बांदा उत्तरप्रदेश से आशीष सागर।
सत्तर वर्ष से अधिक जर्जर,साधन वंचित दलित के जीने का आधार जंगल की लकड़ी है। मानिकपुर के पाठा ( विंध्यांचल,कैमूर वन रेंज ) रानीपुर अभ्यारण्य में अब जंगल नहीं वीरान बीहड़ है।
वनाधिकार कानून से बेदखल आदिवासी पुलिस और वनविभाग दोनों से पीड़ित है। 1950 से अब तक करीब दर्जन भर सांसद-विधायक पाठा का एक गाँव नहीं बदल सके आखिर क्यों? पीएम मोदी और योगी को वोट करने वाली सुधिया की सुध कौन लेगा? इन्हें कभी नक्सली तो कभी डकैत का सपरस्त कहकर मारा गया!
बुन्देलखण्ड के यूपी क्षेत्र में जिला चित्रकूट प्रकृति के संसाधन से खुशहाल था। आस्थावादी लोग इस नगरी को भगवान राम के वनवास काल से जोड़ते हुए आदिवासी कोल के सेवा भाव से भी जानते है। यूपी पर्यटन को बड़ा राजस्व चित्रकूट की माटी से मिलता है तब जब उसका आज भी माकूल पुरसाहाल नहीं लिया जाता। यहाँ की दो जीवन दायनी बड़ी नदी वाल्मीकि और मंदाकनी धार्मिक,भौतिक कृत्य से मृत्यु शैया पर है।
इस बीच करीब दर्जन भर आये माननीय अपने वेतन-भत्तों के साथ मौज करते रहे जैसा आगे हो रहा है। पिछली सरकारों ने क्या किया ये बहस न करते हुए वर्तमान यूपी सरकार को बुन्देलखण्ड ने 19 विधायक दिए हैं।
समाजवादी सीएम अखिलेश यादव ने विधानसभा चुनाव में रामनगरी में खड़े होकर अपने विकास के झूठे दावे किये। जनता सुनती रही क्योंकि उसके पास न सवाल थे,न माईक। एकतरफा संवाद में पूछने वाला और जवाब देने वाला अकेला सीएम ही था।
बहन मायावती ने इस चित्रकूट मंडल से तीन बड़े मंत्री दिए जिनमें चित्रकूट से दद्दू प्रसाद,बाँदा से नसीमुद्दीन सिद्दकी और बाबूसिंह कुशवाहा लेकिन इन्ही तीनो ने जमकर अपने कुनबे का भला किया पाठा की तरफ दयाभाव से देखा तक नहीं। इलाके के दो बड़े एनजीओ इनके नाम पर भाई—पिताजी बन गए।
बुन्देलखण्ड पैकेज के कुंए इसकी कोख में दफ़न हो गए जिनमें आज पानी का अकाल है। एशिया की सबसे बड़ी पाठा पेयजल परियोजना लापता है। वहीं रानीपुर वन्यजीव अभ्यारण में विकास,हरियाली के नाम पर करोड़ों रूपये वनविभाग के फाइल से गर्क हुए पर बदला कुछ नहीं बल्कि ये वाईल्ड लाइफ सेंचुरी बीहड़ में तब्दील होती चली गई।
गर्मी में यहाँ होता है सांय-सांय।
बीते 29 जून बीबीसी संवादाता समीरआत्मज मिश्रा के साथ साथी जितेन्द्र त्रिपाठी को लेकर मै चुनाव के बाद फिर इसी वाईल्ड लाइफ सेंचुरी में था। थाना मानिकपुर क्रास ही किया कि सन्नाटे में सामने से कुछ अधेड़ महिलाये जंगली लकड़ी सर पे रखे हुए आती दिखलाई दी। मन में आया कि ये वही बरगढ़,सतीअनसुइया,मारकुंडी,हनुमानधारा,रजोला,मझगंवा क्षेत्र की तरह रोज की दलित महिला है जो शंकरगढ़ और अतर्रा तक पेट के लिए लकड़ी बेचती है।
मैं गलत था....सत्तर बरस की एक माई को रोककर पूछा...कहाँ से आ रही है...जंगल से ! का नाम है...सुधिया ! गाँव कहाँ है माई...उमरी! जंगल से आई हो...हाँ सुबह 6 बजे गई रहों !...अभी तो साढ़े बारह बजे है कितने बजे पहुंचिहो ?...पसीना पोछते हुए..जात हों !! मांस से झूलती गाल तक पैर की खाल का हौसला तपती धूप में गजब का था! एक डंडी के सहारे पेट की आग के लिए लकड़ी का गट्टर समेटे ये औरत जिंदगी के उस दौर में है जिसकी सांसे शायद राह चलते भी थम सकती है!
जीवन जीने और परिवार को पालने का ऐसा माद्दा न तो लुटियन की दिल्ली में होगा और न राजधानी लखनऊ के टुंडे कबाब खाने वाली लक्जरी मैडम में! वोट किसको दी हो....मोदी को..और अबहिने चुनाव में....उही योगी का! कुछ मिला का....हे हे हे हे....हमें का मिली अबहूँ कुछ बताय का रहिगा का? उमरी कित्ती दूर है...घंटा भर लागी..मने तुम्हरी चाल से। दस किलोमीटर। उम्र के इस पायदान में ये औरत गाँधी की डगमग चल पड़े जिधर दो पग को धता बतला रही थी। गाँधी की बनिस्बत सुधिया तेज चाल वाली माई है)।
जिसने रोजाना बीस किलोमीटर चलकर चुह्ला जलाने की मशक्कत में पीएम मोदी के उज्जवला योजना की साख पे बट्टा लगा दिया है। पूछने पर जानकारी मिली इस क्षेत्र में आदिवासियों को गैस नहीं मिली है। सुधिया बात करके आगे बढ़ी इतने में उसके पैर की पनही टूट गई. जितेंद्र ने कार में रखी बिसलरी की बोतल हाथ में ली और माई को पानी पिलाया। लकड़ी का गट्टर साधे जितेन्द्र अपलक सुधिया को देख रहे थे....वाह रे सरकार...वाह रे जीएसटी...वाह रे विकास...वाह रे आधार....वाह रे लोकतंत्र और आह रे आजादी।
माई पानी पीकर अपने दिशा की ओर चली गई कल फिर एक और दौड़ लगाने को जो उसके साथ परिवार की भूख का जुगाड़ करेगा आने वाले तमाम वोट की शर्त पर। हम तीनों गाड़ी से गाँव नागर की तरफ बढ़ चले। शेष अगले पोस्ट में 5 लाख तीस हजार के ईनामी डकैत बबुली के खौफ से हलकान आदिवासी पुलिस से परेशान हैं।
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