पुण्य प्रसून बाजपेयी।
सवाल ना तो किसी चौराहे का है ना ही पीएम के वचन का। सवाल है कि आखिर 30 दिसंबर के बाद देश के सामने रास्ता होगा क्या? क्योंकि इन्फ्रास्ट्रक्चर जादू की छड़ी से बनता नहीं है। और नोट छापने से लेकर कैशलेस देश की जो परिभाषा बीते 36 दिनो से गढ़ी जा रही है, उसके भीतर का सच यही है कि मनरेगा से लेकर देशभर के दिहाड़ी मजदूर जिनकी तादाद 27 करोड पार की है उनकी हथेली खाली है। पेट खाली हो चला है। तीन करोड़ से ज्यादा छात्र जो घर छोड़ हॉस्टल या शहरों में कमरे लेकर पढ़ाई करते है उनकी जिन्दगी किताब छोड़ बैंक की कतारों में जा सिमटी है। मिड-डे मील की खिचड़ी भी अब गाव दर गांव कम हो रही है। और दुनिया में सबसे ज्यादा भूखे भारत की तादाद जो 19 करोड़ की है। अब इस कतार में 11 करोड़ से ज्यादा लोगों की तादाद शामिल हो चुकी है। गुरुद्वारों के लंगर में बीते 35 दिनो में तीस फीसदी का इजाफा हो चुका है।
यानी आगरा मे गजक बनाने वाला हों या गया के तिलकुट बनाने वाले या फिर कानपुर में चमडे का काम हो या सोलापुर या सूरत में सूती कपडे का काम। ठप हर काम पड़ा है। पं बंगाल समेत नार्थ इस्ट में जूट का छिटपुट काम भी ठप है और असम के चाय बगानो से मजदूरो से पहले अब ठेकेदार और बगान मालिकही मजदूरों को भुगतान के डर से भाग रहे हैं। तो सवाल ये नहीं है कि 30 दिसंबर के बाद क्या कोई जादू की छड़ी काम करने लगेगी। सवाल ये है कि जिस स्थिति में देश नोटबंदी के बाद आ खड़ा हो गया है, उसमें अब रास्ता है कौन सा। क्योंकि नोटो की मांग पूरी ना कर पाने के हालात कैशलेस का राग जप रहे हैं। तो दूसरी तरफ 65 फिसदी हिन्दुस्तान में मोबाईल-इंटरनेट-बिजली संकट है तो कैशलेस कैसे होगा। और एक कतार में हर नेता के निशाने पर प्रधानमंत्री मोदी का नोटबंदी का निर्णय है लेकिन रास्ता किसी के पास नहीं है। और ये कोई अब समझने को तैयार नहीं है कि 30 दिसंबर के बाद पीएम नहीं देश भी फेल होगा। लेकिन राजनीतिक बिसात आरोपों की है तो निर्णय भी अब घोटाले के अक्स में देखा जा रहा है। तो वाकई हालात बिगड़े हैं। या बिगड रहे हैं।
तो कोई भी कह सकता है तब 30 दिसंबर के बाद रास्ता होना क्या चाहिये। क्योंकि सवाल ना तो देश के सब्र में रहने का है ना ही एक निर्णय के असफल होने का। सवाल है कि अब निर्णय कोई भी सरकार क्या लेगी। क्योंकि नोटों के छपने का इंतजार रास्ता नहीं है। कैशलेस होने के लिये इन्फ्रास्ट्रक्चर खड़ा करने तक के वक्त का इंतजार रास्ता नहीं है। बैंकिंग सर्विस के जरिये आमजन तक रोटी की व्यवस्था कराने की सोच संभव नहीं है। -लोगों की न्यूनतम जरुरतों को सरकार हाथ में ले नहीं सकती। शहरी गरीबो के लिये सरकार के पास काम नहीं है। और फैसले पर यू टर्न तो लिया ही नहीं जा सकता। अन्यथा पूरी इकनॉमी ही ध्वस्त हो जायेगी।
तो क्या पहली बार देश उस मुहाने की तरफ जा रहा है जहा आने वाले वक्त में राजनीतिक सत्ता को ही बांधने की व्यवस्था राजनीतिक और संवैधानिक तौर पर कैसे हो अब बहस इसपर शुरु होगी। क्योंकि चुनावों की जीत-हार से कहीं आगे के हालात में देश फंस रहा है और असमंजस के हालात किसी भी देश को आगे नही ले जाते इसे तो हर कोई जानता समझता है। तो दो हालातों को समझना जरुरी है। पहला ढहती भारतीय व्यवस्था। दूसरी ढहती व्यवस्था के अक्स पांच राज्यों के विधानसभा चुनावों को जनता की राय मान ली जाये। तो दोनों स्थिति त्रासदीदायक है क्योंकि एक तरफ जिस मनरेगा के आसरे देश के साढ पांच करोड़ परिवारों के पेट भरने की व्यवस्था 15 बरस पहले हुई उसका मौजूदा सच यही है कि नोटबंदी ने मनरेगा मजदूरों की रीढ़ तोड़ दी है। आलम ये है कि मनरेगा के तहत अक्टूबर के मुकाबले नवंबर में 23 फीसदी रोजगार घट गया।
और पिछले साल नवंबर की तुलना में तो इस बार मनरेगा में 55 फिसदी रोजगार कम रहा। और ये हाल अभी का है और इससे पहले का मनरेगा का सच ये था कि वित्तीय साल 2015-16 में कुल 5.35 करोड़ परिवारों ने मनरेगा के तहत रोजगार की मांग की लेकिन केवल 4.82 करोड़ परिवारों को ही रोजगार दिया जा सका यानी 9.9 फीसद परिवारों को मांग के बावजूद रोजगार नहीं हासिल हुआ। और ये रोजगार भी सिर्फ 100 दिन के लिए था। और अब हालात और बिगड़े हैं क्योंकि पैसा नहीं है। तो दो सवाल सीधे हैं कि देश के करोडो मजदूरों के पास अगर काम ही नहीं होगा तो वो जाएंगे कहां ? और अगर काम बिना खाली पेट सरीखे हालात बने तो क्या आने वाले दिनों में अराजकता का माहौल नहीं बनेगा?
जवाब कम से कम सरकार के पास नहीं है अलबत्ता इंतजार चुनाव का ही हर कोई करने लगा है। क्योंकि देश तो चौराहे पर खड़ा है। एक तरफ नोटबंदी पर ईमानदारी के दावे। दूसरी तरफ नोटबंदी से परेशान कतार में खडा देश। तीसरी तरफ संसद के भीतर बाहर घोटाले की तर्ज पर नोटबंदी को देखने मानने पर हंगामा। और चौथी तरफ पांच राज्यों के विधानसभा की उल्टी गिनती। और अब सवाल ये कि क्या यूपी, उत्तराखंड, पंजाब , गोवा और मणिपुर में चुनाव मोदी के नोटबंदी के फैसले पर ही हो जायेगा। क्योंकि हालात बताते हैं कि खरगोश से भी तेज रफ्तार से देश चल पड़े तो भी अप्रैल बीत जायेगा। और चुनाव आयोग संकेत दे रहा है कि चुनाव फरवरी में ही निपट जायेंगे।
तो क्या प्रधानमंत्री मोदी का सबसे बडा जुआ या कहें दांव पर ही देश चुनाव में फैसला करेगा। यानी ईमानदारी का राग सही या गलत। भ्रष्टाचार राजनीति का ही पालापोसा बच्चा है या नहीं। नोटबंदी से क्रोनी कैपटिलिज्म की जमीन खत्म हो जायेगी या नहीं। नोट बदलने से ब्लैक-मनी खत्म हो जायेगी या नहीं। या फिर चुनाव की हार जीत से गरीब देश फिर हार जायेगा। यानी पहली बार देश की इकनॉमी से राजनीतिक खिलवाड़ हो रहा है और आज संसद तो कल विधानसभा चुनाव इसकी बिसात के प्यादा साबित होंगे। और परेशान देश में जीत उसी राजनीति की होगी जिसने देश को खोखला भी बनाया और खोखले देश को ईमानदारी से भरने का राग भी अलापा।
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