राकेश दुबे।
भारत में चिकित्सा शिक्षा की दशा दिन- ब- दिन गम्भीर होती जा रही कहने को देश में 576 चिकित्सा महाविद्यालय हैं और हर साल 50 हजार डाक्टर निकलते हैं। इन महाविद्यालयों में चिकित्सा अनुसन्धान की दशा दयनीय है। आधे महाविद्यालय शोध पत्र प्रकाशित ही नहीं करते और जो करते हैं वो रस्म अदायगी से ज्यादा कुछ नहीं है।
यूँ तो अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भारतीय डॉक्टरों की अच्छी प्रतिष्ठा है और दुनिया की सबसे बड़ी मेडिकल शिक्षा प्रणालियों में भारत का नाम शामिल होता है, लेकिन इन उपलब्धियों के बावजूद हमारे मेडिकल कॉलेज गंभीर कमियों से ग्रस्त हैं। जिसमें सुधार के कोई प्रयास नहीं किये जा रहे हैं। अब विदेश भारतीय डाक्टरों से परहेज करने लगे हैं।
भारत में डॉक्टरों की एक अहम संस्था है, एसोसिएशन ऑफ डिप्लोमैट नेशनल बोर्ड। एसोसिएशन ऑफ डिप्लोमैट नेशनल बोर्ड के मुताबिक, पिछले 10 सालों में 576 मेडिकल संस्थानों में से 332 ने एक भी शोध पत्र प्रकाशित नही किया है।
चिकित्सा शिक्षा का महत्वपूर्ण भाग अनुसंधान होता है। यह ही चिकित्सा अध्ययन और प्रशिक्षण के आधार होता हैं। महत्वपूर्ण मुद्दा यह है कि यदि देश के आधे से अधिक कॉलेजों में ऐसा नहीं हो रहा है, तो यह डॉक्टर बन रहे छात्रों की क्षमता तथा शिक्षण प्रबंधन पर बड़ा सवालिया निशान है।
इस पूरे व्यवसाय पर नजर रखने वाली भारतीय चिकित्सा परिषद की भूमिका पर भी संदेह होने लगता है। सवालों और बदनामी के घेरे में यह संस्थान सालों से हैं। कोई भी सरकार इसके तिलिस्म को नही भेद सकी है।
सरकार द्वारा संचालित चिकित्सा महाविद्यालयों की लचर व्यवस्था पर अक्सर चर्चा होती है। यहाँ मुद्दा दूसरा है लगभग 60 प्रतिशत मेडिकल कॉलेज निजी क्षेत्र में हैं और इन्हें राज्य और देश के बड़े नेताओं का संरक्षण प्राप्त है।
कहने को ये संस्थान अपने छात्रों से शोध के नाम पर भी भारी शुल्क वसूलते हैं। प्रवेश के साथ ही “पैकेज” के नाम पर यह सब वसूल लिया जाता है। फिर किसी भी प्रकार का शोधकार्य नहीं हो पाना हर प्रकार से चिंताजनक है। पाठ्यक्रम के अनुसार हर स्नातकोत्तर छात्र को अंतिम परीक्षा के लिए एक थिसिस लिखनी होती है,वर्तमान हालात इशारा करते है कि ज्यादातर थिसिस प्रकाशित होने लायक नहीं होते हैं।
इन शोध ग्रन्थों को मात्र परीक्षा पास करने के लिए लिखा जाता है?
भारत के गंभीर अध्ययनों की इस कमी का नुकसान उन अन्य देशों को भी हो सकता है जहाँ भारतीय डाक्टर आजीविका के लिए जाते हैं। विश्व बैंक के मुताबिक, एक-तिहाई भारतीय डॉक्टर पढ़ाई पूरी करने के बाद प्रशिक्षण या काम करने के लिए विदेश चले जाते हैं। जिनमें से तकरीबन 15 सौ ऐसे डॉक्टर तो अकेले अमेरिका का रुख करते हैं। जहाँ उनके लिए सिर्फ संघर्ष ही दिखता है।
शोध में कमी का एक बड़ा कारण डॉक्टरों पर बड़ा बोझ भी है। हर मेडिकल कॉलेज के साथ एक अस्पताल भी जरूरी है। सस्ते और बेहतर इलाज के लिए बड़ी संख्या में लोग मेडिकल कॉलेज के अस्पतालों में जाते हैं।
जहां जांच और उपचार का मुख्य जिम्मा कनिष्ठ डॉक्टरों और अंतिम वर्ष के छात्रों का होता है। उनके लिए शोध पर ध्यान देना मुश्किल होता है। ऊपर से परीक्षा पास करने का दबाव भी होता है।
इस माहौल में कॉलेज प्रबंधन भी उन्हें शोध के लिए उत्साहित नहीं करता है। निजी मेडिकल कॉलेज सरकारी मंजूरी की शर्त पूरी करने के लिए डॉक्टरों को कागजों पर अपने यहां शिक्षक के रूप में दिखा देते हैं। हकीकत कुछ और ही होती है।
कई छात्रों के लिए मेडिकल सिर्फ एक करियर है और उनका लक्ष्य डिग्री लेकर पैसा कमाना होता है, न कि रिसर्च करना। सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवा की बदहाली ने निजी अस्पतालों और डॉक्टरों के लिए अकूत कमाई का रास्ता खोल दिया है। इन समस्याओं के समाधान के बिना कारगर स्वास्थ्य सेवा तंत्र स्थापित करने का सपना पूरा नहीं हो सकता है।
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