राजनीति को सत्ता तक पहुंचाती हैं। दूसरी तरफ चुनाव जीतने के लिये सबसे ज्यादा धन प्रचार प्रसार की चकाचौंध में ही बहाया जाता है। अगर यूपी के चुनाव को ही तोल लें। तो एक तरफ 12 करोड़ गरीब पिछड़े हाशिये पर जा रहा यूपी है दूसरी तरफ करोड़ों-अरबों का प्रचार है और प्रचार के आइडिया देने वाले करोड़ों ले रहे हैं। यानी सत्ता पाने के लिये सत्ताधारियों की कवायद को देख लीजिये। लखनऊ में चुनाव जीतने के लिये समाजवादियों का ये वार रुम हर आधुनिक तकनीक से लैस है। कमरे से ही पूरे यूपी के प्रचार पर नजर रखी जा सकती है।
यहीं से चुनाव जीतने वाले नारे निकलेंगे। यानी गरीबों को कैसे नारों और चकाचौंध से लोकतंत्र में गुम कर दिया जाये, इसके व्यवस्था वार रुम में से होगी। तो याद कीजिये 2014 के लोकसभा में भी मोदी का वार रुम कितना आधुनिक था। अत्याधुनिक तकनीक से लैस प्रचार प्रसार में तो पहली बार देश ने नेता की मौजूदगी को वर्चुअल पर देखा। यानी नेता नहीं है लेकिन नेता है। जो गरीबी पर बोल रहा है। जो करप्शन और कालेधन पर बोल रहा है। तो सवाल सिर्फ तकनीक या पढ़े लिखे लोगों का चुनाव जीतवाने का ठेका लेने वाले प्रचार तंत्र का नहीं है। सवाल तो लोकतंत्र का है और लोकतंत्र कैसे इजाजत दे सकता है कि प्रचार में तीस हजार करोड़ फूंक दिया जाये। ये रुपया किसका है, कहां से आया है। कोई नहीं जानता क्योंकि एडीआर की रिपोर्ट ने कल ही जानकारी दी कि कांग्रेस हो या बीजेपी, समाजवादी पार्टी हो या अकाली दल। हर कोई अपने चंदे को छुपाता है और औसतन हर राजनीतिक दल 60 फीसदी रकम बताते ही नहीं कि उनके पास फंड आया कहां से? तो वजह भी यही है कि मूल मुद्दों से इतर अब नेता इस जुबा पर उतर आये हैं और देश की बहस इन्हीं मुद्दों में गुम हो चली है।
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