राघवेंद्र सिंह।
राजनीति में एक जमाना था खास तौर पर कांग्रेस में, जब यह जुमला चलता था खाता न बही जो केसरी कहे वही सही... केसरी से तात्पर्य श्री सीताराम केसरी था। केसरी कांग्रेस के कोषाध्यक्ष थे बाद में वे राष्ट्रीय अध्यक्ष भी बने। कांग्रेस सत्ता में थी और सत्ताधारी दल के पास नामी-बेनामी चंदा बहुत आता है। सो उनके पास भी पैसे देने वालों की रेलमपेल मची रहती थी। मगर सत्ता के तमाम दुर्गुणों से भरी कांग्रेस में काजल की कोठरी में बैठे केसरी जी जो कहें वह सही माना जाता था। इसके पीछे नेतृत्व, कार्यकर्ता और जनता का भरोसा होना बड़ी बात थी। मगर यह गुजरे जमाने की बात हो रही है।
अब सबसे ज्यादा संकट भरोसे का है और यह हर दिन टूट रहा है। यह मुसीबत तो देशव्यापी है मगर हम फोकस कर रहे हैैं मध्यप्रदेश पर। सत्ता संगठन और नौकरशाही, सब के सब चाहते हैं कि जो वह कहे वही सही लेकिन कोई ऐसा केसरी नहीं हो पा रहा है। कांग्रेस भी अपने केसरी की तरह नहीं। वह जनता के लिये संघर्ष करने एकजुट होने की बही तो खोलती है लेकिन खाते में सब सही नहीं दिखता। धर्म आधारित राजनीति का झंडा उठाने वाली भाजपा के धर्मराजों के रथ भी जो कभी जमीन से उपर चलते थे नीचे आ रहे हैं।
सात किसानों की मौत पर सत्ताग्र्रह करने वाले मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान के उपवास पर ही प्रश्न खड़े हो चुके हैं। वे किसान व जनहितैषी छवि को उजला करने के लिये पसीने-पसीने हो रहे हैं। इसमें प्रदेश भाजपा और मंत्रीगण मदद तो कर रहे हैं मगर अटपटी सी। प्रदेश अध्यक्ष नंदू भैया कहते हैं किसानों की आत्महत्या के पीछे कर्ज को कारण बताना फैशन हो गया है। यह जख्मों पर नमक जैसा लगता है। कृषि मंत्री गौरीशंकर बिसेन कहते हैं दो सौ करोड़ की प्याज किसानों से खरीदेंगे भले ही भंडारण के अभाव में वह सड़ जाये।
13 साल की सरकार भंडारण की व्यवस्था नहीं कर पाई, उचित दाम तय नहीं कर पाई जबकि उसका वादा दावा था कि किसानी को लाभ का धंधा बनायेंगे और वह बन गया आत्महत्या का धंधा। विश्वास के टूटने की हजारों हजार वजहों में एक बड़ी वजह है। आमजन 2003 से भरोसा करके ही भाजपा को वोट देते आ रहे हैं। लेकिन खेती को लाभ का धंधा बनाने की तोता रटंत झूठ ही साबित हो रही है। भोला किसान इस सदमे को सह नहीं कर पा रहा है और उसकी आत्महत्या को सत्ताधारी दल तरह तरह के नाम दे रहे हैं। इससे मुख्यमंत्री की छवि और भाजपा का ब्रांड मटियामेट हो रहा है।
नेताओं के टूटते भरोसे के बीच करेला और नीम चढ़ा यह हो रहा है कि नौकरशाही ने झूठ बोलने में नेताओं को भी मात दे दी है। सबसे भयानक उदाहरण मंदसौर किसान गोलीकांड का है। जिसमें कलेक्टर एसपी तो होम मिनिस्टर से लेकर सीएम तक से झूठ बोलते रहे हैं कि आंदोलनकारी किसानों की मौत पुलिस गोली से नहीं हुई। हालांकि बाद में सरकार ने स्वीकार किया पुलिस से ही किसान मरे। यह अपराध करने वाले कलेक्टर एसपी पंद्रह दिन बाद सस्पेंड किये गये।
अभी इस सदमे से सूबा और सरकार उबरे भी नहीं थे कि भोपाल के कलेक्टर (अब इंदौर) निशांत बरबड़े ने अपने वरिष्ठ अफसरों को बता दिया कि किसानों से खरीदी गई हजारों क्विंटल प्याज का नब्बे फीसदी परिवहन हो रहा है वे सीएम की आंख के तारे अफसर हैं सो भोपाल सिम्मी जेल तोड़ कांड के बाद भी उन्हें राज्य की आर्थिक राजनीति इंदौर की कमान लगता है इन्हीं काबिलियत भरी बातों के कारण सौंप दी गई।
हालांकि मुख्य सचिव वी.पी. सिंह ने तंज कसा कि यही है सक्सेसफुल अफसर की निशानी। लेकिन यहां मुख्य सचिव थोड़ा कमजोर साबित हुये उन्होंने सदन में गलत जानकारी देने से लेकर गोलीकांड और प्याज परिवहन के मसले पर कठोर कार्रवाई नहीं की। ऐसी तमाम कमजोरियों के लिये कार्रवाई नहीं करने के लिये इतिहास में नेता-अफसरों को दागी के रूप में याद किया जायेगा। अफसर झूठ बोल रहे हैं साथ ही नेताओं पर अवांछित टिप्पणी कर नियम कायदों का उल्लंघन कर रहे हैं। लगता है कोई देखने सुनने वाला नहीं है।
नियम अनुशासन से चलने वाली प्रदेश भाजपा में लगता है स्वेच्छारिता हावी है। बयानवीरों को छोड़ दें तो संगठन चलाने वालों का रवैया ऐसा है मानो वे पालिटिकल टूरिज्म पर आये हैं। प्रदेश युवा मोर्चा पार्टी संविधान के बाहर जाकर निर्णय कर रहा है। मनमाने तरीके से तेरह समितियां गठित कर दीं। उस पर एतराज के बाद मोर्चा अध्यक्ष का बयान आता है कि जिन्हें आपत्ति है वे अपने पदों से त्यागपत्र दे दें। ऐसा लगता है पार्टी में इवेंट का नशा उसे जन संगठन के बजाय प्राइवेट प्रापर्टी में बदल रहा है।
यह बीमारी प्रदेश भाजपा को भी लगी है। इसकी एक मिसाल यह है कि परंपरा के मुताबिक जिला भाजपा अध्यक्षों के द्वारा अपने जिले में भाजयुमो से लेकर अन्य मोर्चो की इकाइयां घोषित की जाती हैं। ताकि वे मोर्चा उनके आग्रह पर पार्टी हित में काम करे। इसे समझने के लिये एक उदाहरण यह है कि प्रदेश भाजपा अध्यक्ष ही प्रदेश के मोर्चा अध्यक्षों की घोषणा करते हैं न कि राष्ट्रीय अध्यक्ष। अगर राष्ट्रीय अध्यक्ष प्रदेश के मोर्चा अध्यक्षों का ऐलान दिल्ली से करें तो केसा रहेगा? इससे होगा यह कि दिल्ली से घोषित मोर्चा अध्यक्ष अपने प्रदेश भाजपा अध्यक्ष की सुनेंगे ही नहीं।
अब हो यह रहा है कि प्रदेश भाजपा कार्यालय से जिलों के मोर्चा अध्यक्षों की घोषणा हो रही है। ऐसे में आने वाले दिनों में जिला भाजपा अध्यक्षों की पकड़ से मोर्चा नेता निकल जायेंगे। वे मनमानी करेंगे तो उन्हें रोकने वाला कोई नहीं होगा क्योंकि वे तो प्रदेश नेतृत्व सीधे जुड़े हैं उनके द्वारा घोषित किये गये हैं। इसके अलावा हर मोर्चा की कार्यकारिणी सदस्यों की संख्या जो कि अध्यक्ष समेत छियालीस होनी चाहिये उसका भी पालन नहीं हो रहा है। चिंताजनक यह है कि प्रदेश अध्यक्ष, संगठन महामंत्री से लेकर प्रदेश प्रभारी सब खामोश है। जबकि पार्टी विधान में पेज 32 के कालम छह में सब स्पष्ट है। मगर सब टूट फूट रहा है। नियम, परंपरा और भावनाएं भी...।
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