सत्ता और विपक्ष सुविधानुसार गढ़ रहे अच्छे दिन की परिभाषा

खरी-खरी            Jan 12, 2017


पुण्य प्रसून बाजपेयी।

कोई कह रहा है-आर्थिक इमरजेन्सी, कोई फाइनेंशियल इमरजेन्सी तो कोई सुपर इमरजेन्सी भी कहने से नहीं चूक रहा है। क्या 1975 के आपातकाल के आगे के दौर को मौजूदा वक्त के खांचे में देखा जा रहा है? या फिर नोटबंदी प्रधानमंत्री मोदी का ऐसा राजनीतिक मास्टरस्ट्रोक है जिसके दायरे में पूरी की पूरी राजनीति सिमट गई है और हर तरह की राजनीति के केन्द्र में प्रधानमंत्री मोदी आ खड़े हुये हैं। या फिर इमरजेन्सी शब्द को विपक्ष अब इस तरह क्वाइन कर रहा है, जिससे इंदिरा गांधी की इमरजेन्सी के सामानांतर मोदी की इमरजेन्सी घुमडने लगे। याद कीजिये इमरजेन्सी के खिलाफ जेपी के संघर्ष को खारिज करने के लिये इंदिरा गांधी विनोबा भावे की शरण में गई थीं और जेपी ने जब संपूर्ण क्राति का आंदोलन छेड़ा तो विनोबा भावे से कागज पर इमरजेन्सी को इंदिरा गांधी ने अनुशासन पर्व लिखवा लिया। लेकिन मौजूदा वक्त में ना तो जेपी सरीखा कोई संघर्ष है और ना ही नैतिक बल लिये विनोबा भावे । 1975 में तो संघ परिवार भी जेपी के पीछे जा खडा हुआ था। जिस बीजेपी के पास मौजूदा वक्त में सत्ता है। उनके तमाम नेता इंदिरा की इमरजेन्सी में संघर्ष करते हुये ही पहचान बना पाये।

ऐसे में मौजूदा वक्त में जब कांग्रेस से लेकर ममता और मायावती से लेकर अखिलेश या केजरीवाल भी नोटबंदी के दायरे में इमरजेन्सी शब्द का जिक्र कर रहे हैं तो तीन सवाल हैं। पहला क्या इमरजेन्सी शब्द मोदी की सत्ता के साथ टैग करने भर का सवाल है? दूसरा,क्या इमरजेंसी शब्द के जरीये भ्रष्टाचार और कालेधन को दबाना है। तीसरा, क्या इमरेन्सी शब्द के जरीये ही राजनीतिक सत्ता पलटी जा सकती है। जाहिर है तीनों हालात राजनीतिक कठघरा ही बनाते हैं। अब जबकि इकानामिक इमरजेंसी का जिक्र देश में चल पडा है तो याद कीजिये 1974-75 में इंदिरा गांधी के करप्शन के खिलाफ ही जेपी ने संघर्ष छेडा था और मौजूदा वक्त में सत्ता के करप्शन का सवाल सुप्रीम कोर्ट के दायरे में ही खारिज हो रहा है। यानी एक वक्त जैन हवाला के पन्नों पर आडवाणी ने इस्तीफा दे दिया वहीं आज सहारा-बिरला के दस्तावेजों को सुप्रीम कोर्ट ने नहीं माना । राजनीति में भी नैतिकता गायब हो गई। तो क्या करप्शन की परिभाषा भी मौजूदा दौर में बदल रही है या फिर करप्शन के खिलाफ कोई भी कार्रवाई राजनीतिक तौर इमरजेन्सी शब्द से जोडना आसान है?

मसलन ममता की सत्ता पर करप्शन के लगे दाग पर सीबीआई की कार्रवाई के खिलाफ टीएमसी राष्ट्रपति से मिलकर लौटती है तो सुपर इमरजेन्सी शब्द उछालती है। तो क्या नोटबंदी से मुश्किल में आती मोदी सरकार के सामने अब चुनी हुई सत्ता के करप्शन के खिलाफ कार्रवाई कर अपनी छवि साफ रखना जरुरी हो चला है। 2014 में अच्छे दिन का सपना मोदी ने दिखाया। क्योंकि मनमोहन की सत्ता भ्रष्ट हो चली थी और 2017 की शुरुआत ही राहुल गांधी ने अच्छे दिन का सपना 2019 तक के लिये मुल्तवी कर दिया जब कांग्रेस सत्ता में आ जायेगी। तो क्या इमरेजन्सी शब्द के बाद अच्छे दिन का नारा भी एक ऐसा शब्द हो चुका है जो राजनीतिक सत्ता को चुनौती दे सकता है? या फिर 2014 में जिन शब्दों ने सत्ता पलट दी अब वही शब्द सत्ता के लिये गले की हड्डी बन रहे हैं। या फिर अच्छे दिन की परिभाषा अपनी सुविधानुसार सत्ता और विपक्ष दोनों ही गढ़ रहे हैं।

चिदंबरम इसे घातक मानते है तो जेटली एतिहासिक कदम। दोनों ही वित्त मंत्री एक ही देश के लिये देखने के दो नजरिये हैं। तो ऐसे में सवाल इकानामी का नहीं सियासत का ही ज्यादा होगा और सियासत की इस चौसर में -कौन सा पांसा किस राजनीतिक दल को लाभ दे दे? कौन सा पांसा पंरपारिक राजनीति को ही उलट दे? या फिर कौन सा पांसा राष्ट्रनिर्माण के सपने तले वर्ग संघर्ष के हालात पैदा कर दे और गरीबों के लिये इकानामी में कौन सी भागेदारी रोजगार पैदा करती है इसका कोई विजन आज तक किसी सत्ता ने नहीं बताया?

किसान को लागत से ज्यादा देने का वादा सरकार क्यों नहीं कर पाती ये भी अबूझ पहेली है।दे श में असमानता की खाई कैसे कम होते हुये खत्म हो इसकी कोई दृष्टि किसी इकनामिक प्रयोग में या बजट में उभर नहीं पाती है। तो क्या देश में अच्छे दिन शब्द भी सियासी सपने से ज्यादा कुछ नहीं है? क्या अच्छे दिन की चाहत में सिर्फ सत्ता बदलने का ख्वाब पालना देश का फेल होना है? क्योंकि अच्छे दिन का जिक्र चाहे 2014 में हुआ हो या 2017 में। दोनों हालातों में ये समझना भी जरुरी है कि देश के संसाधनों को 2014 से पहले मनमोहन सिंह ने हड़पा और अब मोदी सरकार हडप रही है। तब बीजेपी ये आरोप लगा रही थी और अब काग्रेस ये आरोप लगा रही है। यानी अच्छे दिन लाने के लिये देश में जिन संस्थानों को काम करना है,उन्ही संस्थानो का राजनीतिकरण राजनीतिक मुनाफे के लिये कर दिया जाता हो तो फिर अच्छे दिन किसके आयेगें।

जाहिर है जनता के लिये तो अच्छे दिन हर सत्ता में मुश्किल हैं। क्योंकि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जिस वक्त कारपोरेट के बीच बैठकर गुजरात वाइब्रेंट समिट में नीतियों और अर्थव्यवस्था में आमूलचूल बदलाव की वकालत कर रहे थे उस वक्त सिंगूर के किसान खासे खुश थे कि अब उन्हें अपनी जमीन मिल जायेगी। तो क्या जिस बाजार इकानामी के दायरे में एसईजेड बनाने की बात मनमोहन सिंह के दौर में हो रही थी और जिस वक्त नैनो कार को सिंगूर में जगह नहीं मिली उसे गुजरात में जमीन तब सीएम रहते हुये मोदी ने ही दी। अब जब सुप्रीम कोर्ट ने 7 राज्यो को सेज पर नोटिस दे दिया है तो क्या इक्नामी का रास्ता हो क्या देश इसी में जा उलझा है?

क्योकि एक तरफ वित्त मंत्री अरुण जेटली अपने ब्लॉग में लिखते हैं मोदी ने नोटबंदी के जरिए अर्थव्यवस्था में पीढ़ीगत बदलाव कर दिया है और दूसरी तरफ दुनिया की तीन बड़े रेटिंग एजेंसियों में एक " फिच " ने कल ही कहा है कि बड़े फायदे के लिए कुछ देर की परेशानी का सरकार का दावा अनिश्चित है। तो न्यूयॉर्क टाइम्स जैसे अखबार ने तो अपनी संपादकीय टिप्पणी में यहां तक लिख दिया कि, " क्रूरतापूर्वक बनाए और लागू किए गए नोटबंदी के फैसले ने आम लोगों की जिंदगी को काफी कठिन बना दिया है। इसके बहुत कम सबूत हैं कि नोटबंदी से भ्रष्टाचार रोकने में मदद मिली है और ना इस बात की गारंटी है कि इस तरह के क्रियाकलापों पर भविष्य में रोक लग पाएगी,जब सिस्टम में कैश वापस आ जाएगा।

क्या नोटबंदी से ढहती बाजार इक्नामी को सही माना जाये? क्योंकि सच यही है कि नोटबंदी से दिसंबर में वाहनों की बिक्री 18.66 फीसदी गिर गई। ये 16 साल में सबसे बड़ी गिरावट है। जनवरी से मार्च में बिजनेस कॉन्फिडेंस 65.4 दर्ज हुआ,जो आठ साल में सबसे कम है। दिसंबर तिमाही में 8 बड़े शहरों में घरों की बिक्री 44 फीसदी गिरी,जो आठ साल में सबसे कम है। डॉलर के मुकाबले रुपया मोदी सरकार के काल में सबसे निचले स्तर को छू रहा है। असंगठित क्षेत्र के 14 करोड़ लोगों के सामने रोजगार का संकट पैदा हुआ है। जिन्हें नौकरी वापस दिलाने को लेकर फिलहाल कोई योजना सरकार के पास नहीं है। यानी नोटबंदी के बाद के हालात ने नया सवाल ये तो खड़ा कर ही दिया है कि आखिर इक्नामी के रास्ते बाईब्रेट गुजरात की चकाचौंध पर चलेंगे? या नोटबंदी के अंधेरे के बाद रोशनी आयेगी? या फेल होते सेज तले आखिर में देश को कार या सरकार पर नहीं किसानी पर ही लौटना पडेगा।



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